प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 13 द्रव्य की सत्ता शाश्वत है
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार : ज्ञेयतत्त्वाधिकार

गाथा -13 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -115 (आचार्य प्रभाचंद्र  की टीका अनुसार )


ण हयदि जदि सहव्वं असद्धवं हवदितं कहं दव्वं /
हवदि पुणो अण्णं वा तम्हा दव्वं सयं सत्ता // 13 //

आगे सत्ता और द्रव्यका अभेद . दिखलाते हैं—[यदि] जो [द्रव्यं] गुणपर्यायात्मक वस्तु [सत्] अस्तित्वरूप [न भवति] नहीं हो [तदा] तो [ध्रुवं] ध्रुव अर्थात् निश्चित सत्तारूप वस्तु [असत् ] अवस्तुरूप [भवति हो जावे, तथा [तत्] वह सत्ता रहित वस्तु [द्रव्यं] द्रव्य स्वरूप. [कथं] कैसे [भवति होवे, [वा] अथवा [पुनः] फिर [अन्यत्] सत्तासे भिन्न द्रव्य [भवति] होवे / तस्मात इस कारण [द्रव्यं] द्रव्य स्वयं सत्ता] आप ही सत्तास्वरूप है, भेद नहीं है।

 भावार्थ-जो द्रव्य सत्तारूप न होवे, तो दोष आते हैं / या तो द्रव्य असत् होता है, या सत्तासे जुदा होता है। परंतु जो द्रव्य असत् होगा, तो सत्ताके विना ध्रुव नहीं होगा, जिससे कि द्रव्यके नाशका प्रसंग आ जावेगा / और यदि सत्तासे द्रव्य पृथक् हो, तो द्रव्य सत्ताके विना भी अपने स्वरूपको धारण करे, जिससे कि सत्ताका कुछ प्रयोजन ही न रहे, क्योंकि सत्ताका कार्य यही है, कि द्रव्यके स्वरूपका अस्तित्व करे, सो यदि द्रव्य ही अपने स्वरूपको जुदा धारण करेगा, तो सत्ताका फिर प्रयोजन ही क्या रहेगा ? इस न्यायसे सत्ताका नाश होगा / परंतु जो द्रव्य सत्तारूप होगा, तो द्रव्य ध्रुव होगा, जिसके होनेसे द्रव्यका नाश न होगा / यदि सत्तासे द्रव्य पृथक् नहीं होगा, तो द्रव्य अपने स्वरूपको धारण करता हुआ, सत्ताके प्रयोजनको प्रगट करेगा, और सत्ताका नाश न होगा। इसलिये द्रव्य सत्रूप है / द्रव्य गुणी है, सत्ता गुण है / गुण-गुणीमें प्रदेश-भेद नहीं है, एक ही हैं 

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार
होता न द्रव्य यदि सत् मत हो तुम्हारा , कैसा बने ध्रुव असत् वह द्रव्य प्यारा ।
या सत्त्व से यदि निरा वह द्रव्य होवे , सत्ता स्वयं इसलिए फिर क्यों न होवे ll

अन्वयार्थ - ( जदि ) यदि ( दवं ) द्रव्य ( सद् ण हवदि ) स्वरूप से ही सत् न हो तो ( धुवं असद् हवदि ) निश्चय से यह असत् होगा ; ( तं कधं दवं ) जो असत् होगा वह द्रव्य कैसे हो सकता । है ? ( वा पुणो ) अथवा फिर वह द्रव्य ( अण्णं हवदि ) सत्ता से अलग होगा । ( चूँकि ये दोनों बातें नहीं हो सकतीं ) ( तम्हा ) इस कारण ( दव्वं सयं ) द्रव्य स्वयं ही ( सत्ता ) सत्तास्वरूप है


Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
Email: manish@frontdesk.co.in
Tel: +91 141 6693948
Reply
#2

द्रव्य की सत्ता शाश्वत होती है

