प्रवचनसारः गाथा -57, 58 इन्द्रियाँ परद्रव्य हैं
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -57 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -59 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


परदव्वं ते अक्खा णेव सहावो ति अप्पणो भणिदा।
उवलद्धं तेहि कधं पञ्चक्खं अप्पणो होदि // 57 //


आगे इंद्रियज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है, ऐसा निश्चित करते हैं-[आत्मनः ] आत्माका [स्वभावः] चेतनास्वभाव [नैव ] उन इन्द्रियोंमें [ नैव ] नहीं है, [ इति ] इसलिये [ तानि अक्षाणि ] वे स्पर्शनादि इन्द्रियाँ [परद्रव्यं] अन्य पुद्गलद्रव्य [भणितानि ] कही गई हैं। [:] उन इंद्रियोंसे [उपलब्धं ] प्राप्त हुए (जाने हुए) पदार्थ [आत्मनः] आत्माके [कथं कैसे [ प्रत्यक्ष ] प्रत्यक्ष [भवति] होवें ? कभी नहीं होवें। 
भावार्थ-आत्मा चैतन्यस्वरूप है, और द्रव्येन्द्रियाँ जड़स्वरूप हैं / इन इन्द्रियोंके द्वारा जाना हुआ पदार्थ प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, क्योंकि पराधीनतासे रहित आत्माके आधीन जो ज्ञान है, उसे ही प्रत्यक्ष कहते हैं, और यह इंद्रियज्ञान पुद्गलकी इंद्रियोंके द्वारा उनके आधीन होकर पदार्थको जानता है, इस कारण परोक्ष है तथा पराधीन है / ऐसे  ज्ञानको प्रत्यक्ष नहीं कह सकते

गाथा -58 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -60 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )

जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्खं ति भणिदमढेसु /
जदि केवलेण णादं हवदि हि जीवेण पञ्चक्खं // 58 //


आगे परोक्ष और प्रत्यक्षका लक्षण दिखाते हैं-[यत् ] जो [परतः ] परकी सहायतासे [अर्थेषु ] पदार्थोंमें [विज्ञानं ] विशेष ज्ञान उत्पन्न होवे, [तत् ] वह [परोक्षं] परोक्ष है, [इति भणितं ] ऐसा कहा है / [तु] परंतु [ यदि ] जो [ केवलेन] परकी सहायता विना अपने आप ही [जीवेन] आत्माकर [हि] निश्चयसे [ज्ञातं] जाना जावे, [तदा] तो वह [प्रत्यक्ष] प्रत्यक्षज्ञान [ भवति] है। 
भावार्थ-जो ज्ञान मनसे, पाँच इंद्रियोंसे, परोपदेशसे, क्षयोपशमसे, पूर्वके अभ्याससे और सूर्यादिकके प्रकाशसे उत्पन्न होता है, उसे परोक्षज्ञान कहते हैं, क्योंकि यह ज्ञान इन्द्रियादिक परद्रव्य स्वरूप निमित्तोंसे उत्पन्न होता है, औरपरजनित होनेसे पराधीन है। परंतु जो ज्ञान, मन इन्द्रियादिक परद्रव्योंकी सहायताके विना केवल आत्माकी ही सहायतासे उत्पन्न होता है, तथा एक ही समयमें सब द्रव्य पर्यायोंको जानता है, उसे प्रत्यक्षज्ञान कहते हैं, क्योंकि वह केवल आत्माके आधीन है, यही महा प्रत्यक्षज्ञान आत्मीकस्वाभाविक सुखका साधन माना है

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार गाथा - 57, 58 

गाथा 57
अन्वयार्थ - (ते अक्खा) वे इन्द्रियाँ (परदव्वं) पर द्रव्य हैं (अप्पणो सहावो त्ति) आत्मस्वभाव रूप (णेव भणिदा) नहीं कहा है, (तेहि) उनके द्वारा (उवलद्धं) ज्ञात (अप्पणी) आत्मा का (पच्चक्खं) प्रत्यक्ष (कधं हवदि) कैसे हो सकता है?

