प्रवचनसार: ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा -2 स्वसमय तथा परसमय का स्वरूप
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार : ज्ञेयतत्त्वाधिकार


गाथा -2 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -104 (आचार्य प्रभाचंद्र  की टीका अनुसार )

जे पज्जयेसु णिरदा जीवा परसमयिग त्ति णिहिट्ठा।
आदसहावम्मि ठिदा ते सगसमया मुणेदव्वा // 2 //


अब इस व्याख्यानका संयोग पाकर स्वसमय तथा परसमयका स्वरूप प्रगट करते हैं-[ये जीवाः] जो अज्ञानी संसारी जीव [पर्यायेषु ] मनुष्यादि पर्यायोंमें [निरताः] लवलीन हैं, वे [परसमयिकाः] परसमयमें रागयुक्त हैं, [इति] ऐसा [निर्दिष्टाः ] भगवंतदेवने दिखाया हैं / और जो सम्यग्दृष्टि जीव [ आत्मस्वभावे ] अपने ज्ञानदर्शन स्वभावमें [स्थिताः ] मौजूद हैं, [ते] वे [स्वकसमयाः] स्वसमयमें रत [ज्ञातव्याः] जानने योग्य हैं /

 भावार्थ-जो जीव सब अविद्याओंका एक मूलकारण जीव पुद्गल स्वरूप असमान जातिवाले द्रव्यपर्यायको प्राप्त हुए हैं, और आत्म-स्वभावकी भावनामें नपुंसकके समान अशक्ति (निर्बलपने ) को धारण करते हैं, वे निश्चय करके निरर्गल एकान्तदृष्टि ही हैं / 'मैं मनुष्य हूँ, यह मेरा शरीर है' इस प्रकार नाना अहंकार ममकारभावोंसे विपरीत ज्ञानी हुए अविचलित चेतना-विलासरूप आत्म-व्यवहारसे च्युत होकर समस्त निंद्य क्रिया-समूहके अंगीकार करनेसे पुत्र स्त्री मित्रादि मनुष्यव्यवहारको आश्रय करके रागी द्वेषी होते हैं, और परद्रव्यकर्मोंसे मिलते हैं, इस कारण परसमयरत होते हैं / और जो जीव अपने द्रव्यगुणपर्यायोंकी अभिन्नतासे स्थिर हैं, समस्त विद्याओंके मूलभूत भगवंत आत्माके स्वभावको प्राप्त हुए हैं, आत्मस्वभावकी भावनासे पर्यायरत नहीं हैं, और आत्म-स्वभावमें ही स्थिरता बढ़ाते हैं, वे जीव स्वाभाविक अनेकान्तदृष्टिसे एकांत दृष्टिरूप परिग्रहको दूर करनेवाले हैं। मनुष्यादि गतियोंमें शरीरसंबंधी अहंकार ममकारभावोंसे रहित हैं / जैसे अनेक गृहोंमें संचार करनेवाला रत्नदीपक एक है, उसी प्रकार एकरूप आत्माको प्राप्त हुए हैं / अचलित चैतन्य-विलासरूप आत्मव्यवहारको अंगीकार करते हैं / असमीचीन क्रियाओंके मूलकारण मनुष्य-व्यवहारके आश्रित नहीं होते। राग द्वेषके अभावसे परम उदासीन हैं, और समस्त परद्रव्योंकी संगति दूर करके केवल स्वद्रव्यमें प्राप्त हुए हैं, इसी कारण स्वसमय हैं। स्वसमय आत्मस्वभाव है। आत्मस्वभावमें जो लीन रहते हैं वे धन्य हैं //
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार


Manish Jain Luhadia 
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#2

Lord Jina has expounded that those who rely solely on the modes (paryāya), like the human being, are the wrong-believers (mithyādrsti); such souls are engaged in impure-soul nature (parasamaya). Those who rely on own soul-nature, like knowledge (jñāna) and perception (darśana), are the right- believers (samyagdrsti); such souls are engaged in pure-soul nature (svasamaya) and are worth knowing.



Explanatory Note: Those who, after acquiring this present state of being that is the result of the union of the soul (jīva) and the matter (pudgala), asamānajātīya dravyaparyāya, find themselves powerless to see the true nature of their souls are, certainly, ekāntadrsti – having the absolutistic point-of-view. They suffer from delusion in two forms:

1) sense-of-mine (mamakāra) in objects or things, like the body, that are not the soul but are the result of fruition of karmas – ‘This body is mine’, and

2) self consciousness (ahamkāra) concerning objects or things that definitely do not belong to the soul – ‘I am the king’.