‘ण हवदि जदि सद्दव्वं ’ यदि द्रव्य सत् रूप नहीं होता है, ‘असध्दु ्दुवं हवदि तं कधं दव्वं ’ फिर वह द्रव्य असत् रूप हो जाय ेगा और वह ध्रुव रूप कभी नहीं रहेगा या नि श्चि त ही वह द्रव्य असत् ही हो जाएगा। ऐसा असत् हुआ द्रव्य फिर द्रव्य ही कैसे रह जाय ेगा? क्या कहना चाह रहे हैं? कोई भी द्रव्य होता है, वह द्रव्य सत् रूप ही होता है। यह बहुत बड़ी बात होती है कि हम द्रव्य के सत् को स्वी कार करें, उसके अस्तित्व को स्वी कार करें। द्रव्य के existence को जब तक हम नहीं स्वी कारते हैं तब तक हम कभी भी यह बात नहीं मान पाएँगे कि वह द्रव्य स्थि र है या वह द्रव्य हमेशा बना रहता है। क्योंकि उस द्रव्य की existence ही एक ऐसी quality है जो उस द्रव्य के शाश्वतता को बताने वा ली है, उस द्रव्य की सत्ता को हमेशा बनाय े रखने वा ली है। आचार्य कहते हैं कि द्रव्य के अन्दर का सत् भाव , वह ी उसके अस्तित्व को बनाता है और वह सत्ता भी एक तरह से उस द्रव्य का गुण है। जैसे हम अन्य अनेक गुणों की व्याख्या सुनते हैं वैसे ही सत् रूप होना, अस्ति रूप होना, यह हर द्रव्य का अपना एक स्व भाव है, उसका अपना own nature है। अतः जो अस्तित्व है, उस अस्तित्व को उस स्व भाव के रूप में हम स्वी कार करें क्योंकि कोई भी पदार्थ है, अगर उसमें सत् पना हमें दिखाई देगा तो ही हम उस पदार्थ के साथ में कुछ भी लेन-देन कर पाएँगे। अगर उस पदार्थ में सत् रूप existence रूप में quality नहीं होगी तो हम उसके साथ में कुछ भी लेन-देन, कोई व्यवहा र नहीं कर पाएँगे। यह हमें देखने मे आता है कि हम अपने सारे व्यवहा र इसी भाव से करते हैं लेकि न फिर भी हम उस द्रव्य के अन्दर के इस गुण को स्वी कार नहीं कर पाते हैं, उसके अस्तित्व को या सत्ता को नहीं मान पाते हैं। उसी चीज को यहा ँ कहा जा रहा है कि अगर हम यह मान ले कि द्रव्य स्व रूप से माने nature से सत् रूप नहीं है, तो फिर वह
असत् रूप हो जाएगा। असत् माने जिसका कोई existence नहीं है। वह फिर द्रव्य ही कैसे कहलाय ेगा? यानि द्रव्य में सत् होना यह उसका अपना nature है और जो nature होता है, उसमें कोई argument नहीं होता है। argument कहा ँ तक चलता है? जो चीजें natural नहीं हैं। जो natural process से चल रही हैं, उनमें कोई argument नहीं होता। इसी बात को जैन आचार्यों ने कहा :- ‘स्वभावो अतर्कः र्कः र्कः गोचरः’ कि सी चीज का जो स्व भाव है, वह उसका अपना भाव है। क्योंकि कोई भी पदार्थ होगा, उसका अपना भाव तो होगा। बि ना भाव के कोई पदार्थ बनता ही नहीं। वह स्व भाव ही उसका यह nature है और जो nature है, वह कभी भी उसका change नहीं हो सकता। उसका कभी भी destruction नहीं हो सकता और उसका कोई भी construction भी नहीं हो सकता है।

अस्ति स्वभाव क्या है?
