प्रवचनसारः गाथा - 41, 42 अतीन्द्रिय ज्ञान की विशेषताएँ
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार


गाथा -41

अपदेस सपदेस मुत्तममुत्तं च पजयमजादं /
पलयं गयं च जाणदि तं णाणमदिदियं भणियं // 41 //

अन्वयार्थ- (अपदेसं) जो अप्रदेश को (सपदेसं) सप्रदेश को (मुत्तं) मूर्त को (अमुत्तं च) और अमूर्त को तथा (अजादं) अनुत्पन्न (च) और (पलयं गदं) नष्ट (पज्जयं) पर्याय को (जाणदि) जानता है (तं णाणं) वह ज्ञान (अदिंदियं) अतीन्द्रिय (भणिदं) कहा गया है।

आगे अतीन्द्रियज्ञान सबको जानता है, ऐसा कहते हैं-[यत् जो ज्ञान [अप्रदेश प्रदेश रहित कालाणु तथा परमाणुओंको, [सप्रदेश प्रदेश सहितको अर्थात् पंचास्तिकायोंको मृत] पुद्गलोंकोच और अमूर्त शुद्ध जीवादिक द्रव्योंको [अजातं पर्यायं] अनागत पर्यायोंको [च] और [प्रलयं गतं] अतीत पर्यायोंको [जानाति] जानता है [तत् ज्ञानं] उस ज्ञानको [अतीन्द्रियं] अतीन्द्रिय [भणितं कहा है।
भावार्थ
अतीन्द्रियज्ञान सबको जानता है, इसलिये अतीन्द्रियज्ञानीको ही सर्वज्ञ पद है / जो इन्द्रियज्ञानसे सर्वज्ञ मानते हैं, वे प्रत्यक्ष मिथ्या बोलते हैं। क्योंकि जो पदार्थ वर्तमान होवे, मूर्तीक स्थूल प्रदेश सहित होवे, तथा निकट होवे, उसीको इन्द्रियज्ञान क्रमसे कुछेक जानसकता है / अप्रदेशी, अमूर्तीक तथा अतीत अनागतकाल संबंधी जो पदार्थ हैं, उनको नहीं जान सकता / ऐसे ज्ञानसे सर्वज्ञ पदवी कहाँसे मिल सकती है ? कहींसे भी नहीं

गाथा -42

परिणमदि णेयमढे णादा जदि णेव खाइगं तस्स /
णाणं ति तं जिणिदा खवयंतं कम्ममेवुत्ता // 42 //


अन्वयार्थ- (णादा) ज्ञाता (जदि) यदि (णेयमट्ठं) ज्ञेय पदार्थ रूप (परिणमदि) परिणमित होता हो तो (तस्स) उसके (खाइगं णाणं) क्षायिक ज्ञान (णेव त्ति) होता ही नहीं, (जिणिंदा) जिनेन्द्र देवों ने (तं) उसे (कम्ममेव) कर्म को ही (खवयंतो) अनुभव करने वाला (उत्ता) कहा है।

आगे अतीन्द्रियज्ञानमें इष्ट अनिष्ट पदार्थों में सविकल्परूप परिणमन क्रिया नहीं है, ऐसा दिखलाते हैं—[यदि] जो [ज्ञाता] जाननेवाला आत्मा [ज्ञेयमर्थ] ज्ञेयपदार्थको [परिणमति] संकल्प विकल्परूप होकर परिणमन करता है, [तदा] तो [तस्य] उस आत्माके [क्षायिकं ज्ञानं] कर्मके क्षयसे उत्पन्न हुआ अतीन्द्रियज्ञान [नैव] निश्चयसे नहीं है, [इति 'हेतोः'] इसलिये [जिनेन्द्राः ] सर्वज्ञदेव [तं] उसविकल्पी जीवको [कर्म क्षपयन्तं] कर्मका अनुभव करनेवाला [एव] ही [उक्तवन्तः] कहते हैं / 
भावार्थ-
जबतक आत्मा सविकल्परूप पदार्थोको जानता है, तबतक उसके क्षायकज्ञान नहीं होता, क्योंकि जो जीव सविकल्पी है, वह प्रत्येक पदार्थमें रागी हुआ मृगतृष्णा-उग्र गर्मीमें तपी हुई बालमें जलकी सी बुद्धि रखता हुआ, कर्मीको भोगता है / इसी लिये उसके निर्मल ज्ञानका लाभ नहीं है / परन्तु क्षायिकज्ञानीके भावरूप इन्द्रियों के अभावसे पदार्थोंमें सविकल्परूप परिणति नहीं होती है, क्योंकि निरावरण अतीन्द्रियज्ञानसे अनंत सुख अपने साक्षात् अनुभव गोचर है। परोक्षज्ञानीके इन्द्रियोंके आधीन सविकल्परूप परिणति है, इसलिये वह कर्मसंयोगसे प्राप्त हुए पदार्थोंको भोगता है



