प्रवचनसारः गाथा -65,66 - क्या शरीर में सुख है?
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -65 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -67 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


पप्पा इट्ठे विसये फासेहिं समाहिदे सहावेण।
परिणममाणो अप्पा सयमेव सुहण्णवि देहो॥ 65॥


अब कहते हैं, कि मुक्तात्माओंको शरीरके विना भी सुख है, इसलिये शरीर सुखका कारण नहीं है— [स्पशैंः ] स्पर्शनादि पाँच इंद्रियोंसे [समाश्रितान् ] भलेप्रकार आश्रित [इष्टान् विषयान् ] प्यारे भोगोंको [प्राप्य] पाकर [स्वभावेन] अशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावसे [परिणममानः आत्मा] परिणमन करता हुआ आत्मा [स्वयमेव] आप ही [सुखं] इंद्रिय-सुखस्वरूप [ भवति ] है, [ देहः ] शरीर ['सुखं' ] सुखरूप [ न ] नहीं है। भावार्थ-इस आत्माके शरीर अवस्थाके होते भी हम यह नहीं देखते हैं, कि सुखका कारण शरीर है / क्योंकि यह आत्मा मोह प्रवृत्तिसे मदोन्मत्त इंद्रियोंके वशमें पड़कर निंदनीय अवस्थाको धारण करता हुआ अशुद्ध ज्ञान, दर्शन, वीर्य, स्वभावरूप परिणमन करता है, और उन विषयोंमें आप ही सुख मान लेता है / शरीर जड़ है, इसलिये सुखरूप कार्यका उपादान कारण अचेतन शरीर कभी नहीं हो सकता / सारांश यह है, कि संसार अवस्थामें भी शरीर सुखका कारण नहीं है, आत्मा ही सुखका कारण हैं |

गाथा -66 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -68(आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )

एगंतेण हि देहो सुहं ण देहिस्स कुणदि सग्गे वा।
विसयवसेण दु सोक्खं दुक्खं वा हवदि सयमादा // 66 //


आगे "संसार अवस्थामें भी आत्मा ही सुखका कारण है" इसी बातको फिर दृढ़ करते हैं-[एकान्तेन ] सब तरहसे [ हि] निश्चय कर [ देह ] शरीर [देहिनः] देहधारी आत्माको [स्वर्ग वा] स्वर्गमें भी [सुखं.] सुखरूप [ न करोति ] नहीं करता [तु] किंतु [विशयवशेन ] विषयोंके आधीन होकर [आत्मा स्वयं] यह आत्मा आप ही [सौख्यं वा दुःखं] सुखरूप अथवा दुःखरूप [ भवति ] होता है। 

भावार्थ-सब गतियोंमें स्वर्गगति उत्कृष्ट है, परंतु उसमें भी उत्तम वैक्रियकशरीर सुखका कारण नहीं है, औरोंकी तो बात क्या है। क्योंकि इस आत्माका एक ऐसा स्वभाव है, कि वह इष्ट अनिष्ट पदार्थोके वश होकर आप ही सुख दुःखकी कल्पना कर लेता है / यथार्थमें शरीर सुख दुःखका कारण नहीं है|

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार गाथा - 65,66

श्री इस गाथा 65 के माध्यम से बताते हैं कि
*संसारी प्राणी का सुख कैसा होता है ? *
* इंद्रियों के आशय से जब इष्ट वस्तु की प्राप्ति हो जाती है तो संसारि प्राणी को सुख होता है।
* इष्ट की प्राप्ति न होने से आत्मा दुःख रूप परिणमन कर लेता है।
* सुख और दुःख केवल अपने मन की कल्पना से आता है। शरीर सुख नहीं देता।
* राग/द्वेष में परिणमन करने से आत्मा को सुख और दुःख होता है।

गाथा 66 से बताते हैं कि एकांत रूप से देह ही सुख नहीं देता है क्योंकि स्वर्ग में भी देह के कारण दुःख उत्पन्न हो सकता है।


गाथा 65
अन्वयार्थ - (फासेहिं समाहिदे) स्पर्शनादिक इन्द्रियाँ जिनका आश्रय लेती हैं, ऐसे (इट्ठे विसये) इष्ट विषयों को (पप्पा) पाकर (सहावेण) अपने अशुद्ध स्वभाव से (परिणममाणो) परिणमन करता हुआ (अप्पा) आत्मा (सयमेव) स्वयं ही (सुहं) सुखरूप (इन्द्रिय सुखरूप) होता है, (देहो ण) देह सुखरूप नहीं होती।

गाथा 66 
अन्वयार्थ - (एगंतेण हि) एकांत से अर्थात् नियम से (सग्गे वा) स्वर्ग में भी (देहो) शरीर (देहिस्स) शरीरी (आत्मा को) (सुहं ण कुणदि) सुख नहीं देता (विसयवसेण दु) परन्तु विषयों के वश से (सोक्खं दुक्खं वा) सुख अथवा दुःख रूप (सयमादा हवदि) स्वयं आत्मा होता है।


Manish Jain Luhadia 
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#2

Gatha 65 
On experiencing agreeable pleasures that depend on the sense organs like touch, the soul, transformed into its impure nature,
becomes of the nature of happiness that the sensual-pleasures provide; the body is not of the nature of happiness.