Nature को जानने पर हम उस द्रव्य को सत् रूप समझ सकते हैं कि सत् आखि र क्या चीज़ है? जो उस द्रव्य का अस्तित्व बना रहता है, वह अस्तित्व भाव ही उसका सत् भाव है और वह उसका स्व भाव है, उसका अपना nature है। इसको जानकर हम यह जान सकते हैं कि हर द्रव्य जो है वो अपने स्व भाव से है, उसको कि सी ने किया नहीं है। अस्ति स्व भाव इसी को बोलते हैं। अस्ति का मतलब हर द्रव्य अपने अन्दर एक अस्ति माने है, अपने existence, nature को रखने वा ला है। अतः यह जो उसका अस्ति स्व भाव है, यह ी उस द्रव्य को बनाय े रखता है। अगर अस्ति स्व भाव नहीं मानेंगे तो वह द्रव्य ही नहीं रहेगा और जब द्रव्य ही नहीं होगा तो फिर हम लेन-देन व्यवहा र कि ससे करेंगे? कुछ ऐसे भी लोग हैं दुनिया में, जो द्रव्य को नहीं मानते हैं। समझ आ रहा है? बस! जो कुछ भी है वह पर्याय की तरह ही सब कुछ है और सब क्ष णभंगुर है। ऐसा भी एक मत है, बहुत बड़ा मत फैला हुआ है दुनिया में, जो द्रव्य को मानता ही नहीं है। द्रव्य को सत् मानता ही नहीं कि द्रव्य सत् होता है। वह तो कहता है, जो कुछ भी है सब असत् होता है। यहा ँ कि सी चीज पर जोर डाला जा रहा है, तो आप समझो इसके पीछे बहुत बड़ी thinking रहती है और यह philosophy अगर अपनी thinking मे रहेगी तो ही हम दूसरी philosophy से अपने आपको या तो सही ढंग से बचा पाएँगे या सही ढंग से उसको समझकर हम गलत समझ पाएँगे क्योंकि जो logic है, वह यह ी कहता है कि अगर कोई चीज है, तो उसमें सत् स्व भाव तो होना ही चाहि ए। existence हमें अगर कि सी चीज का दिखाई दे रहा है, फिर भी हम कहे कि यह नहीं है। एक धर्म है ऐसा, पूरा ऐसा सम्प्रदाय है जो हर चीज़ को नकारता है। जैसे- उससे कहा जाए यह कि ताब है, तो वह कहेगा कि नहीं, यह कि ताब नहीं है। समझ आ रहा है न? वह यह यूँ नहीं कहेगा कि वह कि ताब है। वह क्या कहेगा? कि कपड़ा नहीं है, यह पि च्छी नहीं है, यह लोहा नहीं है, यह चटाई नहीं है। यूँ नहीं कहेगा कि यह क्या है? हा ँ! यह एक धर्म ही है और एक धर्म उसके हमेशा असत् स्व भाव को ही बताएगा। यह नहीं है, यह नहीं है, यह नहीं है। हर चीज में नकारता, हर चीज में असत् भाव , वह फैलाता है। इसलि ए यहा ँ जो आपसे बार-बार कहा जा रहा है, वह आपकी धारणा में है कि जो चीज द्रव्य के रूप में हम स्वी कार कर रहे हैं तो उसे हमें सत् रूप में ही स्वी कार करना होगा। अगर हम उसको सत् नहीं मानेंगे तो हमारा कोई भी व्यवहा र क्या बनेगा? आज आपसे कि सी ने कोई चीज़ उधार ले लिया और उनका कहना है कि हर समय पर हर क्ष ण पर नया द्रव्य बन जाता है। कल आपके पास फिर वह ी ग्राह क आया । आपने कहा , भाई! कल उधार ले गया था , आज लौटा दे। कल तू कह रहा था कि पैसा नहीं है। आज है, तो दे-दो। वह कहेगा- कल का मतलब?, कल कौन आया था तुम्हा रे पास? बोले, तू ही तो आया था । बोले, मैं तो वह हो ही नहीं सकता। मेरा तो द्रव्य बदल गया । जो मैं कल था आज वह हूँ ही नहीं और तुम भी हमसे जो माँग रहे हो, जो तुम कल थे वह हमें आज दिख ही नहीं रहे हो, सब बदल गया । कौन कि सको देगा? कौन कि ससे लेगा? कोई भी व्यवहा र चल रहा है, तो कि सी भी व्यवहा र को जैनाचार्यों ने कभी भी मि थ्या नहीं कहा । हर व्यवहा र को भी उन्हों ने कि सी न कि सी नय से सत्य घोषि त किया है।
