सिरिभूवलय ग्रन्थ के अनुसार तीर्थकर भगवन्तो के चिन्ह रखने का विवरण
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सिरिभूवलय ग्रन्थ के अनुसार तीर्थकर भगवन्तो के चिन्ह रखने का विवरण :-

भूवलय में बुद्धि रिद्धि, बल रिद्धि औपयि रिद्धि इत्यादि अनेक ऋिध्दियों  का कथन है। उन सब रिद्धि की प्राप्ति के अर्थात् सिद्धि के लिए भी आदिनाथ भगवान और श्री अजितनाथ के आदि में नमस्कार करना चाहिए, उनके वाहन बैल और हाथी से स्याद्वाद का चिन्ह अंकित होता है। ऐसा ग्रन्थकारने कहा है। अपना अभीष्ट स्वार्थ साधन करना है अर्थात . भूवलय के ६४ अक्षरों का ज्ञान प्राप्त करना है। उन ६४ अक्षरों का यदि साधन करना हो तो सर्वप्रथम मंगलाचरण होना अनिवार्य है। मंगलाचरण में लौकिक और अलौकिक दो भेद हैं। लौकिक मंगल में श्वेत छत्र, बालकन्या, श्वेत अश्व, श्वेत संघर्ष पूर्ण कम्भ इत्यादि दोष रहित वस्तुएँ हैं। अब सर्वमंगल के आदि में श्वेत अश्व को खड़ा करना अभीष्ट है      ।। २ ।। मनुष्य का मन चंचल मर्कट के समान एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष, शाखा से शाखा तथा डाली से डाली पर निरन्तर दौड़ता रहता है। उसको बाँधकर रखना तथा मर्कट को बाँधना दोनों समान है, चंचल मन स्याव्दवाद रूपी धागे से हीबांधा जा सकता है। उसके  चिन्ह को दिखाने के लिए आचार्य ने मर्कट का उदाहरण दिया है,जब मन की चंचलता रुक जाती है  तब आत्मज्योति का ज्ञान विकसितहोने लगता हैऔर उस विकसित ज्ञानज्योति को पुनः २ आत्मचक्र घुमाने से काय गुप्ति, वचन गुप्ति तथा मनः गुप्ति की प्राप्ति होती है। तब आत्मा के अन्दर संकोच विस्तार करने की शक्ति बन्द हो जाती है उसे गुप्त कहते हैं। उस अवस्था को शब्द द्वारा बताने के लिए श्री कुमुदेन्दु आचार्य ने चक्रवाक पक्षी का लांछन लिया हैं। यह उपर्युक्त उदाहरण ठीक ही है, क्योंकि भूवलय चक्रबन्ध से ही बन्धा हुआ है ।।४।।
इस भूवलय ग्रन्थ की, महान अंक राशि को परिपूर्ण होने पर भी यदि सभी संख्याओं को चक्र में मिला दिया जाय तो केवल नौ (९) के अन्दर ही गणना कर सकते हैं। इसी रीति से प्रत्येक जीव अनन्त ज्ञान से संयुक्त होने पर ९ के अन्दर ही गर्भित हो जाता। वह ९का अंक एक स्थान में ही रहने वाला है। इसी प्रकार अनन्त गुण भी एक ही जीव में समाविष्ट हो सकते हैं। जिस तरह सूर्योदय होने पर प्रसार किया हुआ कमल अपनी सुगन्धि को फैलाता है पर रात्रि में सभी को समेटकर अपने अंदर गर्भित कर लेता है, उसी प्रकार प्राप्त की हुई आत्मज्योति को अपने अंतर्गत करके और भी अधिक शक्ति बढ़ाकर बांह फैलाने का जो आध्यात्मिक तेज वृद्धिंगत हो  जाता है उसे शब्द और विद्रुप बताने के लिए आचार्यश्री ने नहीं कमल और ९ अंक का चिन्ह लिया है।।५।। गुप्तित्रय में रहने वाली आत्मा का चित में सम्पूर्ण अक्षरात्मक ६४ ध्वनिको एकमात्र में समावेश करने के विज्ञानमयी विद्या की सिध्दि को देने वाले श्री सुपार्श्वनाथ तीर्थ्कर हैं उनका वाहन स्वस्तिक है। इस महान विद्या को शब्द रुप में दिखाने के लीये आचार्य ने स्वस्तिक का चिन्ह उपयुक्त बताया है॥