मुनि श्री प्रणम्य सागर जी   प्रवचनसार गाथा - 41, 42

गाथा 041 के माध्यम से मुनि श्री बताते हैं कि अतींद्रिय ज्ञान वह ज्ञान है जो
• जो द्रव्य प्रदेश रहित हैं, जो द्रव्य प्रदेश सहित हैं- वह ज्ञान ऐसे पदार्थों को जानता है
• मूर्तिक एवं अमूर्तिक पदार्थ को जानता है
• सभी पदार्थ और उनकी सभी पर्याएँ
• जो पर्याय अभी उत्पन्न नहीं हुई हैं और जो उत्पन्न होके नष्ट हो गई हैं
• भविष्य, भूत काल की पर्याय को जानता है ।
• ज्ञेय,पदार्थ को पकड़ रहा है।
पूज्य श्री कहते हैं कि हमें इन्द्रिय ज्ञान को छोढ़कर अतींद्रिय ज्ञान को अपने ध्यान का विषय बनाना चाहिए। हमें आत्मा के अविमुख अपने ध्यान को ले जाना है। उन ज्ञान मय आत्माओं का ध्यान करना चाहिए।

गाथा 042 के माध्यम से मुनि श्री बताते हैं कि
• यदि ज्ञाता ज्ञेय भूत पदार्थों में परिणमन करेगा तो क्षायिक ज्ञान नहीं हो पाएगा।
• क्षायिक ज्ञान ज्ञेयों के अनुसार परिणमन नहीं करता। ज्ञेय में परिणमन नहीं करता।
• सर्वज्ञ भगवान पदार्थों को क्रम से नहीं जानते। उनके ज्ञान में सब कुछ एक साथ झलकता है।
• पूज्य श्री कहते हैं कि हमें इंद्रियो के विषय से हटकर पदार्थ को बिना राग द्वेष के जानना चाहिए।


Manish Jain Luhadia 
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#2

Gatha-41
The knowledge which knows objects that are without spacepoints – kālāõu or aõu, with space-points – pańcāstikāya, with form – pudgala, without form – jīva etc., the modes of the future that are yet to originate, and the modes of the past that have vanished, is the perfect-knowledge (omniscience or kevalajñāna),
that is beyond the five senses – atīndriya jñāna.

Explanatory Note:
Perfect-knowledge (omniscience or kevalajñāna) is beyond the five senses – it is atīndriya jñāna; it knows everything and, therefore, the one who owns this kind of knowledge is the Omniscient (the Sarvajña). Those who believe that sensory-knowledge (matijñāna) can lead to omniscience are under delusion. Sensory-knowledge is able to know, to a certain extent, objects that are present, have form, substantiality, extensiveness, and proximity. It cannot know objects that are without form and are minuscule; it can also not know the non-present past and future modes (paryāya) of substances. How can the owner of such partial knowledge be granted the status of the Omniscient (the Sarvajña)?

Gatha-42
If the knowledge-seeking soul is influenced by the objects-of knowledge (jñeya), that soul certainly does not attain permanent knowledge born out of the destruction of karmas (ksāyika jñāna); the Omniscient Lord calls such a soul the enjoyer of the fruits of the karmas.

Explanatory Note: 
The soul that experiences volition (sankalpa) or inquisitiveness (vikalpa) toward the objects-of knowledge (jñeya) does not attain permanent knowledge (ksāyika
jñāna). Such a soul, attached to the objects-of-knowledge (jñeya), enjoys the fruits of the karmas without attainment of pristine knowledge, just as the deer chases a mirage. On attainment of permanent knowledge (ksāyika jñāna) born out of destruction of the karmas, as the psychical-senses (bhāvendriya) are absent,
there is no volition or inquisitiveness toward the objects-of knowledge (jñeya). Such a soul enjoys infinite bliss born out of its direct, sense-independent knowledge – atīndriya jñāna. The soul that has indirect, sense-dependent knowledge enjoys the objects of- knowledge (jñeya) as the fruits of the karmas.
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश


गाथा -41,42

मूर्त अमूर्त स्थूल सूक्ष्म हो चुका और होने वाला ।
हाल अतीन्द्रिय बोधगम्य हो क्या जाने इन्द्रिय वाला ||
इष्टानिष्ट विकल्पयुक्त जो ज्ञान वस्तुको लखता है
अक्षायिक वह ज्ञान जीवका स्वयं कर्मफल चखता है २१