संसार असत्य नहीं सत्य है
कोई भी व्यवहा र, चाह े हम कोई लेन-देन करते है, खान-पीन करते है, आपस में रोटी-बेटी का व्यवहा र करते हैं, कि सी भी तरह का हम कोई भी व्यवहा र करते हैं, हर व्यवहा र जैनाचार्यों की दृष्टि में सत्य कहा गया है। समझ आ रहा है? संसार भी माया नहीं कही गयी है। दूसरे लोगो ने संसार को क्या बोला? यह माया है, यह झूठ है, माया का मतलब क्या हो गया ? झूठ है। जैन आचार्यों ने कभी संसार को माया नहीं कहा । यह बहुत बड़ा अन्तर समझ कर चलना। कोई कहता है संसार मे हर चीज क्षणि क है, असत्य है, कुछ टिकता ही नहीं है, तो वो सत् को नहीं मान रहे हैं। एक कह रहा है- संसार मे सब कुछ माया है, झूठ है, कहीं कुछ नहीं है, सत्यता कुछ नहीं है। लेकि न जैनाचार्यों ने हर एक चीज को जो जिस रूप में है, जो जिस नय के हि साब से है, उसको उस नय के साथ सत्य माना है। संसार भी है, झूठ नहीं है। अगर संसार झूठ हो जाय ेगा तो फिर संसार से मुक्ति पाने के लि ए हमें झूठ के साथ में क्या उपाय करना? जब संसार झूठ ही है, तो फिर हमें मुक्ति कि ससे प्राप्त करना? जो चीज standing की position में नहीं है, कही stand नहीं कर रही है, तो हम उससे हटे कैसे? नहीं है, तो नहीं है। जब है तभी तो हटना पड़ेगा। संसार भी अपने आप में सत्य है, यह समझने की बात है। शरीर भी मि ला है, तो वह भी सत्य है। हमारा संसार, शरीर के साथ जो सम्बन्ध बन रहा है, वह भी सत्य है। हमारे अन्दर कषाय भाव आता है, अहंकार, ममकार का भाव आता है, वह भी सत्य है। अगर ये सब हम सत्य नहीं मानेंगे तो फिर हम अलग कि ससे होंगे? जिस चीज का अस्तित्व ही नहीं है, झूठ है, तो उससे हम अलग कैसे हो सकते हैं, अगर उसकी कोई स्थिति ही नहीं हैं। कि सी चीज की स्थिति है तभी हम वहा ँ से हटकर एक दूसरी स्थिति मे पहुँ च सकते हैं। जिस तरह से मोक्ष की स्थिति सत् रूप है, सत्य है वैसे ही संसार की स्थिति भी सत् रूप है, सत्य है। समझ आ रहा है? सत् का मतलब सत्य से भी समझ सकते हो। क्योंकि जिसका अस्तित्व है, हर पदार्थ का अस्तित्व स्वी कार किया जैन आचार्यों ने। पुद्गल को पुद्गल के रूप मे स्वी कार किया है, चेतन को चेतन के रूप में स्वी कार किया । पदार्थ के अस्तित्व के बि ना हम कभी भी, कोई भी या त्रा शुरू कर ही नहीं सकते है। अगर एकान्त रूप से हम पदार्थ के अस्तित्व को नकारते रहेगें तो कभी भी हम पदार्थ के साथ में कोई भी व्यवहा र कर ही नहीं पाएँगे। कि सी भी पदार्थ का कोई धर्म ही नहीं होगा। हर कि सी पदार्थ का अस्तित्व ही नहीं है, तो कि सको छोड़ना? कि सको ग्रह ण करना? कि ससे उपकार करना? कि ससे अपकार होना? कुछ भी नहीं होगा। हर चीज का अस्तित्व पहले स्वी कार करो। जैन दर्श न में जितने भी पदार्थ हैं, दुनिया के अन्दर हमें हर चीज का अस्तित्व पहले स्वी कार करना सि खाते हैं। जब तुम्हें सबका अस्तित्व स्वी कार होगा तब तुम्हें तुम्हा रा अस्तित्व स्वी कार करने में आएगा। हम कि सी भी चीज का बाह र से अस्तित्व स्वी कार ही नहीं कर रहे