प्रवचनसारः गाथा -64 सुख और दुःख का स्वभाव
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -64 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -66 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


जेसिं विसयेसु रदी तेसिं दुक्खं वियाण सम्भावं /
जइ तं ण हि सम्भावं वावारो णत्थि विसयत्थं // 64 //


आगे कहते हैं, कि जबतक इन्द्रियाँ हैं, तबतक स्वाभाविक दुःख ही है- [येषां] जिन जीवोंकी [विषयेषु ] इंद्रिय विषयोंमें [ रतिः] प्रीति है, [ तेषां] उनके [ दुःखं ] दुःख [स्वाभावं] स्वभावसे ही [विजानीहि ] जानो / क्योंकि [यदि ] जो [तत्] वह इन्द्रियजन्य दुःख [हि] निश्चयसे [ स्वभावं ] सहज ही से उत्पन्न हुआ [न] न होता, तो [विषयार्थ] विषयोंके सेवनेके लिये [व्यापारः] इन्द्रियों की प्रवृत्ति भी [नास्ति ] नहीं होती। 

भावार्थ-जिन जीवोंके इंद्रियाँ जीवित हैं, उनके अन्य (दूसरी) उपाधियोंसे कोई दुःख नहीं है, सहजसे ये ही महान् दुःख हैं, क्योंकि इंद्रियाँ अपने विषयोंको चाहती हैं, और विषयोंकी चाहसे आत्माको दुःख उत्पन्न होता प्रत्यक्ष देखा जाता है / जैसे-हाथी स्पर्शन इंद्रियके विषयसे पीड़ित होकर कुट्टिनी (कपटिनी) हथिनीके वशमें पड़के पकड़ा जाता है / रसना इंद्रियके विषयसे पीड़ित होकर मछली बडिश (लोहेका काँटा) के मांसके चाखनेके लोभसे प्राण खो देती है / भौंरा प्राण इंद्रियके विषयसे सताया हुवा संकुचित (मुँदे ) हुए कमलमें गंधके लोभसे कैद होकर दुःखी होता है / पतङ्ग जीव नेत्र इंद्रियके विषयसे पीड़ित हुआ दीपकमें जल मरता है, और हरिन श्रोत्र इंद्रियके विषयवश वीणाकी आवाजके वशीभूत हो, व्याधाके हाथसे पकड़ा जाता है / यदि इंद्रियाँ दुःखरूप न होतीं, तो विषयकी इच्छा भी नहीं होती, क्योंकि शीतज्वरके दूर होनेपर अग्निके सेककी आवश्यकता नहीं रहती, दाहज्वरके न रहनेपर कांजी-सेवन व्यर्थ होता है, इसी प्रकार नेत्र-पीड़ाकी निवृत्ति होनेपर खपरियाके संग मिश्री आदि औषध, कर्णशूल रोगके नाश होनेपर बकरेका मूत्र आदि, व्रण (घाव) रोगके अच्छे होनेपर आलेपन (पट्टी) आदि औषधियाँ निष्प्रयोजन होती हैं, उसी प्रकार जो इंद्रियाँ दुःखरूप न होवें, तो विषयोंकी चाह भी न होवे / परंतु इच्छा देखी जाती है, जो कि रोगके समान है, और उसकी निवृत्तिके लिये विषय-भोग औषध तुल्य हैं। सारांश यह हुआ, कि परोक्षज्ञानी इंद्रियाधीन स्वभावसे ही दुःखी हैं |

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार गाथा - 64

अन्वयार्थ - (जेसिं) जिन्हें (विसयेसु रदी) विषयों में रति है, (तेसिं) उन्हें (दुक्खं) दुःख (सब्भावं) स्वाभाविक (वियाण) जानो (हि) क्योंकि (जइ) यदि (तं) वह दुःख (सब्भावं ण) स्वभाव न हो तो (विसयत्थं) विषयार्थ में (वावारो) व्यापार (णत्थि) न हो।


श्री इस गाथा 64 के माध्यम से बतातें हैं कि
* पाँच इंद्रियों के विषयों में रति भाव रखना हमारा सबसे बड़ा दुःख है।
* यह दुःख हमारा स्वभाव बन चुका है ।
* जिस जीव को जितनी संतुष्टि होगी भीतर से वह उतना ही विषयों का व्यापार नहीं करेगा।
* हमारी बाहर की चेष्टाएँ हमारे अंदर के दुःख को बताती हैं।
* जो मोह,राग,द्वेष को नष्ट करेगा उसे ही वैराग्य का भाव आएगा। रती भाव की तीव्रता से वीतरागता अच्छी नहीं लगती।



Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
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#2

Those having proclivity for the sensual-pleasures suffer naturally. If the senses, by nature, did not give rise to suffering, there would not have been this natural tendency toward
enjoyment of the sensual-pleasures. 

