प्रवचनसार गाथा - 70,71 शुभोपयोग का फल
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -70 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -74 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


जुत्तो सुहेण आदा तिरियो वा माणुसो व देवो वा।
भूदो तावदि कालं लहदि सुहं इंदियं विविहं // 70 //


आगे शुभोपयोगसे इंद्रियसुख होता है, ऐसा कहते हैं-शुभेन युक्तः] शुभोपयोगकर सहित [आत्मा] जीव [तिर्यक्] उत्तम तिथंच [वा]. अथवा [मानुषः] उत्तम मनुष्य [वा] अथवा [ देवः] उत्तम देव [भूतः] होता हुआ [तावत्कालं] उतने कालतक, अर्थात् तिथंच आदिकी जितनी स्थिति है, उतने समयतक, [ विविधं] नाना प्रकारके [ ऐन्द्रियं सुखं ] इंद्रियजनित सुखोंको [ लभते] पाता है / भावार्थ-यह जीव शुभ परिणामोंसे तिर्यंच, मनुष्य और देव, इन तीन गतियोंमें उत्पन्न होता है, वहाँपर अपनी अपनी कालकी स्थिति तक अनेक तरहके इंद्रियजनित सुखोंको भोगता है // 70 //

गाथा -71 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -75 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )

सोक्खं सहावसिद्ध णथि सुराणं पि सिद्धमुवदेसे /
ते देहवेदणहा रमति विसएसु रम्मेसु // 71 / /


आगे कहते हैं, कि इंद्रियजनित सुख यथार्थमें दुःख ही हैं- [सुराणामपि] देवोंके भी [स्वभावसिद्धं सौख्यं] आत्माके निज स्वभावसे उत्पन्न अतींद्रिय सुख [ नास्ति ] नहीं है, [ 'इति'] इसप्रकार [उपदेशे ] भगवानके परमागममें [सिद्धं ] अच्छी तरह युक्तिसे कहा है। [यतः] क्योंकि [ते] वे देव [ देहवेदनाताः] पंचेन्द्रियस्वरूप शरीरकी पीड़ासे दुःखी हुए [रम्येषु विषयेषु] रमणीक इंद्रिय विषयोंमें [रमन्ति] क्रीड़ा करते हैं / 

भावार्थ-सब सांसारिक सुखोंमें अणिमादि आठ ऋद्धि सहित देवोंके सुख प्रधान हैं, परंतु वे यथार्थ आत्मीक-सुख नहीं हैं, स्वाभाविक दुःख ही हैं, क्योंकि जब पंचेन्द्रियरूप पिशाच उनके शरीरमें पीड़ा उत्पन्न करता है, तब ही वे देव मनोज्ञ विषयों में गिर पड़ते हैं / अर्थात् जिस प्रकार कोई पुरुष किसी वस्तु विशेषसे पीड़ित होकर पर्वतसे पड़ कर मरता है, इसी प्रकार इंद्रियजनित दुःखोंसे पीड़ित होकर उनके विषयोंमें यह आत्मा रमण (मौज ) करता है। इसलिये इन्द्रिय  जनित सुख दुःखरूप ही हैं / अज्ञानबुद्धिसे सुखरूप मालूम पड़ते हैं, एक दुःखके ही सुख और दुःख ये दोनों भेद हैं

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार गाथा - 70,71 

गाथा - 70
अन्वयार्थ - (सुहेण जुत्तो) शुभोपयोग युक्त (आदा) आत्मा (तिरिओ वा) तिर्यंच (माणुसो व) मनुष्य (देवो वा) अथवा देव (भूदो) होकर (तावदि कालं) उतने समय तक (विविहं) विविध (इंदियं सुहं) इन्द्रिय सुख (लहदि) प्राप्त करता है।

जैसा पहली गाथा में जाना कि देव पूजा ,गुरुपूजा ,दान आदि ही शुभोपयोग हैं*
शुभोपयोग आत्मा- तिर्यंच, मनुष्य और  देव कोई भी हो सकता है औऱ उस रूप में वह अनेक इंद्रिय सुख को प्राप्त करता है।*
शुभोपयोग का नियम है कि जिस जीव के शुभोपयोग परिणाम है उसको अवश्य ही पुण्य बंध होता है।




गाथा - 71
अन्वयार्थ - (उवदेसे सिद्धं) (जिनेन्द्र देव के) उपदेश से सिद्ध है कि (सुराणं त्ति) देवों के भी (सहावसिद्धं) स्वभावसिद्ध (सोक्खं) सुख (णत्थि) नहीं है, (ते) वे (देहवेदणट्टा) (पंचेन्द्रियमय) देह की वेदना से पीड़ित होने से (रम्मेसु विसयेसु) रम्य विषयों में (रमंति) रमते हैं।