हैं। संसार एक माया है, माया माने एक भ्रम है। समझ आया न? कि सको भ्रम कह रहे हैं? अन्य जो वेदान्ती लोग होते है, वे कि सको बोलते हैं? संसार को ही भ्रम बोलते हैं। अरे! भ्रम संसार में है कि भ्रम हमारे भीतर है। अगर संसार में भ्रम है, तो क्या संसार को हटाते फिरेंगे। माया यहा ँ फैली है, तो हम माया को हटाएँगे क्या ? अंधकार यहा ँ फैला है, तो फिर हम अंधकार को हटाएँगे क्या ? संसार माया है, संसार झूठा है, संसार भ्रम है। एक जैनी भी कह सकता है, एक non-जैन भी कह सकता है लेकि न दोनों के कहने में अन्तर बहुत बड़ा रहता है। जैन भी कहेगा हा ँ! संसार, भाई कुछ नहीं रखा, संसार असार है, संसार झूठ है, संसार एक भ्रम है लेकि न उसके लि ए भ्रम वैसा नहीं होगा जैसा दूसरे लोग कह रहे हैं। दूसरे लोग क्या कहते हैं? संसार एक भ्रम है, संसार एक माया जाल है, संसार सिर्फ सिर्फ एक माया का ही रूप है, बस माया है संसार में और कुछ नहीं है। माने जैसे आप बैठे हो तो आप जीव द्रव्य नहीं हो, आपके साथ जुड़े हुए कोई भी अजीव द्रव्य कुछ नहीं है, सब माया है। हमारे लि ए आप माया है, आपके लि ए हम माया है क्योंकि आपको हमें हटाना है, हमारी माया से बचना है, हमें आपकी माया से बचना है। अतः संसार में सब माया हो गयी और जब सब माया हो गयी माने सब भ्रम हो गया । सब भ्रम हो गया तो सब झूठ हो गया । सब झूठ हो गया तो अब कि स पर विश्वा स किया जाए? जब सब झूठ ही है, तो फिर हम यूँ कहेंगे कि यहा ँ पर कोई तुमको शि क्षा देने वा ला गुरु हैं, तो वह भी तो संसार में है। तुम्हा रा जो शास्त्र है, वह भी तो संसार में है। जब संसार ही पूरी माया हो गयी तो फिर शास्त्र भी माया में ही आ गए, गुरु भी माया में ही आ गए। तुम्हा री जो साधना की प्रक्रिया है, वह भी माया में आ गयी। तुम्हा रा जो भगवा न है, वह भी माया में ही आ गया । सब माया ही माया है, तो फिर अब माया से बचोगे कैसे? जब सब भ्रम ही भ्रम है चारों तरफ तो भ्रम रहि त रहोगे कैसे? एक चीज समझने की है। बातें वह ी रहती हैं लेकि न logically इतना बड़ा difference रहता है कि अगर हम कि सी के उस perspective को न समझें कि वह क्या बोलने जा रहा है, क्यों बोल रहा है तो आप कभी भी कि सी की बात को सही ढंग से स्वी कार कर ही नहीं सकते। एक जैन भी कहेगा कि हा ँ! संसार एक माया है। भाई! संसार में कुछ नहीं रखा, नि स्सा र है, असार है, झूठ है। सब देख लिया , रि श्ते-नाते सब स्वा र्थ के हैं। जैन भी बोलता है कि नहीं बोलता है। एक अजैन भी बोलेगा ब्रह्मवा दी जिसको बोलते हैं, जो ब्रह्मा को मानने वा ला होगा, वह भी कहेगा कि संसार एक माया है। लेकि न दोनों की धारणा में बहुत बड़ा अन्तर है। वह संसार को झूठ कह रहा है, मायाव ी कह रहा है, तो वह संसार को केवल माया रूप ही देख रहा है, उसमें कुछ भी सत्य नहीं देख रहा है। लेकि न जो जैन होगा वो अनेकान्तवा दी होगा, वह संसार को सत्य रूप भी जानता है, असत्य रूप भी जानता है।
संसार के अस्तित्व के बि ना मोक्ष सम्भव नहीं हो सकता
