प्रवचनसारः गाथा -76 - इन्द्रियाँ सुख पराधीन
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -76 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -80 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं /
जं इंदियेहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा / / 76 //


आगे फिर भी पुण्यजनित इंद्रिय-सुखोंको बहुत प्रकारसे दुःखरूप कहते हैं इयत् ] जो [इन्द्रियैः] पाँच इंद्रियोंसे [ लब्धं ] प्राप्त हुआ [सौख्यं] सुख है, [तत् ] सो [तथा ] ऐसे सुखकी तरह [दुःखमेव ] दुःखरूप ही है, क्योंकि जो सुख [सपरं] परीधीन है, [बाधासहित] क्षुधा, तृषादि बाधा युक्त है, [विच्छिन्नं ] असाताके उदयसे विनाश होनेवाला है, [बन्धकारणं] कर्मबंधका कारण है, क्योंकि जहाँ इंद्रियसुख होता है, वहाँ अवश्य रागादिक दोषोंकी सेना होती है / उसीके अनुसार अवश्य कर्म-धूलि लगती है / और वह सुख [विषमं] विषम अर्थात् चंचलपनेसे हानि वृद्धिरूप है। भावार्थ-सांसारिक सुख और दुःख वास्तवमें दोनों एक ही हैं क्योंकि जिस प्रकार सुख पराधीन, बाधा सहित, विनाशीक, बंधकारक तथा विषम इन पाँच विशेषणोंसे युक्त है, उसी प्रकार दुःख भी पराधीन आदि विशेषणों सहित है, और इस सुखका कारण पुण्य भी पापकी तरह दुःखका कारण है / इसी कारण सुख दुःखकी नाईं पुण्य पापमें भी कोई भेद नहीं है,

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार गाथा - 76

गाथा -76

अन्वयार्थ- (जं) जो (इंदियेहिं लद्धं) इंद्रियों से प्राप्त होता है (तं सोक्खं) वह सुख (सपरं) परसम्बन्ध युक्त (बाधासहिदं) बाधासहित (विच्छिण्णं) विच्छिन्न (बंधकारणं) बंध का कारण (विसमं) और विषम है (तधा) इस प्रकार (दुक्खमेव) वह दुःख ही है।



 इन्द्रियों के विषयों से मिलने वाला सुख यदि देखा जाए तो वह वास्तव में दुःख ही है |
इन्द्रियों से प्राप्त होने वाला सुख आखिर दुःख क्यों है? इसके लिए भी पाँच कारण बताए गए है |
पहला कारण है इन्द्रिय सुख 'सपर' होता है | सपर अर्थात पर की इच्छा से सहित होता है | यदि पर पदार्थ नहीं होगा तो उसे सुख प्राप्त नही होगा |

मुनि महाराज श्रावको की दृष्टि में पराधीन है लेकिन स्वयं की दृष्टि में स्वाधीन है क्योंकि उनकी स्वाधीनता जिनागम की आज्ञा से  जुड़ी हुई है |
जो अपनी इच्छाओं के दास हैं वे पराधीन हैं और जो अपनी इच्छाओं के दास नहीं हैं वे स्वाधीन हैं।


Manish Jain Luhadia 
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#2

The happiness brought about by the senses is misery in disguise as it is dependent, with impediments, transient, cause of
bondage of karmas, and fluctuating.

Explanatory Note: 
Worldly happiness and misery have many similarities. Worldly happiness is dependent (on external objects), has impediments (like hunger and thirst), is transient (fades away on rise of the unpleasant-feeling-producing – asātāvedanīya – karmas), is the cause of bondage of karmas (sensual-pleasures are invariably accompanied by attachment and aversion), and is fluctuating (characterized by increase and decrease in intensity). Misery, too, is dependent and with similar other attributes. It is clear that merit (punya) that produces happiness is like demerit (pāpa), the harbinger of misery. As between worldly happiness (sukha) and misery (duhkha), there is no difference between merit (punya) and demerit (pāpa).
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -75,76

तृष्णाके वश दुःखी होकर ही तो विषयों को सेवे
संसारी जन जैसे आतुर होवे वह औषध लेवे ॥
पराधीन विच्छेदपूर्ण बाधायुत पापबीज भी है।
अतः विषम इन्द्रियसुख ऐसी चर्चा ऋषियोने को है ॥ ३८ ॥

सारांश :- आचार्य कहते हैं कि इन्द्रियजन्य सुख परपदार्थके संयोगसे होनेवाला है और पुण्यकर्मके उदयकी अपेक्षा रखता है अतः बाधा सहित भी है। परपदार्थ (समुचित विषय) अनुकूल हो और पुण्यका उदय भी हो परन्तु उचित व्यवस्थाका अभाव हो तो भी सांसारिक सुखमें बाधा उत्पन्न हो जाती है। जैसे एक स्वस्थ मनुष्य को स्त्रीप्रसंगको वासना है। स्त्री भी पासमें खड़ी है और वह भी प्रसंग करना चाहती है परन्तु वहीं पर गुरुजन या सखियाँ खड़ी हुई देख रही हों तो अभीप्सित कार्य नहीं हो सकता है, वहाँ बाधा उत्पन्न हो जाती है।
इसीप्रकार विषय सुख विच्छेदयुक्त भी होता है तथा विषय सुख को यदि तत्परता से भोगा जाय तो आगामी कालके लिये वह पापबंधका भी कारण होता है और विषम होता है। अपने कालमें भी निरन्तर एकरूपमें नहीं रहता है। जैसे एक मनुष्य भोजन कर रहा है। उसको दालका कुछ और ही स्वाद आता है और भातका कुछ और ही आता है तथा उनके साथमें खाये जानेवाले शाकपातका कुछ और ही स्वाद आता है। इन सब बातोंसे विषय सुख उत्तरोत्तर तृष्णाको बढ़ानेवाला होता है अतः विषमिश्रित मिन्न भक्षणको तरह हेय ही है।

विषमिश्रित मिष्टान्न खानेमें मीठा अवश्य लगता है परन्तु वह साथमें दाह भी उत्पन्न करता है। ऐसे ही विषय सेवनमें इस जीवको आनन्दका अनुभव होता है परन्तु साथ ही वह तृष्णाको बढ़ानेवाला भी होता है। अतः विषय सेवन तत्कालमें भी आचार्योंके कथनमें दुःखरूप ही होता है। दुःख तो दुःख है ही किन्तु विषयसुख भी दुःख ही है। जब ऐसा सिद्धांत सिद्ध हो गया तब पुण्य और पापमें भी क्या भेद रहा? ऐसा समझकर पापकी तरह पुण्यसे भी जब तक पार नहीं हो जाता है तबतक संसार बना ही रहता है।
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