७॥इस शीतल ज्ञान-गन्गा प्रवाह को शब्द रुप में दिखाने के लिए श्री आचार्य जी ने चन्द्रमा का चिन्ह उदाहरण रूप में लिया है। ॥८॥स्वर्ग लोकस्थ कल्पवृक्ष में आकर भूवलय शास्त्र का १०वाँ१अंक बनकर मणिरत्नमाला आहार आदि ईप्सित पदार्थों को प्रदान करता है। इस बात को शब्द रूप देने के लिए आचार्य ने १० कल्पवृक्षों को चिन्ह रूप में लिया है अर्थात् वृक्ष का चिन्ह १०वें तीर्थंकर का है।॥१०॥
तब कल के त्याग किए गए आहार को हम रुचि के साथ कैसे ग्रहण करें ? ये आहार ग्रहण करने पर भी अरुचि के साथ करते हैं। इसे गोधरी और बोचरी दोनों वृत्ति कहते हैं।
इस विषय को बताने के लिए आचार्य ने गण्डभेरुण्ड पक्षी का चिन्ह लिया है ।।११।। यह मन द्रव्य मन और भाव-मन दो प्रकार का हैं। एक प्रकार का मन लगातार विषय से विषयान्तर तक चंचल मर्कट के समान दौड़ लगाता रहता है और दूसरा सुसुप्त होकर काहिल भैंसे के समान स्थिर होकर पड़ा रहता है। इसकी बताने के लिए आचार्यश्री ने भैंसे  का चिन्ह लिया है।पाताल में छिपे हुए भूवलय रूपी वेद को विष्णु रूपी शूकर ने निकाला था। इस दृष्टि से वैदिक धर्म में शूकर का महत्वपूर्ण स्थान है। II१३II
भूवलय में ६४ अक्षर रूपी असंख्यात अक्षर है और उतने हीअंक हैं। उसको बढ़ाने से संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त ऐसे तीन रूप बन जाते हैं, किन्तु यदि उसे घटाया जाय तो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म  हो जाता है अर्थात् विन्दीरूप हो जाता है। लोक में एकीकरण न हो तो यह सुविधा नहीं मिल सकती अर्थात् न तो अनन्त हो सकता और न बिन्दी ही रीछ (भालू) के शरीर में अनेक रोम रहते हैं, "तु उन सभी रोमों का सम्बन्ध प्रत्येक रोम से रहता है अर्थात् एक का दूसरे रोम से अभेद सम्बन्ध है, इसीलिए कुम्देन्दु आचार्य ने उपयुक्त विषय का स्पष्टीकरण करने के लिए भालू का लांछन दिया १४॥ यक्ष देवों का आयुथ वज है और वह जैनधर्म की रक्षा करने वाला सुदृढ़ शस्त्र है। ऐसा होने से शिक्षण के साथ-साथ रक्षण करता है। इस विषय को दिखाने के लिए आचार्यश्री ने वज्र का लांछन दिया है ।।१५।। तुष-मात्र कहने में असि आउ सा मंत्र का वेग से उच्चारण हो जाता है। १ इस चिन्ह को दिखाने के लिए आचार्य श्री ने हरिण का लांछन दिया है।।१६।।

सभी पुण्य को अपनाकर केवल १ पाप को त्याग करने की शिक्षा को बताने के लिए आचार्य श्री ने यहाँ बकरी का दृष्टान्त दिया है। क्योंकि बकरी समस्त हरे पत्तों को खाकर १ पते को त्याग देती है ।।१७।। शब्दराशि समस्त लोकाकाश में फैली रहती है। इतना महत्त्व होने पर भी १ जीव के हृदयान्तराल में ज्ञान रूप से स्थित रहता है। इस महत्त्व को बताने के लिए आचार्य श्री ने नन्द्यावर्तका लांछन दिया गया है ।।१८।।
