प्रवचनसारः गाथा -49- भगवान की सर्वज्ञता
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -49 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -50 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )

दव्वं अणंतपज्जयमेगमणंताणि दव्वजादाणि /
ण विजाणदि जदि जुगवं किध सो सव्वाणि जाणादि // 49 //

अन्वयार्थ- (जदि) यदि (अणंतपज्जयं) अनन्त पर्याय वाले (एकं दव्वं) एक द्रव्य को (आत्मद्रव्य को) (अणंताणि दव्वजादाणि) तथा अनन्त द्रव्यसमूह को (जुगवं) एक ही साथ (ण विजाणदि) नहीं जानता (सो) तो वह (सव्वाणि) सब (अनन्त द्रव्यसमूह) को (किध जाणादि) कैसे जान सकेगा?

आगे कहते हैं, कि जो एकको नहीं जानता, वह सबको नहीं जानता—यदि] जो [अनन्तपर्यायं एकं द्रव्यं] अनन्त पर्यायवाले एक आत्म द्रव्यको [नैव जानाति] निश्चयसे नहीं जानता, [तदा] तो [सः] वह पुरुष [युगपत् ] एक ही बार [अनन्तानि] अंत रहित [सर्वाणि] संपूर्ण [द्रव्यजातानि] द्रव्योंके समूह [कथं] कैसे [जानाति] जान सकता है ? भावार्थ-आत्माका लक्षण ज्ञान है / ज्ञान प्रकाशरूप है, वह सब जीव-राशिमें महासामान्य है, और अपने ज्ञानमयी अनंत भेदोंसे व्याप्त है / ज्ञेयरूप अनंत द्रव्यपर्यायोंके निमित्तसे ज्ञानके अनंत भेद हैं / इसलिये अपने अनंत प्रव. विशेषणोंसे युक्त यह सामान्य ज्ञान सबको जानता है / जो पुरुष ऐसे ज्ञानसंयुक्त आत्माको प्रत्यक्ष नहीं जान सकता, वह सब पदार्थोंको कैसे जान सकेगा ? इसलिये 'एक आत्माके जाननेसे सब जाना जाता है। जो एक आत्माको नहीं जानता, वह सबको नहीं जानता', यह बात सिद्ध हुई। दूसरी बात यह है कि, आत्मा और पदार्थोंका ज्ञेयज्ञायक संबंध है / यद्यपि अपने अपने स्वरूपसे दोनों पृथक् पृथक हैं, तो भी ज्ञेयाकार ज्ञानके परिणमनसे सब ज्ञेयपदार्थ ऐसे भासते हैं, मानों ज्ञानमें ठहर ही रहे हैं / जो ऐसा आत्माको नहीं मानें, तो वह अपने स्वरूपको संपूर्णपनेसे नहीं जाने, तथा आत्माके ज्ञानकी महिमा न होवे / इस कारण जो आत्माको जानता है, वह सबको जानता है, और जो सबको जानता है, वह आत्माको जानता है / एकके जाननेसे सब जाने जाते हैं, और सबके जाननेसे एक जाना जाता है, यह कहना सिद्ध हुआ / यह कथन एकदेश ज्ञानकी अपेक्षासे नहीं है, किंतु केवलज्ञानकी अपेक्षासे है


मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार गाथा - 49 

?यहाँ कैवल्यज्ञान को अर्थात भगवान की सर्वज्ञता का एक प्रश्न के माध्यम से समाधान बताया जा हैं।

?भगवान सर्वज्ञ हैं या नही? इस संशय का आचार्यो ने कई प्रकार से खण्डन किया हैं कि जब सभी कषायो का औऱ बाधक कारणों का अभाव हो जाता हैं ,तब सम्पूर्ण ज्ञान प्रकट होता हैं और उसे ही कैवल्यज्ञान कहते है।

? जैसे सोने की डली या किसी मणि पर धूल जम जाती हैं या मैली हो जाती हैं तो मैली होने के कारण उसका खरापन नही जाता हैं उसी प्रकार हमारी आत्मा पर कषाय रूपी मैल जमा हैं पर अगर हम उस पर से कषाय और कर्म के मैल हटा दे तो आत्मा में ज्ञान प्रकट हो जाता हैं ।अतः भगवान सर्वज्ञ हैं ।