सबको लगता है कि देव पर्याय सुखी पर्याय है लेकिन ऐसा नही है,वहाँ भी स्वाभाविक सुख नहीं ,देह आश्रित है

देह के अंदर जितनी भी वेदना होती हैं, उससे पीड़ित होकर वह उतने ही विषयो में रमण करता है और अशांत होता है।
शुभोपयोग केवल इन्द्रियों के सुख की प्रवृति नही कराता बल्कि उसके साथ हमारे दूसरे भाव लेश्या आदि या भाव कैसे चल रहे हैं?यह भी भाव आत्मा में उत्पन्न करता है।


Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
Email: manish@frontdesk.co.in
Tel: +91 141 6693948
Reply
#2

Gatha 70 
The soul endowed with auspicious-cognition (śubhopayoga) is born as worthy sub-human (plant or animal), human, or
celestial being, and, during such existence, obtains an assortment of sensual-pleasures.

Explanatory Note: The soul engaged in auspicious-cognition (śubhopayoga) earns merit (puõya), the cause of pleasant-feeling
(sātāvedanīya), and is reborn in any of these three states of existence: the sub-human (plant or animal), the human, or the
celestial being. It enjoys sensual-pleasures during existence in such states.


Gatha 71 

The Doctrine expounds that even the celestial beings (devas) do not enjoy the sense-independent (atīndriya), natural happiness of the soul. Tormented by the bodily craving, they amuse themselves with agreeable sensual-pleasures.

Explanatory Note: Among all worldly happiness, the kind that the celestial beings (devas), endowed with supernatural
accomplishments (rddhi), enjoy is considered to be the foremost.
But even that happiness is not the real happiness of the soul. In fact, it is misery; on being tormented by the bodily urge, the devas fall into the trap of sensual-pleasures. As a man tormented by strong grief commits suicide by jumping from the mountain-top, in the same way, the soul tormented by the bodily urge falls into the trap of sensual-pleasures. Therefore, sensual-pleasures are of the nature of misery. These appear to be happiness due to ignorance. Sensual-pleasures are misery but appear as either happiness or misery.
Reply
#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -69,70
स्वार्थमयाशय से  हटकर धर्मानुरागयुत जब होवे |
शुभोपयोगात्मकताको गुरुपूजादिकमें तब  जोवे
शुभोपयोग सहित जो नर सुर तिर्यक् होता है भाई।
सांसारिक सुख वह पाता यह बात जिनागममें गाई ॥ ३५ ॥

सारांश :- जब यह आत्मा अनादिकालसे चली आई हुई शरीरके प्रति अहङ्कार वृत्तिरूप अशुभोपयोग परिणतिको छोड़कर शुभोपयोगी बनता है अर्थात् शरीरको ही आत्मा माननेरूप विचारधारासे दूर हटकर आत्माके यथार्थ स्वरूपको स्वीकार करता है। उस समय अपने विशिष्ट शक्तिशाली आत्मसंयमी लोगोंके प्रति आदर भाव प्राणिमात्रको लक्ष्यमें रखकर सेवाभाव, कुमार्गसे निरन्तर बचनेरूप सद्भाव और पर्वादिके समय पूजा, दान, शील और उपवास आदि शुभकार्यों में तत्परता जागृत होती है। इससे इस नश्वर शरीरके प्रति उदासीन होकर आत्मबल प्राप्त करता है ऐसे विचारको शुभोपयोग तथा उस विचारवालेको शुभोपयोगी कहा जाता है।

कभी कभी शरीर के प्रति दासता स्वीकार करने वाला जीव भी उक्त शुभकायों में प्रवृत्त होजाता है परन्तु वह इन सबको भी लौकिक लाभों की इच्छा से ही किया करता है अतः वह अशुभोपयोगी ही कहा जाता है। इसी बात को स्पष्ट करनेके लिए मूल ग्रन्थकार ने 'रत्तो' शब्द दिया है। ग्रन्थकारका कहना है कि सांसारिक विषय वासना के लिए नहीं किन्तु आत्मोत्थान के लिए बलदायक समझकर उपर्युक्त कार्यों को तात्कालिक कर्तव्य मानते हुए जो उनका सम्पादन करता है, ऐसा चतुर्थादि गुणस्थानवर्ती जीव ही शुभोपयोगी कहा जाता है। ऐसा ही टीकाकार श्री अमृतचन्द्र सूरि ने लिखा है