Explanatory Note: Even in the embodied state of the soul, we do not see that the body is the cause of its happiness. Due to delusion and under influence of the sensual-pleasures, the soul transforms  itself into the deplorable state of impure knowledge, perception and energy. In its impure state, the soul assumes happiness in enjoyment of the sensual-pleasures. The body being inanimate, it can never be the substantive-cause (upādāna kārana) of the effect that is happiness. The truth is that even in its worldly state, the body is not the cause of happiness, the soul is. 

Gatha 66
In fact, even in the heaven, the body is not the cause of happiness that the soul experiences. The soul transforms itself into the
state of happiness or misery when it is under the influence of the  sensual-pleasures.

Explanatory Note: Existence as the heavenly being is superior to other states of worldly existence. Heavenly beings are endowed
with excellent transformable body (vaikriyika śarīra) and even that body is not the real cause of happiness. It is the nature of the
soul that, under the influence of the desirable and the undesirable objects, it assumes the state of happiness or misery. The body is not
the cause of the soul’s happiness or misery. 

Taken from : Ācārya Kundakunda’s Pravacanasāra – Essence of the Doctrine by Vijay K. Jain
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -65,66
समुचित विषयों को पाकर भी देह नहीं सुख देता है।
उनके निमित्त से संसारी सुख विकाश कर लेता है ॥
देवोंका शरीर भी उनको सुखका कारण कभी नहीं
इष्टानिष्टतया विषयोंमें सुख दुख आत्मा मान रही ॥


गाथा -65,66
सारांश:- वास्तवमें आत्मा अखण्ड ज्ञानका एक अमूर्तिक पिण्ड है। बाह्य पदार्थों से आत्मा का किसी भी तरह का हित या अहित नहीं हो सकता है। ऐसी अवस्था में इन बाह्य पदार्थों को आत्मा के लिए लाभप्रद या हानिकारक कैसे कहा जा सकता है? जब यह आत्मा अपने स्वरूप में न रहकर, शरीर के साथ अहंकार ममकार में फँसा रहता है तब शरीर के पोषक पदार्थोंको  इष्ट और शरीर के लिए हानिकारक पदार्थों को अनिष्ट मानकर, इष्ट पदार्थों के संयोग में अपने को सुखी तथा अनिष्ट पदार्थों के संयोग में अपने को दुखी मानता है। इस प्रकार इष्टानिष्ट के विकल्प में पड़कर यह आत्मा हर समय व्याकुल बना रहता है। इस व्याकुलता का मूलाधार यह शरीर ही है। अतः इसके साथ सम्पर्क बना रहना ही इस आत्मा के लिये दुःखका कारण है।

शङ्काः नारकीय शरीर तो अवश्य दुःख का कारण है यह तो ठीक है परन्तु शरीर मात्र ही दुःखका कारण है, यह बात तो कुछ समझ में नहीं आई क्योंकि देव शरीर के प्राप्त होनेसे तो सुख ही होता है?

उत्तरः- देवों का शरीर भी दुःखका ही कारण है क्योंकि वह भी नारकीय शरीरको तरह आवश्यकताओंको उत्पन्न करने वाला है। यह बात दूसरी है कि नारकीय शरीरकी उत्पन्न हुई आवश्यकताओं के प्रतिकारका साधन वहाँ पर दुर्लभ ही नहीं किन्तु असंभव ही है। देव शरीर की उत्पन्न हुई आवश्यकताओं के निराकरण के लिए साधन सामग्री सुलभ हुआ करती है। इसका कारण यह है कि नरकों में अशुभकी तथा देवों में (देवालयोंमें) शुभ की प्रधानता होती है।

कषायोंकी तीव्रतारूप संक्लेश परिणामका नाम अशुभ और कपायोंकी मन्दतारूप विशुद्ध परिणामका नाम शुभ है तथा निष्कपाय होने का नाम शुद्ध दशा है। शुद्धदशा वास्तविक इन्द्रियातीत सुख होता है और शुभदशामें इन्द्रियजन्य सांसारिक सुख होता है तथा अशुभदशामें यह आत्मा एकान्त घोर दुःखका ही अनुभव किया करता है। मतलब यह है कि बाह्य विषयों मुख दुख न होकर केवल आत्म परिणामोंसे ही होते हैं
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