प्रवचनसारः गाथा -34, 35 ज्ञान के श्रुत
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -34  (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -35 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )

सुत्तं जिणोवदिटुं पोग्गलदव्वप्पगेहिं वयणेहिं /
तं जाणणा हि णाणं सुत्तस्स य जाणणा भणिया // 34 //

अन्वयार्थ- (पोग्गलदवप्पगेहिं वयणेहिं पुद्गल द्रव्यात्मक वचनों के द्वारा (जिणोवदिहूं)। जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा उपदिष्ट सुत्तं सूत्र हैं, (तं जाणणा हि) उसकी ज्ञप्ति णाणं) ज्ञान है, (य) और उसे सुत्तस्स जाणणा) सूत्र की ज्ञप्ति श्रुतज्ञान) भणिदा कहा गया है। पुद्गलद्रव्यात्मकैर्वचनैः। तज्जाणणा हि णाणं तस्स य सुत्तस्स य जाणणा प्रतिपत्तिः तेन वा श्रुतेन जाणण

आगे ज्ञानके श्रुतरूप उपाधिभेदको दूर करते हैं—[पुद्गलद्रव्यात्मकैः] पुद्गलद्रव्यस्वरूप [वचनैः] वचनोंसे [जिनोपदिष्टं] जो जिनभगवान् का उपदेश किया हुआ है, [सूत्रं] वह द्रव्यश्रुत है, [हि ] निश्चयकर [तद्ज्ञप्तिः] उस द्रव्यश्रुतका जानना वह [ज्ञानं] भावश्रुत ज्ञान है / [च सूत्रस्य] और द्रव्यश्रुतको भी [ज्ञप्तिः] ज्ञान [भणिता] 'व्यवहारसे' कहा है। भावार्थ-द्रव्यश्रुत पुद्गलमय है, क्योंकि वह वीतराग भगवानका अनेकान्तरूप वचन है / इस द्रव्यश्रुतको जो ज्ञान जानता है, उसे निश्चयसे ज्ञान कहते हैं / परन्तु जो द्रव्यश्रुतको ही ज्ञान कहते हैं, सो व्यवहारनयसे ज्ञानके उत्पन्न करनेमें कारणभूत होनेसे अन्नमें प्राणकी तरह कारणमें कार्यका व्यवहार कर कहते हैं, यथार्थमें द्रव्यश्रुतकी ज्ञानसंज्ञा नहीं है, क्योंकि वचन जड़ पुद्गलमयी है, तथा वह ज्ञानको उपाधिरूप है, और ज्ञान जानने मात्र है, उसके कोई उपाधिका काम ही नहीं है / लेकिन 'श्रुतज्ञान' ऐसा कहनेका कारण यह है, कि कर्मके संयोगसे द्रव्यश्रुतका निमित्त पाकर ज्ञान उत्पन्न होता है / यदि वस्तुके स्वभावका विचार किया जाय, तो ज्ञान ज्ञानसे ही उत्पन्न होता है, इसी लिये ज्ञानके कोई श्रुत वगैरः उपाधि नहीं है


गाथा -35  (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -36 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


जो जाणदि सो णाणं ण हवदि णाणेण जाणगो आदा।
णाणं परिणमदि सयं अट्ठा णाणट्ठिया सच्चे // 35 //


अन्वयार्थ- (जो जाणदि) जो जानता है, (सो णाणं) सो ज्ञान है, जो ज्ञायक है वही ज्ञान है (णाणण) ज्ञान के द्वारा आदा) आत्मा (जाणगो हवदि) ज्ञायक है, (ण) ऐसा नहीं है, (सयं) स्वयं ही (णाणं परिणमदि) ज्ञानरूप परिणमित होता है, (सव्वे अट्ठा) और सर्व पदार्थ (णाणट्टिया) ज्ञान स्थित है।