" यदायमात्मा दुःखस्य साधनीभूतां द्वेषरूपामिन्द्रियार्थानुरागरूपां चाशुभोपयोगभूमिकामतिक्रम्य देवगुरुयतिपूजादानशीलोपवासप्रीतिलक्षणं धर्मानुरागमङ्गीकरोति तदेन्द्रियसुखस्य साधनीभूत शुभोपयोगभूमिकामधिरूढोऽभिलप्येत"

यह शुभोपयोगी जीव जब शुभ दैवबलयुक्त एवं शुभ लेश्याबलयुक्त होता है उस समय इन्द्रिय सुखका अनुभव करनेवाला होता है। यदि शुभलेश्याका और शुभ कर्मोदयका अभाव हो तो ऐसी दशामें बद्धायुष्कतादिके कारण शुभोपयोगी ( सम्यकदृष्टि) जीव भी नारकी बनकर नरकमें मारण ताडनादिरूप घोर दुःखको ही भोगनेवाला हो जाता है।

अशुभोपयोगी (मिध्यादृष्टि) जीव बाह्य समुचित सामग्री होने पर भी उसके द्वारा सदा दुःखका ही अनुभव किया करता है। जैसे पित्तज्वरवाला मनुष्य दूधमें भी कड़वापन ही मानता है। इसप्रकार शुभोपयोगी और अशुभोपयोगी में परस्पर किंचित् विशेषता है। लौकिक दृष्टिमें शुभोपयोगी सुखी और अशुभोपयोगी दुःखी होता है किन्तु पारमार्थिक दृष्टिमें दोनों ही परतंत्रता जकड़े हुए होते हैं अतः दोनों ही दुखी हैं


गाथा -71,72

औरों की क्या बात शक्रको भी न सहज सुख होता है ।
शारीरिक वेदना वह विषयोंमें लेता गोता है ॥
नारककी तरह पशु मनुज सुरको भी दुःख तनुज है ।
तो फिर शुभ अशुभोपयोग में ज्ञानी कैसा भेदक है ॥ ३६ ॥

सारांश: - लौकिक दृष्टिसे नारकियोंको दुख और देवोंको सुख होता है। देवोंमें भी प्रधानता इन्द्रोंकी है जो निश्चितरूपसे शुभोपयोगी होते हैं। जब हम इनके विषयमें भी विचार करते 1 हैं तो बात कुछ और ही पाते हैं। भूख प्यास आदिकी वेदना जैसी नारकियोंके होती है वैसी ही इन्द्रोंके भी होती है। अन्तर केवल इतना ही है कि नारकियोंके पास उसे मिटानेका

कोई बाह्य साधन नहीं होता है और इन्द्रोंके पास होता है।


यह बात तो ऐसी ही हुई कि जैसे दो मनुष्योंको शीतज्वरका वेग आया। इनमेंसे एकको तो रजाई और कम्बल मिल गये, उन्हें ओढ़कर वह सो गया परन्तु दूसरेके पास कुछ भी न होनेसे वह बिना ओढे ही अपने स्थान पर पड़ा रहा। ऊपरसे देखनेमें तो उन दोनोंमें अन्तर दीख रहा है। एक ओढ़े हुए हैं और दूसरेके पास ओढनेको कुछ भी नहीं है परन्तु भीतरसे दोनोंको जाड़ा (सर्दी) सता रहा है। दोनों ही भीतरी ठण्डकसे काँप रहे हैं। दोनों ही शीतज्वरके रोगी हैं। रोगके वेगसे पीड़ित हैं।

इसीप्रकार देव और नारकी दोनों ही दुखी होते हैं। बाह्य में एकके पास भोग सामग्री है और दूसरेके पास नहीं है फिर भी उनके दुःखमें कोई मौलिक अन्तर नहीं होता है। नीरोगपन की तरह जो मनुष्य अपने अंतरंगमें सहज स्वभाव के मूल्यको  आँक रहा है उसके लिए दोनों एक समान हैं। दोनों ही अपनेपनसे दूर होकर विकारग्रस्त हो रहे हैं। वस्तुतः दोनों ही दुःखी हैं। नारकी जीवको जिस शरीरमें रहकर दुःख का अनुभव करना पड़ता है वह उस शरीरका शोषण करना चाहता है और इन्द्र उसीका पोषण करना चाहता है। विवेकशील महात्माकी दृष्टिमें नारकीय जीवन तो उपवासकी तरह और स्वर्गीय जीवन भोजन की तरह प्रतीत होता है,
Reply


Forum Jump:


Users browsing this thread: 1 Guest(s)