प्रवचनसार: ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा -3
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार : ज्ञेयतत्त्वाधिकार


गाथा -3 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -105 (आचार्य प्रभाचंद्र  की टीका अनुसार )


अपरिच्चत्तसहावेणुप्पादव्वयधुवत्तसंबद्धं/ 
गुणवं च सपज्जायं जं तं दव्वं ति वुच्चंति // 3 //


अब द्रव्यका लक्षण कहते हैं-[ यत् ] जो [ अपरित्यक्तस्वभावेन ] नहीं छोड़े हुए अपने अस्तित्व स्वभावसे [उत्पादव्ययधुवत्वसंबद्धं ] उत्पाद, व्यय, तथा ध्रौव्य संयुक्त है। [च ] और [गुणवत्] अनंतगुणात्मक है, [सपर्यायं] पर्यायसहित है, [तत् ] उसे [द्रव्यं इति] द्रव्य ऐसा [ब्रुवन्ति] कहते हैं। 

भावार्थ-जो अपने अस्तित्वसे किसीसे उत्पन्न नहीं हुआ होवे, उसे द्रव्य कहते हैं / अस्तित्व दो प्रकारका हैं-एक स्वरूपास्तित्व और दूसरा सामान्यास्तित्व, इन दोनों अस्तित्वोंका वर्णन आगे करेंगे / यहाँ द्रव्यके लक्षण दो हैं, सो बतलाते हैं, एक उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, और दूसरा गुणपर्याय / उत्पाद उत्पन्न होनेको, व्यय विनाश होनेको, और ध्रौव्य स्थिर रहनेको कहते हैं। गुण दो प्रकारका है, एक सामान्यगुण दूसरा विशेषगुण / अस्तित्व, नास्तित्व, एकत्व, अन्यत्व, द्रव्यत्व, पर्यायक, सर्वगतत्व, असर्वगतत्व, सप्रदेशत्व, अप्रदेशत्व, मूर्तत्व, अमूर्तच, सक्रियत्व, अक्रियत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, कर्तृत्व, अकर्तृत्व, भोक्तृत्व, अभोक्तृत्व, अगुरुलघुत्व, इत्यादि सामान्यगुण हैं / अवगाहहेतुत्व, गतिनिमित्तता, स्थितिहेतुत्व, वर्तनायतनत्व, रूपादिमत्व, चेतनत्व, इत्यादि विशेषगुण हैं। द्रव्यगुणकी परिणतिके भेदको पर्याय कहते हैं / इन उत्पाद व्यय ध्रौव्य गुणपर्यायोंसे द्रव्य लक्षित होता (पहिचाना जाता) है, इसलिये द्रव्य 'लक्ष्य' है / और जिनसे लक्षित होता है, वे लक्षण हैं, इसलिये उत्पाद व्ययादि लक्षण' हैं / लक्ष्य लक्षण भेदसे यद्यपि इनमें भेद है, तथापि स्वरूपसे द्रव्यमें भेद नहीं है, अर्थात् स्वरूपसे लक्ष्य लक्षण एक ही हैं। जैसे-कोई वस्त्र पहले मलिन था, पीछेसे धोकर उज्ज्वल किया, तब उज्ज्वलतासे उत्पन्न हुआ कहलाया / परंतु उस वस्त्रका उत्पादसे पृथक्पना नहीं है, क्योंकि पूर्ववस्त्र ही उज्ज्वलभावसे परिणत हुआ है। इसी प्रकार बहिरंग-अंतरंग निमित्त पाकर द्रव्य एक पर्यायसे उत्पन्न होता है, परंतु उत्पादसे जुदा नहीं है, स्वरूपसे ही उस पर्यायरूप परिणमन करता है / वही वस्त्र उज्ज्वलावस्थासे तो उत्पन्न हुआ है, और मलिनपर्यायसे व्यय (नाश ) को प्राप्त हुआ है, परंतु उस व्ययसे वस्त्र पृथक् नहीं है, क्योंकि आप ही मलिनभावके नाशरूप परिणत हुआ है / इसी प्रकार द्रव्य आगामी पर्यायसे तो उत्पद्यमान है, और प्रथम अवस्थासे नष्ट होता है, परंतु उस व्ययसे पृथक् नहीं है, व्यय प्रव. स्वरूप परिणत हुआ है / और वही वस्त्र जैसे एक समयमें निर्मल अवस्थाकी अपेक्षासे तो उत्पद्यमान है, मलिनावस्थाकी अपेक्षासे व्यय (नाश ) वाला है, और वस्त्रपनेकी अपेक्षा ध्रुव है, परंतु ध्रुवपनेसे स्वरूपभेदको धारण नहीं करता है, आप ही उस स्वरूप परिणमता है / इसी प्रकार द्रव्य हरएक समयमें उत्तर अवस्थासे उत्पन्न होता है, पूर्व अवस्थासे विनाशको प्राप्त होता है, और द्रव्यपने स्वभावसे ध्रुव रहता है, ध्रुवपनेसे पृथक् नहीं रहता, आप ही ध्रौव्यको अवलंबन करता है / और इसी प्रकार जैसे वही वस्त्र उज्ज्वल कोमलादि गुणोंकी अपेक्षा देखते हैं, तो वह उन गुणोंसे भिन्न भेद धारण नहीं करता, स्वरूपसे गुणात्मक है, इसी तरह प्रत्येक द्रव्य निज गुणोंसे भिन्न नहीं है, स्वरूपसे ही गुणात्मक है, ऐसा देखते हैं / जैसे वस्त्र तंतुरूप पर्यायोंसे देखाजाता है, परंतु उन पर्यायोंसे जुदा नहीं है, स्वरूपसे ही उनरूप है; इसी प्रकार द्रव्य निज पर्यायोंसे देखते हैं, परंतु स्वरूपसे ही पर्यायपनेको अवलम्बन करता है। इस तरह द्रव्यका उत्पादव्ययध्रौव्यलक्षण और गुणपर्यायलक्षण जानने योग्य है //