As a result, fleeing from the true soul nature, they entertain dispositions of attachment (rāga) and aversion (dvesa) towards external entities  like the son, the wife, and the friend. They are engaged in impure soul-nature (parasamaya). Those who are absorbed in the trio of substance (dravya), qualities (guna) and modes (paryāya) of the soul, know the true nature of the soul; they are anekāntadrsti – having non-absolutistic point-of-view. They are rid of sense-ofmine

(mamakāra) and self-consciousness (ahamkāra) in external objects or things, like the body. They do not entertain dispositions of attachment (rāga) and aversion (dvesa) towards external
entities, and engage themselves in pure soul-nature (svasamaya).
Being svasamaya is the nature of the soul. Blessed are those engrossed in pure soul-nature!
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#3

गाथा -1,2
बोधका विषय वस्तु गुणी गुणपर्यय वाला होता है ।
जो केवल पर्याय बुद्धि परसमय वही सुख खोता है ॥
नरपर्ययादिमय हो अपने को माने परसमय वहीं ।
रागरोषसे हीन हुआ आत्मस्वभाव निजसमय सही ॥ १ ॥

सारांश:- ज्ञानके द्वारा जानने योग्य वस्तु गुण पर्यायात्मक होती है। यह अपने आपमें सदाके लिए अनेक गुणोंको लिये हुए उनका अखण्ड पिण्ड स्वरूप होती है। प्रत्येक गुण भी अपने आपमें निरन्तर एकके बाद एकरूपसे उत्पन्न होनेवाली पर्यायोंमें किसी न किसी एक पर्यायकी अवस्थाको लिये हुए हर समय बना रहता है। ऐसा पहिले बता चुके हैं। इसका यह अर्थ होता है कि हरएक ही वस्तु तात्कालिक होकर भी शाश्वत है। उस वस्तु के भूत और भविष्यत्को बिलकुल भी याद न रखकर केवल वर्तमान अवस्था मात्रको ही स्वीकार करनेवाला मोही (भूल करनेवाला अज्ञानी) जीव होता है।
वह मूढ अपनी मूढताके कारण जिस समय जैसी अवस्था धारण करता है उस समय अपने आपको वैसा ही मान बैठता है। मनुष्य शरीर धारण करने पर अपने आपको मनुष्य तथा पशु शरीर धारण करने पर अपने आपको पशु ही समझा करता है। मनुष्यता और पशुता न तो केवल जीवकी ही अवस्था है और न केवल अजीव कहलानेवाले पुद्गल द्रव्यकी ही अवस्था है। यह तो जीव और पुद्गल इन दोनों की संयोगी अवस्था होती है।

जो जीव अपनेको मनुष्य या पशु मानता है वह पर (पुद्गल) को आप और आप (जीव) को पर (पुद्गल) माननेवाला होनेसे परसमय होता है। किन्तु इसके विपरीत अपने शरीर तथा शरीरसे संबंधित अन्य पदार्थोंके प्रति रहनेवाले अहंकार ममकार भावसे सर्वथा रहित होकर अपने आपको शुद्ध बुद्ध सच्चिदानन्दरूप अनुभव करनेवाला जीव स्वसमय होता है। स्वसमय तथा परसमय ये दोनों ही तादृश विश्वास एवं तदनुरूप चेष्टासे घटित होते हैं।

घोर मिथ्यात्वके वशमें रहनेसे जो आत्मा की शुद्धताको किसी भी तरह स्वीकार ही न करता हो, कोई भी आत्मा स्त्री पुत्र धन धान्यादि बाह्य निमित्तोंके कारण प्रस्फुटित होनेवाले मोह रागद्वेषादि विकारी भावोंको बिलकुल भी न होने देकर केवल ज्ञानघन एवं शरीर रहित होगया हो या हो सकता हो, इस बातको माननेके लिए भी तैयार न हो किन्तु श्वासादियुक्त जो यह चलता फिरता शरीर है इसीका नाम आत्मा या जीव है और जबतक यह है तबतक अपनी आवश्यकताओंको प्रयत्नपूर्वक यथासाध्य पूरी करना ही इसका एक कार्य है। ऐसी धारणा रखने वाला जीव परसमय कहा जाता है।

जो अपनी आत्माको जड शरीरसे भिन्न, नित्य, ज्ञानमय तथा शरीरको उसका निवासस्थान समझ चुका हो और शरीरके साथ ममत्व होनेके कारण उत्पन्न होनेवाली अनेक प्रकार की आवश्यकताओंको निस्सार जानकर उन पर भी पूर्ण विजय पा चुका हो, यथार्थ वीतराग दशा पर पहुंच गया हो वह हम लोगोंसे पूज्य स्वसमय होता है।

शेष चतुर्थादि गुणस्थानवर्ती सराग सम्यग्दृष्टि व्यक्ति विश्वासमें तो स्वसमय बन चुका है परन्तु व्यवहारमें परसमय को छोड़कर स्वसमय बन चुका हो, ऐसी बात नहीं है। व्यवहारमें यथासंभव अपने पिताको पिता, माताको माता और भाईको भाई आदि मानता है। द्रव्यलिंगी मुनिकी दशा इससे विपरीत होती है। यह अपने व्यवहारमें तो किसीको भी नहीं अपनाता हैं परन्तु श्रद्धानमें उसका लगाव संसारकी बातोंके प्रति बना ही रहता है। इसप्रकार स्वसमय तथा परसमयको बताकर आगे द्रव्यका लक्षण कहते हैं
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