गाथा 57- इन्द्रियाँ पर द्रव्य हैं ,ये इन्द्रियाँ आत्मा का स्वभाव नही है ,आत्मा का स्वभाव ज्ञान औऱ दर्शन है ,इन्द्रियों के द्वारा जो ज्ञान आत्मा तक जाता हैं वह ज्ञान परोक्ष ज्ञान है ,,आत्मा जो ज्ञान स्व महसूस करे या अतीन्द्रिय ज्ञान ही प्रत्यक्ष ज्ञान हैं अर्थात सुख हैं | 

गाथा-58
अन्वयार्थ - (परदो) पर के द्वारा होने वाला (जं) जो (अट्ठेसु विण्णाणं) पदार्थ सम्बन्धी विज्ञान है, (तं तु) वह तो (परोक्ख त्ति भणिदं) परोक्ष कहा गया है, (जदि) यदि (केवलेण जीवेण) मात्र जीव के द्वारा ही (णादं हवदि हि) जाना जाये तो (पच्चक्खं) वह ज्ञान प्रत्यक्ष है।


गाथा-58 जो पर से ज्ञान हो रहा हैं वह परोक्ष है ,जो केवलज्ञान के द्वारा ज्ञान जाना जाता हैं वही जीव का प्रत्यक्ष ज्ञान है ,आत्मा के स्वभाव के अलावा सब पर हैं।
 जो पर से ज्ञान हो रहा हैं वह परोक्ष है ,जो केवलज्ञान के द्वारा ज्ञान जाना जाता हैं वही जीव का प्रत्यक्ष ज्ञान है ,आत्मा के स्वभाव के अलावा सब पर हैं।

सच्चा ज्ञान हमेशा सुख देता है,जब भी दुख आये तो समझना वह हमारी अज्ञानता के कारण आया है।इसलिए अज्ञान से दूर रहना चाहिए।


Manish Jain Luhadia 
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#2

Gatha 57 
The soul has consciousness (cetanā) as its nature; the senses do not have consciousness (cetanā) and are physical matter (pudgala), entirely distinct from the soul. How can the sensory knowledge of the objects be direct (pratyaksa) knowledge for the soul?

Explanatory Note: The soul is of the nature of consciousness (cetanā) and the senses are of the nature of physical matter (pudgala). The sensory-knowledge of objects cannot be direct (pratyaksa) knowledge for the soul; only the self-dependent knowledge of the soul is direct (pratyaksa) knowledge. Since the sensory-knowledge knows objects with the help of the physical senses, it is indirect and dependent; such knowledge is not direct (pratyaksa) knowledge.

Gatha 58 
It has been expounded that the specific knowledge of objects obtained with the help of a foreign (other than the soul itself) agent is the indirect (parokÈa) knowledge. However, the knowledge of objects obtained by the soul without the help of a foreign agent is certainly the direct (pratyakÈa) knowledge.

Explanatory Note: The knowledge obtained with the help of the mind and the senses, by the teachings of others, on destruction-cum- subsidence (ksayopaśama) of knowledge-obscuring (jñānāvaranīya) karmas, through past-experience, or with the help of the media like the sunlight, is the indirect (paroksa) knowledge, since it depends on outside agents like the mind and the senses. The knowledge obtained without the help of foreign agents, like the mind and the senses, by the soul itself, and which knows simultaneously all substances and their modes, is the direct (pratyaksa) knowledge. The direct (pratyaksa) knowledge is dependent only on the soul and this supreme knowledge is the natural bliss of the soul.
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -57,58

अन्यचीज इन्द्रियाँ जीवसे वह अदृश्य से दृश्य अहो ।
इनपरसे हो ज्ञान हन्त वह फिर कैसा प्रत्यक्ष कहो |
क्योंकि दूसरेको सहायतासे हो उसे परोक्ष कहा ।
केवल आत्मभावसे होनेवाला ही प्रत्यक्ष रहा ॥ २९ ॥


सारांश: – सन्त सम्प्रदायमें जो ज्ञान दूसरे की सहायतासे हो वह परोक्ष है और जो केवल आत्मतन्त्र हो उसका नाम प्रत्यक्ष है। एवं इन्द्रियोंके द्वारा जो ज्ञान होता है वह परोक्ष ही होता है। इन्द्रियाँ सब पौद्गलिक हैं, आत्मासे भिन्न हैं। जैसे हमारी आँखें कमजोर हो जाने पर हम लोग ऐनक (चश्मा) लगाकर देखा करते हैं, वैसे ही संसारी आत्माका ज्ञान कर्मोसे दबा हुआ है (निर्बल है) इसलिये चक्षु आदि इन्द्रियोंको सहायतासे अपना कार्य करता है। जहाँ आत्मा और शरीरको एकसाथ समझा जा रहा हो उस भौतिक दृष्टिमें भले ही इसे प्रत्यक्ष कहा जावे किन्तु आत्मज्ञोंके विचारमें यह ज्ञान परोक्ष ही होता है, इसमें आत्माको श्रमका अनुभव करना पड़ता है अतः दुःखरूप ही है किन्तु प्रत्यक्ष ज्ञान सुखरूप होता है।
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