एकान्त रूप से अगर संसार उसके लि ए असत्य हो गया , असत् हो गया तो संसार का ही अस्तित्व नहीं रहा । जब संसार का ही अस्तित्व नहीं है, तो मोक्ष का अस्तित्व कहा ँ से सि द्ध होगा। क्या समझ आया ? जब संसार का ही अस्तित्व नहीं है, तो मोक्ष कहा ँ से आएगा। जब बंध ही नहीं है, तो मोक्ष कहा ँ होगा। कोई चीज बंधी है तभी तो हम उसको अलग करेंगे। बंधन वा ली चीज को हम कहें कि यह भ्रम है, यह बंधी नहीं है। हम उसको एकान्त रूप से भ्रम ही मान ले, माया ही मान ले तो फिर अलग क्या करना है? भ्रम था हमने जान लिया , अलग हो गया । इतना ही कहना था कि आपको पता नहीं था , यह भ्रम है। ठीक है! हमने जान लिया , हो गए हम मुक्त अगर इतने ही भ्रम से मुक्त हो जाना है। ऐसा कभी होता नहीं। कोई भी चीज को जब तक हम गहराई से नहीं समझते तब तक हम मि थ्या मान्यताओं में पड़े ही रहते हैं। हमारे पास आज न इतनी बुद्धि है, न इतना समय है कि हम सब मि थ्या मान्यताओं को पढ़ सके और समझ सके। आपको थोड़ा-थोड़ा बताते हैं, उसी में घूम जाते हैं और ये सब मि थ्या मान्यता अपने आस-पास घूमती रहती है। हर कोई आपसे कहेगा। अगर कोई अजैन भी आपसे कहेगा कि देखो भाई संसार तो माया है, सब स्वा र्थ का है, कुछ भी सत्य नहीं है। आप एकदम बोलेंगे हा ँ! बात तो एकदम सही है, हमारे महा राज जी भी यह ी समझाते हैं। समझ आ रहा है न? लेकि न दोनों की माया में बहुत बड़ा अन्तर है। यह कि सी को नहीं मालूम होगा। एक जो माया कह रहा है, माया ही कह रहा है माने माया ही उसका स्व रूप मान कर रखा है। इसका स्व रूप क्या है? माया है। माने यहा ँ पर कुछ सत् है ही नहीं, existence कि सी चीज का है ही नहीं। सब कुछ माया है, सब भ्रम ही भ्रम है। ऐसा मानेंगे तब तो फिर संसार में जो कुछ भी देख रहे हो, वह भी सत् नहीं हुआ। जो हमारे लिय े कुछ भी भोग-उपभोग की सामग्री है, वह भी सत् नहीं। कोई भी सम्बन्ध हमारा सत्त नहीं। फिर हम कि सी भी तरीके से अपने आप को उस सत् के रूप में कैसे स्वी कार करेंगे। जब संसार में कुछ भी सत् नहीं तो हम भी कहा ँ से सत् हो गए? क्योंकि हम भी इसी संसार में ही हैं न। जब सब माया है, तो हम भी उसी माया में ही हो गए तो भी माया हो गए। अब कौन, कि सकी माया को छोड़े? समझ आ रहा है? इसलि ए जैनाचार्यों की भाषा समझना अनेकान्त दर्श न के माध्य म से ही सम्भव है। वे अगर माया भी कहेंगे तो उनके लि ए सही होगा। क्योंकि माया का मतलब यह है कि जैसे माया में हमें कुछ दिखाई नहीं देता, ऐसे ही छल-कपट के कारण से व्यक्ति के अन्दर का सत्य हमें नहीं दिखाई देता, इसलि ए माया है। जब कोई आपको ठग लेता है, आपको धोखा देता है उस समय आपके लि ए यह भाव ज़रूर आता है कि भाई यह संसार ऐसा ही है। सब संसार में ऐसे ही लोग हैं, देख लिया मैंने। दुनिया के हर एक चेहरे को देख चुका हूँ, सब जानता हूँ, हर आदमी से पूछो यह ी बोलेगा। ये बाल ऐसे ही नहीं पक गए, ये बाल धूप में नहीं पक गए हैं, क्या बोलता है आदमी? मतलब सब दुनिया देखी है, सब मालूम है कौन चिड़िया कि स दिशा में उड़ रही है? यह तब होता है जब आदमी के दिमाग में कि सी ने यह बैठा दिया हो या उसके दिमाग में यह आ गया हो कि भाई दुनिया में सब कोई धोखा ही देने वा ले हैं, सब कोई छल-कपट करने वा ले हैं। कि सी के ऊपर विश्वा