प्रवचनसारः गाथा - 62,63 - क्या आप भव्य हैं?
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -62 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -64 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


णो सद्दहंति सोक्खं सुहेसु परमंति विगदघादीणं।
सुणिदूण ते अभव्वा भव्वा वा तं पडिच्छंति॥ 62॥


अब केवलीके ही पारमार्थिक अतीन्द्रियसुख है, ऐसा निश्चय करते हैं-[विगतघातिनां] जिनके घातियाकर्मीका क्षय हो गया है, ऐसे केवली भगवानके [सुखेषु परम सौख्यं] अन्य सब सुखोंमें उत्कृष्ट अतींद्रिय सुख है, [इति श्रुत्वा] ऐसा सुनकर [ये] जो कोई पुरुष [न हि श्रद्दधति] विश्वास नहीं करते, [ते] वे पुरुष [अभव्याः ] सम्यक्त्वरूप परिणतिसे रहित अभव्य हैं। [वा] और जो पुरुष [ तत् ] केवलीके उस अतींद्रिय सुखको [प्रतिच्छन्ति ] मानते हैं, ['ते' भव्या] वे भव्य हैं, अर्थात् सम्यक्त्व परिणामकर सहित हैं। 

भावार्थ-सम्यग्दृष्टि जीव संसारके सुप्पोको सुखाभास समझते हैं, और इंद्रियसुखोंको रूढ़िसे सुख मानते हैं / परंतु यथार्थमें केवलीके सुखको ही सुख मानते हैं, क्योंकि उनके घातियाकर्मोंके नाश होनेसे अनाकुलता प्रगट होती है, और आकुलता रहित सुख ही पारमार्थिक (निश्चयसे ) सुख है / जो अज्ञानी आत्मीक सुखके आस्वाद लेनेवाले नहीं हैं, वे मृग-तृष्णाकी तरह अजलमें जलबुद्धि करके इंद्रियाधीन सुखको सुख मानते हैं


गाथा -63 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -65 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
मणुयासुरामरिंदा अहिदुदा इंदियेहिं सहजेहिं /
असहंता तं दुक्खं रमति विसएसु रम्मेसु // 63 //


अब परोक्षज्ञानियोंके इंद्रियाधीन सुख है, परमार्थसुख नहीं है, ऐसा कहते हैं-[सहजैः] स्वाभाविक व्याधिरूप [इन्द्रियैः ] इंद्रियोंसे [अभिद्रुताः] पीड़ित [मनुजासुरानरेन्द्राः] मनुष्य, असुर, ( पातालवासीदेव ) और देवोंके ( स्वर्गवासीदेवोंके ) इन्द्र अर्थात् स्वामी [ तत् दुःखं] उस इन्द्रियजनित दुःखको [असहमानाः ] सहन करनेमें असमर्थ होते हुए [रम्येषु विषयेषु] रमणीक इंद्रिय जनित सुखोंमें [ रमन्ति] क्रीड़ा करते हैं। 

भावार्थ-संसारी जीवोंके प्रत्यक्षज्ञानके अभावसे परोक्षज्ञान है। जो कि इंद्रियोंके आधीन है, और तप्त लोहेके गोलेके समान महा-मोहरूप कालाग्निसे ग्रसित तीन तृष्णा सहित है। जैसे व्याधिसे पीड़ित होकर रोगी औषध सेवन करता है, उसी प्रकार इंद्रियरूप व्याधिसे दुःखी होकर यह जीव इन्द्रियोंके स्पर्श रसादि विषयरूप औषधका सेवन करता है / इससे सिद्ध हुआ, कि परोक्षज्ञानी अत्यंत दुःखी है, उनके आत्मीक निश्चयसुख नहीं है //


मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार गाथा - 62,63

* जो जीव अतींद्रिय ज्ञान और सुख का प्रकरण  सुनते सुनते यदि ऐसे ज्ञान पर श्रद्धा करने लगे हैं और ऐसे सुख की इच्छा करने लगे हैं तो वे आसन्न भव्य हैं( निकट भव्य)।
* भव्य/ अभव्य स्वभाव से होता है।
* जिसका कोई कारण (cause) न हो, तो वह उसका स्वभाव कहलाता है। ( natural)
* अतींद्रिय सुख (supreme bliss)- without disturbance, dependency, destruction
* If our mind is indulged/inclined towards supreme bliss then you are bhavy
* यदि उस supreme bliss की इच्छा अभी होने लगे तो समझना हम निकट भव्य हैं।
गाथा 063 के माध्यम से मुनि श्री बताते हैं कि सुर,असुर,मनुष्य विषयों में रमण करते हैं क्योंकि उनसे इंद्रियो के दुःख सहे नहीं जाते। जो जितना रमणीय विषयों मेन रमण करेगा वह उतना ही दुखी है।