Explanatory Note: Those having the senses – touch, taste, smell, sight and hearing – suffer naturally, not due to external appurtenances but due to natural tendency toward enjoyment of the sensual-pleasures. The senses are of the nature of suffering as these lead to desire for enjoyment of the sensual-pleasures; without the senses, there would be no desire for enjoyment of the sensual-pleasures. The male elephant, due to its desire to ‘touch’ the female elephant, falls into the trap laid by the hunter. The fish loses its life due to its desire to enjoy the ‘taste’ of the meat attached to the fishing hook. The black bee finds itself locked up in the lotus flower due to its craving for the ‘smell’. The moth jumps
to death due to its penchant for the ‘sight’ of the flame. The deer finds itself into the clutches of the hunter due to weakness to ‘hear’ the alluring music of the vīnā (Indian stringed instrument). The desire for the sensual-pleasures is an ailment and indulging in the sensual-pleasures is a palliative to alleviate the suffering, albeit temporarily. The senses keep on desiring for more, until the ailment becomes grave and the body weak, unable to indulge any further in the sensual-pleasures. Therefore, those who possess the
senses suffer naturally and, as a corollary, those who possess indirect knowledge (through the senses) suffer naturally. 

Taken from . Ācārya Kundakunda’s Pravacanasāra – Essence of the Doctrine by Vijay K. Jain
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -63,64
अमरासुर मनुजादिक सारे इन्द्रियवश होकर हारे
अभीष्ट विषयोंमें फँस करके फिरते हैं मारे मारे
जो विषयोंमें रति लेते हैं उन्हें दुःख नैसर्गिक है।
वरना तो विषयोंमें वे क्यों लगते हैं यों जैन कहै ॥ ३२ ॥


गाथा -63,64
सारांश:- मृग, शलभ, भरा, झष और हस्तीकी तरह प्रत्येक इन्द्रियके वशीभूत होने से मृत्यु जैसे कष्टको भी स्वीकार करते हुए यह शरीरधारी प्राणी अपने अभीष्ट विषयोंमें परिश्रम पूर्वक प्रवृत्त होता है और मोह वश उनमें सुख मानता है। जैसे कुत्ता सूखी हड्डीको चवाता है जिससे उसकी गलाफ फट जाती है और उसमेंसे रक्त निकलने लगता है। उस रक्तके स्वादको वह कुत्ता हड्डीका स्वाद मानता है और उससे अपने आपको सुखी भी समझता है। यही दशा सम्पूर्ण संसारी जीवों की है।

संसारी जीव सुखको विषय सेवनसे उत्पन्न हुआ मानता है। यह इसका भ्रम है क्योंकि सुख तो आत्माका गुण है जो ज्ञानका सहचर है। मोहके द्वारा संसारी जीवका ज्ञान अब अज्ञानरूप परिणत होजाता है। तब उसके साथमें अभिलाषाके द्वारा सुख भी दुख के रूपमें परिणत होजाता है। इससे अधीर होकर अज्ञानी जीव उस अभिलाषाको अभीष्ट विषयके सेवन द्वारा मिटानेका प्रयास करता है किन्तु विषय सेवनसे अभिलाषाका विनाश न होकर प्रत्युत उसका अधिकाधिक विकाश होता रहता है।

जैसे अग्निमें ईंधन डालनेसे अग्नि शान्त न होकर वृद्धिको ही प्राप्त होती है। जो मनुष्य अग्निको शांत करना चाहता है उसका यह कर्तव्य है कि वह आगेके लिए उसमें ईंधन डालना बन्द करदे और उसके निकटवर्ती तृणादिकके समूहको भी वहाँसे दूर हटा दे तो धीरे धीरे अपने आप ही शांत हो जाती है। इसी प्रकार अभिलाषा अर्थात् विषयवासनारूप पीड़ाको मिटानेके लिए त्याग और संतोषकी आवश्यकता होती है।

शङ्काः – माना कि हानिकर चीजके त्यागमें और अनुपलब्ध वस्तुके विषयमें तो संतोष धारण करनेसे ही शांति प्राप्त होती है परन्तु समुचित आवश्यक वस्तुका तो उपयोग करने पर सुखका अनुभव होता है जैसे भूख लगने पर उचित भोजन करना पड़ता है। इसप्रकार के प्रश्नका उत्तर आगे आचार्यदेव देते हैं
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