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार


Manish Jain Luhadia 
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#2

That which does not ever leave its own-nature (of existence), endowed with origination (utpāda), destruction (vyaya), and
permanence (dhrauvya), and has qualities (guna) and modes (paryāya), is a substance (dravya).

Explanatory Note: That whose nature is existence, not produced by anything else, is a substance (dravya). 
Existence is of two kinds: 
‘existence in own nature’ – svarūpāstitva – and
‘existence-ingeneral’ – sāmānyāstitva or sādrśyāstitva. 
These terms are explained later. Here, the two characteristics – origination-destruction- permanence and qualities-modes – of the substance (dravya) are discussed. Origination (utpāda) is the attainment of a new state, destruction (vyaya) is the loss of the previous state, and permanence (dhrauvya) is the maintenance of the inherent nature. All objects have two kinds of qualities (guna) – the general (sāmānya), and the specific (viśesa). The general qualities express the genus (jāti) or the general attributes, and the specific qualities describe the constantly changing conditions or modes. Existence (astitva), non-existence (nāstitva), oneness (ekatva), manyness  (anekatva), substantiveness (dravyatva), power of changing modes (paryāyatva), pervasiveness (sarvagatatva), non-pervasiveness (asarvagatatva), with space-points (sapradeśatva), without spacepoints (apradeśatva), corporealness – having a form (mūrtatva), incorporealness – without having a form (amūrtatva), with activity (sakriyatva), without activity (akriyatva), consciousness (cetanatva), lifelessness (acetanatva), doer (kartatva), non-doer (akartatva), enjoyer (bhoktrtva), non-enjoyer ( abhoktrtva), and power of maintaining distinction with all other substances (agurulaghutva), are some general (sāmānya) qualities of substances. Assistance in providing accommodation (avagāhanahetutva), assistance in motion (gatihetutva), assistance in rest (sthitihetutva), assistance in continuity of being through gradual changes (vartanāhetutva), colouration (rūpa) etc., and consciousness (cetanatva), are some specific (viśeÈa) qualities of substances. Modification in the qualities of a substance is mode (paryāya). The substance (dravya) is the aim (laksya) of knowledge; origination-destruction-permanence and qualities modes are the marks (laksana) of the aim (laksya) of knowledge. Although there is difference with respect to these being called as the aim (laksya) and the marks (laksana), there is no difference between the two; both are of the nature of the object. When a dirty cloth gets bright on washing, there is origination of brightness and destruction of dirtiness, but the cloth itself remains the same. Each substance continually experiences origination of a new state, destruction of the previous state, and permanence with regard to its substantiveness. The substance (dravya) is not anything different from its qualities (guna); qualities are its own-nature
(svabhāva). Similarly, the substance (dravya) is not anything different from its modes (paryāya); modes are its own-nature (svabhāva).
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -3.4