गाथा - 62
अन्वयार्थ - (विगदघादीणं) जिनके घातिकर्म नष्ट हो गये हैं, उनका (सोक्खं) सुख (सुहेसु परमं) सर्व सुखों में उत्कृष्ट है, (इति) इस प्रकार (सुणिदूण) सुनकर (णो सदृहंति) जो श्रद्धा नहीं करते (ते अभव्वा) वे अभव्य हैं, (भव्वा वा) और भव्य (तं) उसे (पडिच्छंति) स्वीकार करते हैं, उसकी श्रद्धा करते हैं।

गाथा - 63
अन्वयार्थ - (मणुया सुरासुरिंदा) मनुष्येन्द्र चक्रवर्ती, असुरेन्द्र और सुरेन्द्र (सहजेहिं इंदियेहिं) स्वाभाविक (परोक्षज्ञान वालों को जो स्वाभाविक है, ऐसी) इन्द्रियों से (अहिद्दुदा ) पीड़ित वर्तते हुए (तद् दुक्खं) उस दुःख को (असहंता) सहन न कर सकने से (रम्मेसु विसयेसु) रम्य विषयों में (रमंति) रमण करते हैं।


Manish Jain Luhadia 
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#2

Gatha 62
Those who do not accept as true the assertion that on destruction of the inimical (ghātī) karmas the Omniscient enjoys unmatched and supreme happiness are abhavya –
without the capacity of ever-attaining right faith, and those who accept this assertion as true are bhavya – with the capacity of attaining right faith.

Explanatory Note: Those with right-belief (samyagdrsti) consider worldly happiness as counterfeit happiness and sensepleasures as happiness only by convention (vyavahāra). They believe that only the sense-independent (atīndriya) happiness, born on destruction of inimical (ghātī) karmas, of the Omniscient is the real (niscaya) happiness, as it accompanies no anxiety. Those with false-belief (mithyādrsti) can never enjoy the supreme happiness of the Omniscient; mistaking sense-pleasures for real happiness, they keep on chasing sense-pleasures, as the deer chases a mirage.

Gatha 63
Tormented by the illness caused by natural craving of the senses for gratification, and unable to bear the pain, the humans, asura (the lower deva) and Indra (lords of the kalpavāsī deva) take delight in pursuing sensual-pleasures.

Explanatory Note: Worldly beings do not have direct knowledge; they have indirect knowledge, which is sense-dependent. As delusion (moha) accompanies indirect knowledge, as heat accompanies the hot iron ball, acute craving for sensual-pleasures accompanies indirect knowledge. As a sick man takes medicine to alleviate his suffering, similarly, the man tormented by illness caused by the craving of the senses indulges in sensual-pleasures to alleviate his suffering. It is thus clear that the man with indirect knowledge is full of misery; he has no access to the natural happiness appertaining to the soul.
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -61,62

नहीं अनिष्ट रहा कोई भी इष्ट प्राप्त हो गया जहाँ
सकल चराचर जान लिया तब बोलो कौन अचंभ वहाँ
फिर भी अरहन्तोंको सुख कैसा? ऐसे कहने वाले ।
भव्य नहीं, अभव्य ही होते, कहते श्रुत कहनेवाले ॥ ३१ ॥

गाथा -63,64
अमरासुर मनुजादिक सारे इन्द्रियवश होकर हारे
अभीष्ट विषयोंमें फँस करके फिरते हैं मारे मारे
जो विषयोंमें रति लेते हैं उन्हें दुःख नैसर्गिक है।
वरना तो विषयोंमें वे क्यों लगते हैं यों जैन कहै ॥ ३२ ॥