आगे कितने ही एकान्तवादी ज्ञानसे आत्माको भिन्न मानते हैं, सो उनके पक्षको दूर करनेके लिये आत्मा कर्ता है, ज्ञान कारण है, ऐसा भिन्नपना दूर करके आत्मा और ज्ञानमें अभेद सिद्ध करते हैं-[यः] जो आत्मा [जानाति] जानता है, [सः] वह [ज्ञानं] ज्ञान है / [ज्ञानेन] ज्ञान गुणसे [ज्ञायकः] जाननेवाला [आत्मा] आत्मा अर्थात् चेतनद्रव्य [न भवति] नहीं होता /  [ज्ञानं] ज्ञान [स्वयं] आप ही [परिणमते] परिणमन करता है, [सर्वे अर्थाः] और सब ज्ञेय पदार्थ [ज्ञानस्थिताः] ज्ञानमें स्थित हैं / भावार्थ-यद्यपि व्यवहारमें संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजनादि भेदोंसे ज्ञान और आत्माको वस्तुके समझनेके लिये भिन्न कहते हैं, परन्तु निश्चयमें ज्ञान और आत्मामें भिन्नपना नहीं है, प्रदेशोंसे ज्ञान और आत्मा एक है / इसी कारण ज्ञानभावरूप परिणमता आत्मा ही ज्ञान है / जैसे अग्नि ज्वलनक्रिया करनेका कर्ता है, और उष्णगुण ज्वलन क्रियाका कारण है। अग्नि और उष्णपना व्यवहारसे भिन्न हैं, परन्तु यथार्थमें भिन्न नहीं है, जो अग्नि है, वही उष्णपना है, और इसलिये अग्निको उष्ण भी कहते हैं / इसी प्रकार यह आत्मा जाननेरूप क्रियाका कर्ता है, और ज्ञान जानन–क्रियाका साधन है, इसमें व्यवहारसे भिन्नपना (भेद) है, वस्तुतः आत्मा और ज्ञान एक ही है / और जैसे कोई पुरुष लोहेके दाँते (हँसिये) से घासका काटनेवाला कहलाता है, उस तरह आत्मा ज्ञानसे जाननेवाला नहीं कहा जाता, क्योंकि घासका काटनेवाला पुरुष और घास काटनेमें कारण लोहेका दाँता ये दोनों जैसे जुदा जुदा पदार्थ हैं, उसी प्रकार आत्मा और ज्ञानमें जुदापना नहीं है, क्योंकि आत्मा और ज्ञान, अग्नि और उष्णताकी तरह अभिन्न ही देखनेमें आते हैं, जुदे नहीं दीखते, और जो कोई अन्यवादी मिथ्यादृष्टि कहते हैं कि, आत्मासे ज्ञान भिन्न है, ज्ञानके संयोगसे आत्मा ज्ञायक है / सो उन्हें “आत्मा अचेतन है, ज्ञानके संयोगसे चेतन हो जाता है," ऐसा मानना पड़ेगा। जिससे धूलि, भस्म, घट, पटादि समस्त अचेतन पदार्थ चेतन हो जायेंगे, क्योंकि जब ये पदार्थ जाने जाते हैं, तब इन धूलि वगैरः पदार्थोंसे भी ज्ञानका संयोग होता है / इस कारण इस दोषके मेंटनेके लिये आत्मा और ज्ञान एक ही मानना चाहिये / और जैसे आरसीमें घटपटादि पदार्थ प्रतिबिम्बरूपसे रहते हैं, उसी प्रकार ज्ञानमें सब ज्ञेयपदार्थ आ रहते हैं। इससे यह सारांश निकला, कि आत्मा और ज्ञान अभिन्न हैं, अन्यवादियोंकी तरह भिन्न नहीं हैं //



मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 34,35



Manish Jain Luhadia 
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#2

Gatha-34
Teachings of Lord Jina that reach us through his divine words – which are in form of physical matter (pudgala) – constitute the Scripture (sūtra or dravyaśruta). Essentially, the knowledge of the Scripture is scriptural-knowledge (bhāvaśruta). Empirically, the Scripture (sūtra or dravyaśruta) is also knowledge.

Explanatory Note:
The Scripture (sūtra or dravyaśruta) is in form of physical matter (pudgala) since it is the non-absolutistic (anekāntātmaka) expression of the words of Lord Jina. Knowledge
of the Scripture (sūtra or dravyaśruta) is scriptural-knowledge (bhāvaśruta). However, overlaying the effect in the cause, as overlaying life in food, empirically, the Scripture (sūtra or dravyaśruta) is also knowledge. In real terms, the Scripture (sūtra or dravyaśruta) is not knowledge since it is physical matter (pudgala). Knowledge just knows; it is the manifestation of consciousness (cetanā), no strings attached. The knowledge arising on the study of the Scripture (sūtra or dravyaśruta) gets the designation ‘śrutajñāna’ only because the Scripture is the instrumental cause of that knowledge. From the transcendental-point-of-view (niścayanaya), only knowledge begets knowledge.