गाथा -41,42
सारांश: – पदार्थों का परिणमन दो प्रकार का होता है। एक प्रदेशत्व गुण के विकार रूप स्थूल परिणमन और दूसरा अप्रदेशात्मक सूक्ष्म परिणमन। दूसरी तरह से एक मूर्त रूप, रस गंधादिमय । दूसरा अमूर्त रूपादि से रहित किञ्च एक वर्तमान और दूसरा, अवर्तमान (हो चुका या होनेवाला) । वर्तमान मूर्त पदार्थोंके स्थूल परिणमन को इन्द्रिय ज्ञान यथासंभव जान सकता है। यह बात ठीक है परन्तु अतीन्द्रिय ज्ञान तो स्थूल और सूक्ष्म, मूर्त और अमूर्त, वर्तमान तथा भूत और भावी सभी प्रकार के परिणमनको जानता है। अतीन्द्रय ज्ञान आत्मा के कर्मोंका नाश करने वाला होता है किन्तु इन्द्रियाधीन ज्ञान, हर पदार्थ के पीछे लग कर, उसमें भला बुरापन मानने के कारण कर्मों को जीतनेमें असमर्थ ही रहता है और अपने किये हुए कर्मो के फल को भोगता रहता है।

शङ्काः अवधिज्ञान और मन:पर्यय नाम के अतीन्द्रिय ज्ञान से भी तो बन्ध होता है। केवल इन्द्रिय ज्ञानसे ही बंध क्यों कहा गया, यह समझ में नहीं आया?

उत्तर:- वस्तुतः इन्द्रियजन्य ज्ञान और अतीन्द्रिय ज्ञान इसप्रकारसे दो ज्ञान भिन्न भिन्न नहीं हैं। ज्ञान तो पहिले बताया जा चुका है कि वह आत्मा का गुण है, वह एक ही है, उसका काम जानना है परन्तु जैसे लज्जाशील नवविवाहिता कुलवधू अपने घूंघट की ओट में देखा करती है। वह अपने पीहरवालों को देखकर प्रसन्न हो जाती है और ससुराल वालों को देखकर संकुचित हो जाती है तथा पराधीनता में जकड़ी हुई रहती है। इसी प्रकार यह संसारी आत्मा भी अपने मोहनीय कर्म के कारण, सेन्द्रियता के परदे में होकर देखता जानता है। यह अपने अभीष्ट को देखकर प्रसन्न और अनिष्ट को देखकर दुखी हो जाता है एवं कर्मबंध करता रहता है। कर्मबंध का कारण देखना और जानना नहीं है किन्तु पदार्थको भला या बुरा मानकर उससे रागद्वेष करना है।

यह मखमली गद्दा बहुत कोमल है, सुहावना है, यह कङ्करीली जमीन कठोर है, चुभती है, दुख देती है। हलवा मीठा और सुस्वादु है किन्तु यह नीमका पत्ता कड़वा है, खाया नहीं जाता। गुलाब के फूलकी सुंगध बहुत अच्छी है परन्तु मिट्टी के तेल की दुर्गंध से नाक फटा जा रहा है। चन्द्रमा तो देखने में अच्छा लगता है परन्तु भूत को देखकर तो डर लगता है। कोयल की बोली बड़ी प्यारी है और कौए का शब्द बड़ा बुरा लगता है। इस प्रकार से इन्द्रियों के विषयोंको ग्रहणकर जानते हुए रागद्वेषरूप प्रवृत्त होता है।
अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान के द्वारा जानते हुए भी पदार्थ के प्रति जो भले बुरेपन को कल्पना उठती है, वह सब इन्द्रियाधीनता को लेकर ही चलती है। वास्तव में तो कोई भी पदार्थ न तो भला ही है और न बुरा ही है। हर एक पदार्थ अपने अपने द्रव्य क्षेत्र काल और भाव के अनुसार परिणमन करता है। ज्ञान उसे जानता है। इसलिये आगमकारों ने इन्हें विकलातीन्द्रिय और देशप्रत्यक्षके रूप में स्वीकार किया है।

मतिज्ञान और श्रुतज्ञान भी जब इष्टानिष्ट कल्पना से रहित होकर, इतर पदार्थों से दूर रह कर, केवल आत्म तल्लीन हो जाते हैं उस समय वे भी प्रत्यक्ष कहे जाते हैं। 'क्षयः प्रयोजनं यस्य तत् क्षायिकं' इस निरुति के अनुसार ज्ञानावरणादिक कर्मो के नाश के कारण हो जाते हैं। मतलब यही है कि न तो ज्ञान ही बंध का कारण है और न आत्मा की चेष्टा ही बंध का कारण है। बंध का कारण तो आत्मा का राग द्वेष है,
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