गाथा -61,62
सारांश:- सुखकी परिभाषा लौकिक और पारमार्थिक दो प्रकारसे की जाती है। परमार्थदृष्टिमें किसी भी तरह की आकुलता (अड़चन, बाधा) न रहकर पूर्ण निराकुल अवस्थाका नाम सुख होता है। लौकिक दृष्टिमें अनिष्टके परिहार पूर्वक इष्टप्राप्तिका नाम सुख है। सर्वज्ञ भगवान् अरहंतदेवके जब ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहनीय कर्मके साथ २ अन्तराय कर्मका भी पूर्णरूपसे क्षय होजाता है तब वे भगवान् सम्पूर्ण विश्वके पदार्थोंको एकसाथ जानते हैं। वहाँ जानने योग्य कोई अवकाश ही नहीं रहता है। अतः पारमार्थिक परिभाषाके अनुसार भगवान् पूर्णरूपसे सुखी ही होते हैं।

अब लौकिक परिभाषाके अनुसार विचार करते हैं। घातिकर्मप्रणाशक श्री अरहंत भगवान्‌के लिए अनिष्ट तो कोई पदार्थ रहता ही नहीं है और परमेष्ट सर्वज्ञपन प्राप्त हो ही जाता है। अतः वे परम सुखी हो जाते हैं इसमें कोई संदेह नहीं है। खाने पीने और सोने आदिको ही यदि सुख समझा जावे तो ऐसा सुख तो काल्पनिक एवं दुःखमय तथा कर्म परवश होता है और वह भगवान् अरहंतके नहीं होता है। ऐसा सुख तो संसार दशामें ही पाया है जो समस्त संसारी जीवों के पाया जाता है। इसीको सच्चा सुख माननेवाला मनुष्य, संसारसे मुळ होनेकी चेष्टा ही क्यों करेगा? क्योंकि सुखीसे दुखी होना तो कोई भी नहीं चाहता है। वास्तवमें खाने, पीने और सोने आदि क्रियाओंमें सुख कभी होता ही नहीं है। इनमें तो इन्द्रियोंके परितापको नहीं सह सकनेवाला यह मोही मानव विवश होकर झंपापात लेता है,


गाथा -63,64
सारांश:- मृग, शलभ, भरा, झष और हस्तीकी तरह प्रत्येक इन्द्रियके वशीभूत होने से मृत्यु जैसे कष्टको भी स्वीकार करते हुए यह शरीरधारी प्राणी अपने अभीष्ट विषयोंमें परिश्रम पूर्वक प्रवृत्त होता है और मोह वश उनमें सुख मानता है। जैसे कुत्ता सूखी हड्डीको चवाता है जिससे उसकी गलाफ फट जाती है और उसमेंसे रक्त निकलने लगता है। उस रक्तके स्वादको वह कुत्ता हड्डीका स्वाद मानता है और उससे अपने आपको सुखी भी समझता है। यही दशा सम्पूर्ण संसारी जीवों की है।

संसारी जीव सुखको विषय सेवनसे उत्पन्न हुआ मानता है। यह इसका भ्रम है क्योंकि सुख तो आत्माका गुण है जो ज्ञानका सहचर है। मोहके द्वारा संसारी जीवका ज्ञान अब अज्ञानरूप परिणत होजाता है। तब उसके साथमें अभिलाषाके द्वारा सुख भी दुख के रूपमें परिणत होजाता है। इससे अधीर होकर अज्ञानी जीव उस अभिलाषाको अभीष्ट विषयके सेवन द्वारा मिटानेका प्रयास करता है किन्तु विषय सेवनसे अभिलाषाका विनाश न होकर प्रत्युत उसका अधिकाधिक विकाश होता रहता है।

जैसे अग्निमें ईंधन डालनेसे अग्नि शान्त न होकर वृद्धिको ही प्राप्त होती है। जो मनुष्य अग्निको शांत करना चाहता है उसका यह कर्तव्य है कि वह आगेके लिए उसमें ईंधन डालना बन्द करदे और उसके निकटवर्ती तृणादिकके समूहको भी वहाँसे दूर हटा दे तो धीरे धीरे अपने आप ही शांत हो जाती है। इसी प्रकार अभिलाषा अर्थात् विषयवासनारूप पीड़ाको मिटानेके लिए त्याग और संतोषकी आवश्यकता होती है।

शङ्काः – माना कि हानिकर चीजके त्यागमें और अनुपलब्ध वस्तुके विषयमें तो संतोष धारण करनेसे ही शांति प्राप्त होती है परन्तु समुचित आवश्यक वस्तुका तो उपयोग करने पर सुखका अनुभव होता है जैसे भूख लगने पर उचित भोजन करना पड़ता है। इसप्रकार के प्रश्नका उत्तर आगे आचार्यदेव देते हैं
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