प्रवचनसारः गाथा -92 उत्त्पाद व्यय ध्रोव्यात्मा का होना
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -92 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -99 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


जो णिहदमोहदिट्टी आगमकुसलो विरागचरियम्हि /
अन्भुट्टिदो महप्पा धम्मो त्ति विसेसिदो समणो // 92 / /


पूर्व ही आचार्यने "उवसंपयामि सम्म" इत्यादि गाथासे साम्यभाव मोक्षका कारण अंगीकार किया था, और "चारित्तं खलु धम्मो” आदि गाथासे साम्यभाव ही शुद्धोपयोगरूप धर्म है, ऐसा कहकर "परिणमदि जेण दव्वं" इस गाथासे साम्यभावसे आत्माकी एकता बतलाई थी। इसके पश्चात् साम्यधर्मकी सिद्धि होनेके लिये “धम्मेण परिणदप्पा" इससे मोक्ष-सुखका कारण शुद्धापयोगके अधिकारका आरंभ किया था / उसमें शुद्धोपयोग भलीभाँति दिखलाया, और उसके प्रतिपक्षी संसारके कारण शुभाशुभोपयोगको मूलसे नाश करके शुद्धोपयोगके प्रसादसे उत्पन्न हुए अतीन्द्रियज्ञान सुखोंका स्वरूप कहा / अब मैं शुद्धोपयोगके प्रसादसे परभावोंसे भिन्न, आत्मीक-भावोंकर पूर्ण उत्कृष्ट परमात्मा-दशाको प्राप्त, कृतकृत्य और अत्यंत आकुलता रहित होकर संसार-भेद-वासनासे मुक्त आपमें साक्षात् धर्मस्वरूप होकर स्थित होता हूँ-[यः] जो [निहतमोहदृष्टिः] दर्शनमोहका घात करनेवाला अर्थात् सम्यग्दृष्टि है, तथा [आगमकुशलः] जिन प्रणीत सिद्धान्तमें प्रवीण अर्थात् सम्यग्ज्ञानी है, और [ विरागचारित्रे] रागभाव रहित चारित्रमें [अभ्युत्थितः] सावधान है, तथा [महात्मा] श्रेष्ठ मोक्षपदार्थक साधनेमें प्रधान है। [स श्रमणः ] वह मुनीश्वर [ धर्म इति] धर्म है, ऐसा [विशेषितः] विशेष लक्षणोसे कहा गया है / भावार्थ—यह आत्मा वीतरागभावरूप परिणमन करके साक्षात् आप ही धर्मरूप है / इस आत्माकी घातक जो एक मोहदृष्टि है, वह तो आगम-कुशलता और आत्म-ज्ञानसे विनाशको प्राप्त हुई है, इस कारण मेरे फिर उत्पन्न होनेवाली नहीं है / इसलिये वीतरागचारित्रसे यह मेरा आत्मा धर्मरूप होकर सब शत्रुओंसे रहित सदाकाल ही निश्चल स्थित है / अधिक कहनेसे क्या 'स्यात्' पद-गर्भित जिनप्रणीत शब्द ब्रह्म जयवंत होओ, जिसके प्रसादसे आत्म-तत्त्वकी प्राप्ति हुई, और उस आत्म-तत्त्वकी प्राप्तिसे अनादिकालकी मोहरूपी गाँठ छूटकर परम वीतरागचारित्र प्राप्त हुआ, इसीलिये शुद्धोपयोग संयम भी जयवंत होवै, जिसके प्रसादसे यह आत्मा आप धर्मरूप हुआ // 
इति श्रीपांडेहेमराजकृत श्रीप्रवचनसार सिद्धान्तको बालावबोध भाषाटीकामें ज्ञानतत्त्वका अधिकार पूर्ण हुआ // 1 //

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार
अन्वयार्थ ( जो आगमकुसलो ) जो आगम में कुशल हैं , ( णिहदमोहदिट्ठी ) जिसकी मोह दृष्टि हत हो गई , और ( विरागचरियम्मिअब्भुट्टिदो ) जो वीतराग चारित्र में आरूढ़ है , ( महप्पा समणो ) उस महात्मा श्रमण को ( धम्मो त्ति विसेसिदो ) ( शास्त्र में ) " धर्म " कहा है ।

Manish Jain Luhadia 
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#2

The ascetic (muni, śramana) who has destroyed the delusion-of perception (darśanamoha), has grasped the Doctrine of Lord
Jina, and is established in conduct that is rid of attachment (rāga), is ‘dharma’. Such a profound ascetic is of the nature of
supreme conduct (dharma).

Explanatory Note: The soul itself is ‘dharma’. These three: right faith (samyagdarśana) attained on the destruction of delusion-of perception (darśanamoha), right knowledge (samyagjñāna) attained on assimilation of the Doctrine of Lord Jina, and right conduct (samyakcāritra) attained on ridding the soul of attachment (rāga), together, establish the soul in ‘dharma’. My soul, of the nature of ‘dharma’, now has no enemies (like attachment) and has attained forever its steady and pure state.
Victory to the Doctrine of Lord Jina, which is adorned by the qualifying clause ‘syāt’, meaning ‘in a way’! Victory to the
‘dharma’, pure-cognition (śuddhopayoga), which has endowed me the soul-nature that is established in conduct-without-attachment (vītarāga cāritra)!
This completes the section on Reality of Knowledge (jñānatattva).
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -91,92
जो सामान्य विशेषरूप इन चीजोंको नहिं पहिचाने ।
परिव्रजित होकरके भी वह नहीं धर्म मनमें आने
समश्वासयुक्त आगमवेत्ता वीतराग चारित्र धरे ।
अपितु वास्तविक धर्मयुत महात्मा समर्थ वह मुक्ति वरे ॥ ४६

सारांश:- जो किसी कारण विशेष (सन्मानादि प्राप्त करनेकी इच्छा वगैरह से गृहस्थाश्रमका त्याग करके यदि साधु भी बन गया हो परन्तु जिसके मनमें कथञ्चित अस्तिनास्ति स्वरूप सामान्य विशेषात्मक पदार्थोके यथार्थ स्वरूपका विश्वास (श्रद्धान) न होसका हो तो यह धर्मात्मा कहलानेका अधिकारी नहीं है। उसका वह देश तो बहुरूपिया के स्वाङ्गके समान है। इस दशामें भी यदि वह काललब्धिके योगसे तत्वार्थ श्रद्धान प्राप्त करले तो फिर उससे शत्रु मित्र, तृण कंचन एवं सांसारिक सुख दुःखमें समताभावरूप वास्तविक वैराग्य पर आ सकता है एवं चितकी स्थिरताके द्वारा आगमका पारगामी बनकर वह बाहर की सब बातोंसे विमुख होते हुए आत्मतल्लीनता प्राप्त करले तो तत्क्षण धर्मात्माकी परिपूर्ण सम्पत्तिको प्राप्त कर सकता है, जिससे उसे आगे दूसरा जन्म ही धारण न करना पड़े। इसतरह वह आराधकसे आराध्य बन सकता है उसकी आराधना करनेवाले कैसे होते हैं,
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