सातवें बलवासुदेव ने बनारसी में आत्म तत्त्व का चिन्तवन करते समय नवमांक चक्रवर्ती के साथ अपनी दिग्विजय के समय में मंगल निमित्त पूर्ण कुम्भ की स्थापना की थी। पवित्र गंगाजल से भरा हुआ उस पवित्र कुम्भ से मंगल होने में आश्चर्य क्या ? अर्थात आश्चर्य नहीं है। इस विषय को सूचित करने के लिए कुमदेन्दु आचार्य ने कुम्भ वाहन को लिया है ।।१९।। अर्हत सिद्धादि नौ पद को हमेशा जपने वालों को वह भद्र कवचरूप होकर रक्षा करता है। उस विषय को बताने के लिए कछुआ का चिन्ह दिया है इस कछुवे का वर्णन कवि के लिए महत्त्व का विषय है।।२०।।
समवशरण में सिंहासन के ऊपर जल कमल रहता है। तीर्थकर चक्रवर्ती राज्य करते समय नील कमल वाहन के ऊपर स्थित थे। इसलिए यहाँ नील कमल  चिन्ह को दिया गया है।। २१ ।।
भूवलय में आने वाले अन्तादि (अन्ताक्षरी अर्थात् जिसका तम अक्षर ही अगले पद्य का प्रारंभिक अक्षर होता है) काव्य है। ऐसे श्लोक भुवलय में एक करोड़ से अधिक आते हैं। गायन कला में परम प्रवीण गायक वीणा को केवल चार तंत्रियों से जिस प्रकार सुमधुर विविध भाँति की करोड़ों राग-रागनियों को उत्पन्न करके सर्वजन को मुग्ध करता है उसी प्रकार भुवलय केवल ९ अंकों में से ही विविध भाषाओं के करोड़ों श्लोकों की रचना करता है, इसलिए यह ६४ व्वनिशास्त्र हैं। इसको बताने के लिए आचार्य ने शंख का चिन्ह दिया है ।। २२ ।।
भूवलय काव्य में अनेक बन्ध हैं। इसके अनेक बन्धों में एक नागबन्ध भी है। एक लाइन में खण्ड किये हुये तीन-तीन खण्ड श्लोकों को अन्तर कहते हैं। उन खण्ड श्लोकों का आद्यअक्षर लेकर यदि लिखते चले जायें तो उससे जो काव्य प्रस्तुत होता है उसे नागबन्ध कहते हैं। इस बन्ध द्वारा गतकालीन नष्ट हुये जैन, वैदिक, तथा इतर अनेकों ग्रन्थ निकल आते हैं, इसे दिखाने के लिये सर्पलांछन दिया है।। २३ ।।
वीररस प्रदर्शन के लिये सिंह का चिन्ह सर्वोत्कृष्ट माना गया है। शूरवीर दो प्रकार के होते हैं। १ राजा और दूसरा दिगम्बर मुनि । इन दोनों के बहुत बड़े पराक्रमी शत्रु हुआ करते हैं। राजा को किसी अन्य राजा के चढ़ाई करने वाले बाह्य शत्रु तथा दिगम्बर मुनि के ज्ञानावरण आदि आठ अन्तरंग कर्म शत्रु लगे रहते हैं। अन्तरंग और बहिरंग दोनों शत्रुओं को सदा पराजित करने की जरूरत है। इन्हीं आवश्यकताओं को दिखाने के लिए आचार्य ने सिंह लांछन दिया है ।। २४ ।।
चौबीस तीर्थंकर का जहाँ-जहाँ जन्म है उनका जन्म ही यह भूवलय ग्रंथ है। चौदहवें अध्याय में १४४-१६७ तक अहिंसामय आयुर्वेद के निर्माणकर्ता पुरूषों के उत्पत्ति स्थान तथा उनके नगरों के नाम है। उनके वंश के नाम इसी अध्याय में १८०-१६४ तक वर्णित हैं। इक्ष्वाकुवंश में जन्म लेने वाले तीर्थंकर श्री आदिनाथजी से लेकर अनंतनाथजी, शांतिनाथजी, श्री मल्लिनाथ जी, श्री नमिनाथ जी हैं। कुरूवंश में श्री धर्मनाथजी, १७वें श्री कुंथुनाथजी, १८वें श्री अरहनाथजी ने जन्म लिया। यादव वंश में मुनिसुव्रतनाथ जी एवं २२वें श्री नेमिनाथजी उग्र वंश मे I
श्री पार्श्वनाथजी श्री महावीर भगवान ने नाथवंश में जन्म लिया ये पाँचों वंश (इक्ष्वाकु वंश, कुरुवंश, हरिवंश, उग्रवंश और नाथ) भारत के प्रमुख राजवंश हैं I

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