जनि नाश स्थिति युक्त अनन्यभावसे जो संबद्ध रहे ।।
द्रव्य वही गुण और पर्यायोंसे परिपूर्ण विचार सहे ॥

अपने नाना गुण पर्यायोंमें होकर जो नियत रहे ।

समुत्पत्ति हानि स्थितिसे यह वस्तुका सदा स्वभाव है ॥ २ ॥



सारांश: – पहिचानने के उपायका नाम लक्षण है। इसके द्वारा पहिचानने योग्यका नाम लक्ष्य है। यहाँ द्रव्य तो लक्ष्य है और उत्पाद, व्यय, धौव्य या गुण पर्याय उसका लक्षण है। द्रव्यका अर्थ द्रवित होने वाला, अपने आपके रूपमें बहता रहनेवाला होता है। यह होना अथवा रहना भी दो तरहसे होता है। एक तो अपनेपनको लिये हुए रहना है जिसे स्वरूपास्तित्व कहते हैं। दूसरा, औरोंका भी साथी कहलाना, इसे सामान्यास्तित्व कहते हैं।



सामान्यास्तित्वको दृष्टिमें रखकर द्रव्यका लक्षण उत्पाद व्यय धौव्ययुक्तता कहा जाता है और स्वरूपास्तित्वकी अपेक्षा गुणपर्ययवत्ता द्रव्यका लक्षण कहा जाता है। प्रत्येक द्रव्यके गुण और पर्यायें उसो द्रव्यमें रहते हैं और उत्पाद व्यय तथा धौव्य हर द्रव्यमें पाये जाते हैं। नवीनता आजानेका नाम उत्पाद है और प्राचीनता न रहनेका नाम व्यय है किन्तु ऐसा होते हुए भी तत्पन बने रहनेका नाम धौव्य है। जैसे एक वस्त्र मलिन था, उसे साबुन से धोया। गया जिससे वह स्वच्छ होगया फिर भी वस्त्र वही है।

द्रव्यमें सदा बनी रहने वाली शक्तिको गुण कहते हैं। उसके परिवर्तनको (यथासंभव बदलनेको) पर्याय कहते हैं। गुण दो प्रकार के होते हैं, १. सामान्य गुण २. विशेष गुण सामान्य गुण उन्हें कहते हैं जो सब ही द्रव्योंमें समानरूपमें पाये जावें, जैसे अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व और प्रदेशत्व। विशेष गुण उन्हें कहते हैं जो दूसरे द्रव्योंमें न पाये जायें जैसे खेलना गुण जीवमें ही पाया जाता है, पुद्गल आदिमें नहीं अतः यह जीवद्रव्यका विशेष गुण है, मूर्तिमत्त्व पुद्गलमें ही पाया जाता है औरोंमें नहीं, अतः यह पुद्गल का ही विशेष गुण हैं, इत्यादि ।



पर्याय भी दो तरह की होती है। एक व्यंजन पर्याय और दूसरी अर्थ पर्याय । प्रधानतया प्रदेशत्वगुणके परिणमनका नाम व्यंजन पर्याय है और अन्य सब गुणोंके परिणमनका नाम अर्थपर्याय है। ऐसा जैन सिद्धान्त प्रवेशिकामें लिखा है। गुणकी प्रधानतासे वस्तु का ध्रुवत्व माना गया है। पर्यायकी प्रधानतासे उत्पाद और व्यय माने गये हैं। द्रव्यका यह लक्षण आचार्य महाराजने आत्मभूत कहा है। दण्डीके लक्षण दण्ड की तरह भिन्न न होकर अग्निके लक्षण उष्णपनेकी तरह द्रव्यसे अभिन्न है।


द्रव्य स्वयं ही अपने पूर्वपर्यायके रूपमें नष्ट और तदुत्तर पर्यायके रूपमें उत्पन्न होता हुआ अपने गुणोंमें रूपमें ध्रुव रहता है। ये तीनों बातें द्रव्यमें सदा एक साथ होती हैं, अतः ये स्वभाव और द्रव्य इनके द्वारा स्वभाववान है। अपने अपने गुण पर्यायों के द्वारा प्रत्येक द्रव्य भिन्न होकर भी सत्ता सामान्य द्वारा सब आपसमें एकता रखते हैं
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