Gatha-35

The one who knows – the soul – is the knowledge. The soul does not know through its quality of knowledge. The knowledge (jñāna), on its own, transforms and pervades in all objects-of knowledge (jñeya).

Explanatory Note: 
From the transcendental-point-of-view (niścayanaya), the knowledge (jñāna) and the soul (ātmā) are the same and coextensive. For the purpose of explanation, empirically,
the two get different designation, number, sign, or utility. Manifestation of the soul in form of knowledge is the knowledge. The fire is the doer (kartā) of the process of burning and the heat (in the fire) is the cause (kāraõa) of burning. The fire and the heat are empirically different but, in reality, both are the same; the fire is the heat. In the same way, the soul is the doer (kartā) of the process of knowing and the knowledge is the instrument (sādhana) of knowing. Empirically, there is the suggestion of difference between the soul and the knowledge but, actually, there is no difference. The man who cuts grass with the help of the mower is, by designation, the grass-cutter, but the man and the  mower are different entities. There is no such difference between the soul and the knowledge. The soul is not the knower because of any external quality of knowledge; the two – the soul (ātmā) and the knowledge (jñāna) – are the same, as the fire and the heat. The ignorant who believes that the soul and the knowledge are different and only due to the influx of the knowledge the soul attains consciousness, must concede, as a corollary, that the soul is unconscious and gets consciousness due to the influx of the knowledge. Then, all objects including the dust, the pot, and the cloth, must attain consciousness on pervasion of the knowledge through these. This is absurd. Therefore, the soul and the knowledge are one and as the reflected objects dwell in the mirror, the objects of knowledge dwell in the knowledge.

Taken from . Ācārya Kundakunda’s Pravacanasāra – Essence of the Doctrine by Vijay K. Jain
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -33,34
श्रुतज्ञानको पाकरके स्वज्ञायकपनपर चित्त दिया ।
श्रुतकेवली नाम उसने हो ऋषि लोगो से प्राप्त किया ॥
जिनवरजीके दिव्य वचनका नाम सूत्र या श्रुत होता
जिसे श्रवण कर भव्यजीव यह बोधोदधिमें ले गोता ॥ १७

गाथा -35,36
ज्ञान भिन्न है नहीं जीवसे इसीलिये जो जाने सो
ज्ञान और सब ज्ञेय ज्ञानगत होते हैं स्वभाव ऐसो
ज्ञान जीव ही ज्ञेय जीव भी और द्रव्य भी होता है।
जो कि सदा परिणमनरूपसे त्रिविधभावको ढोता है १८


गाथा -33,34
सारांशः – यहाँ पर आचार्यश्रीने श्रुतज्ञान किसे कहते हैं? वह किस तरहसे होता है और उस श्रुतज्ञानका धारक जीव भी श्रुतकेवली कब होता है? ये तीनों बातें बताई है। सामान्य रूपसे सुनी हुई बात को श्रुत कहते हैं और उसके वाच्यार्थके जाननेको श्रुतज्ञान कहा जाता है। हमारे सुननेमें दो तरहकी बात आती है। एक तो अल्पज्ञकी अपनी तरफ से कही हुई बात जो उत्सूत्र कहलाती है। इससे हमको वस्तुस्वरूपका यथार्थ ज्ञान नहीं होता है अतः इसके निमित्तसे हम सबको जो ज्ञान होता है वह कुश्रुतज्ञान होता है। किन्तु श्री वीतराग सर्वज्ञ अरहन्त देवके वचन या उन्होंके शिष्य प्रशिष्य श्री गणधरादिके वचनों को सूत्र कहते हैं। जिससे हमको वस्तु तत्त्वका निर्देश प्राप्त होता है। उनके ज्ञानको श्रुतज्ञान कहा जाता है। हमारे उस ज्ञानमें जिनवचन अनिवार्य निमित्त होते हैं। अतः कारणमें कार्यका उपचार करके जिनवचनको श्रुतज्ञान कहा जावे तो भी कोई हानि नहीं है।