?इस प्रकार हमें अपने अंतरंग में हमेशा आत्म चिंतन करना चाहिए और आत्म भावना भानी चाहिए,, हमे  इंद्रिय ज्ञान से परे अतीन्द्रिय ज्ञान को पाने की भावना करनी चाहिए।,



Manish Jain Luhadia 
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#2

If the knowledge-soul does not know completely the single substance (the soul) with its infinite modes, how can it know simultaneously the conglomeration of infinite classes of
substances?
Explanatory Note: 
Knowledge (jñāna) is the attribute of the soul (ātmā, jīva). Knowledge is like the light that is present in all souls and is of infinite kinds. Infinite substances (dravya) and
infinite modes (paryāya) of these substances – objects-of-knowledge (jñeya) – are the bases for different kinds of knowledge. Such knowledge, with its infinite kinds, knows all objects-of-knowledge (jñeya). How can the soul (ātmā, jīva) that does not know directly this knowledge-equipped soul know all substances?
Therefore, the knowledge of the soul (ātmā, jīva) means the knowledge of every other object-of-knowledge (jñeya) and the soul that does not know itself does not know all other substances. Further, there exists the relationship of the knower (jñāyaka) and the known (jñeya) between the soul and the objects-of-knowledge. Although the two eternally maintain their own nature, still, as the knowledge (jñāna) transforms in form of the objects-of-knowledge (jñeya), these objects appear as if stationed or
established in the knowledge-soul. The one who does not accept this does not know fully the nature of the soul (ātmā, jīva) and undermines its glory. Therefore, the one who knows the soul, knows everything; and the one who knows everything, knows the soul. By knowing the one (ātmā, jīva), everything is known, and by knowing everything, the one is known. The above refers not to the partial-knowledge of the senses, but to the perfect-knowledge or kevalajñāna of the Omniscient Lord.
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -49,50


एक चीज में अनन्त गुण है यों अनन्त चोजें सारो ।
उन्हें नहीं सहसा यदि जाने कैसा पूर्ण बोध धारी ॥
हाँ जो ज्ञान पूरे क्रम से एकैक बात को लेकर के ।
यह अक्षायिक होता है वह कभी न सबको जान सके ॥ २५ ॥

गाथा -49,50

सारांश : - इस भूतल पर अनन्त द्रव्य हैं। इनमें से प्रत्येक में अनन्त गुण हैं और एक एक गुण की अनन्त पर्यायें होती हैं। इन सबको एक साथ न जानने वाला सर्वज्ञ कैसे हो सकता है? क्रमपूर्वक जानने वाले ज्ञान में एक को जानते समय दूसरे का ज्ञान नहीं और दूसरे को जानते समय पहिले वाले का ज्ञान नहीं रहता है, अतः क्रमबद्ध ज्ञान से सर्वज्ञता असंभव ही है।
यदि यह कहा जाय कि एक एक बात को जानकर जिस प्रकार हम बहुज्ञ बन जाते हैं वैसे ही सर्वज्ञ भी बन सकते हैं सो प्रथम तो ऐसा हो नहीं सकता क्योंकि चीजें अनन्त हैं। एक एक करके उनका अंत ही नहीं आ सकता है। कदाचित् ऐसा मान भी लिया जावे तो अन्त में सब चीजों का ज्ञान हमको एक साथ हुआ, तभी तो सर्वज्ञ हुए। जैसे कि कोई मनुष्य एक एक चीज ला लाकर अपने भण्डार में रखता जा रहा हो और यों कुछ दिनों में सब चीजें इकट्ठी करके सर्वसम्पन्न हो जाता है। उस समय उसके पास सब चीजें होती हैं इसीलिये वह सर्व सम्पन्न कहलाता है। यदि वह इतर वस्तुओंका संग्रह करते करते पूर्व वस्तुओंको नष्ट करता जाय तो सर्व सम्पन्न नहीं बन सकता है। इसी प्रकार क्रमिक ज्ञान में कुछ का ज्ञान एकसाथ होता है और फिर इतर कुछ का ज्ञान होते समय पहिले वाली वस्तु का ज्ञान नहीं रहता क्योंकि ऐसा ज्ञान कर्मोदय के कारण क्षणस्थायी होता है। ऐसी दशा में सर्वज्ञ कैसे हो सकता है?
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