गाथा -35,36 
सारांश:- व्याकरणके अनुसार 'जानातीति ज्ञानं' जो जानता है वह ज्ञान होता है इस प्रकार कर्तृ साधनसे तो ज्ञान आत्माका ही नाम ठहरता है क्योंकि जाननेवाला आत्मा ही 'ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं' जिसके द्वारा जाना जाता है वह ज्ञान होता है। इस तरह से करण साधन करने पर आत्मा और ज्ञान भिन्न भिन्न ठहरते हैं। आत्मा तो जाननेवाला है और ज्ञान जाननेका साधन है। फिर भी यहाँ पर ऐसा भेद नहीं है जैसा कि कुठारके द्वारा लकड़ीको काटने वाले बढ़ई में पाया जाता है। बढ़ई और कुठार दोनों भिन्न भिन्न है।

ज्ञान आत्माका धर्म है और आत्मा उसका धर्मी है। जैसे कि अग्नि अपनी उष्णता से भिन्न न होकर उसीका गुण है या धर्म व परिणमन है। केवल इनमें परस्पर परिणाम, परिणामी भाव बतानेके लिए इन्हें भिन्न भिन्न कहा जाता है। वास्तवमें प्रदेशत्वेन इनमें भिन्नत्व नहीं है। यदि ज्ञप्तिक्रियाके प्रति आत्मा कर्त्ता और ज्ञान उसका करण होने मात्र उन्हें भिन्न  ही कहा जाये (जैसी कि कुछ लोगों की मान्यता है) तो फिर ज्ञानको लेकर आत्मा ज्ञानवान् ही बन सकता है। ज्ञ एवं ज्ञाता नहीं कहा जा सकता है परन्तु आत्मा ज्ञाता है। ज्ञानसे अभिन्न है, ज्ञानमय है। सब पदार्थ इसके ज्ञेय हैं। जानने योग्य हैं। आत्मा ज्ञान रूप भी है और ज्ञेयरूप भी है क्योंकि वह जिस प्रकार इतर पदार्थों को जानता है उसी प्रकार अपने आपको भी जानता है। जो अपने आपको नहीं जानता है वह दूसरे को भी नहीं जान सकता है और न देख ही सकता है।


शङ्काः – हमारी आंखें अपने आपको तो नहीं देखतीं परन्तु दूसरों को देखा करती हैं, यह कैसे ?
उत्तर: – आँखें जैसे अपने आपको नहीं देखती हैं वैसे ही वे दूसरों को भी कभी नहीं देखती हैं किन्तु आंखों के द्वारा हम देखते हैं। हमारी आंखें तो हमारे लिए खिड़की की तरह हैं। ज्ञान हमारा स्वभाव है। यह हर एक पदार्थ के अस्तित्व को बतलाने वाला है, यही हमको यह बताता है कि यह अमुक चीज है। ज्ञान अपने आपको नहीं जानता जब ऐसा कहा जाता है तब इसका मतलब यह हुआ कि ज्ञान है ही नहीं। 

शङ्काः - अपने आपको न  जानने वाले ज्ञान का अभाव क्यों कहा गया है क्योंकि अपने आपको न जानकर भी उसको दूसरा ज्ञान या दूसरे का ज्ञान जान सकता है।
उत्तर: – दूसरा भी तो अपने आपको नहीं जानने वाला ही है, फिर उससे क्या स्वार्थ सिद्ध हो सकता है? स्वयं गिरता हुआ मनुष्य किसी दूसरे को स्थिर रख सके यह कैसे माना जा सकता है? अतः अनवस्था दोष से बचने के लिए ज्ञान को स्वप्रकाशक भी मानना ही पड़ता है। ज्ञान हर पदार्थ की एवं अपने आपकी भी सत्ता को प्रकाशित करने वाला है, जो सत्ता उत्पत्ति, विनाश और स्थिति इन तीनों रूपों को लिए हुए होती है एवं हर पदार्थ को सत्ता अपनी भूत और भविष्यत पर्यायों के साथ में  वर्त्तमान को सम्बद्ध रखते हुए एक श्रृंखला के समान हैं। एवं सम्पूर्ण पदार्थों की अविकल सत्ता केवली के ज्ञान का स्पष्ट विषय होती है, यही बताते हैं
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