स नहीं किया जा सकता। तब वह आदमी इस तरह की अपनी धारणा बना लेता है लेकि न उसकी धारणा बनाने के बाद भी आखि र सत् तो सत् ही रहता है न। जो जीव है, वह तो जीव ही रहेगा। जो अजीव है, वह तो अजीव ही रहेगा। हम सब कुछ माया के अंधकार में नहीं डाल सकते और अगर सबको हम एक माया के अंधकार में पटक देंगे तो सभी जीव उसमें आ गए। सभी जीव माया हो गए। फिर वे जीव उस माया में से कैसे नि कलेंगे? हम भी तो उसी माया में हैं। हम उसमें से कैसे नि कलेंगे? संसार एक माया है, ऐसा कहना भी एक बहुत बड़ी माया है। हा ँ! अगर हम सत् नहीं मानेंगे, कि सी भी substance का existence जब तक हम स्वी कार नहीं करेंगे तब तक हम कभी भी संसार के भी सही स्व रूप को समझ नहीं पाएँगे। इसलि ए आचार्य कहते हैं कि संसार को भी समझो, मोक्ष जाने की जल्दी मत करो।
संसार को यथार्थ समझने से ही सम्यग्दर्श न होगा
संसार को समझो पहले। अभी तक हमने संसार को भी यथा र्थ नहीं समझा है। अगर संसार को यथा र्थ समझा होता तब तो हमें ये द्रव्य, गुण, पर्याय की सब व्यवस्था पहले से ही मालूम होती। हम मोह में पड़ते ही नहीं। संसार को यथा र्थ समझने से ही पहले सम्यग्दर्श न होता है। क्या सुन रहे हो? सबसे पहले सम्यग्दर्श न होगा तो उसकी शुरूआत यथा र्थ रूप से संसार को समझने से ही होगी। मोक्ष को बाद में समझना। पहले क्या समझना? संसार में क्या -क्या है, पहले ये तो समझ लो। संसार में क्या -क्या है और हम संसार में क्या हैं और कहा ँ हैं? इसलि ए आचार्य कहते हैं- ‘त्रै काल्यं द्रव्य-षट्कं ्कं नव-पद-सहितं-जीव षट्का य-लेश्याः ’। इन्द्रभूति से प्रश्न पूछा गया था तो यह ी पूछा था देव ने- बताओ? तीन काल कौन से और छह द्रव्य कौन से हैं? छह द्रव्य का मतलब क्या हो गया ? त्रै काल्यं माने तीन काल कौन से हैं? षटद्रव्य- छह द्रव्य कौन से हैं? तो सब कुछ मालूम है उसको। अब उसको क्या मालूम है? मैं ब्रह्म का अंश हूँ, बाकी सब संसार माया है, तो अब ये छः द्रव्य कहा ँ से आ गए। ये तो हमने कहीं पढ़ा ही नहीं है। हम सब ब्रह्म के अंश हैं और जो संसार हमें दिखाई दे रहा है, वह सब भ्रम है। एक भ्रम में है, एक ब्रह्म है, बस और कुछ तीसरी चीज नहीं है। एक ब्रह्म हो गया , एक भ्रम हो गया । एक ब्रह्म और एक भ्रम। pronounciation समझ में आ रहा है न? देखो कि तना सा अन्तर है, एक ब्रह्म और भ्रम। बस ‘ब’ की जगह ‘भ’ ही तो हुआ और क्या हुआ? बस जो ब्रह्म है, वह मैं हूँ और जो भ्रम है वह संसार है और कुछ नहीं है। दुनिया में जो मेरे पास है, वह ब्रह्म का अंश है। अगर मैंने अपने आप को ब्रह्म स्व रूप मान लिया तो बस यह ीं हमारे लि ए सब कुछ मि ल गया और यह ी मान लेना ईश्वर को मान लेना है और ईश्वर की सत्ता को स्वी कार कर लेना है। बाकी सब क्या है? भ्रम है, भ्रम। जब हमारे अन्दर केवल यह भ्रम और ब्रह्म के बीच का ही ज्ञा न रहा तो उसमें छः द्रव्य आए कहा ँ से? कि तुम जीव हो, ये अजीव है, कोई आकाश है, कोई काल है, धर्म है, अधर्म है, कुछ भी नहीं है। बस एक भ्रम है और एक ब्रह्म है। अगर इसी दृष्टि से देखो तो यह सारा संसार छः द्रव्यों से भरा हुआ है। ये सब क्या हो गया ? भ्रम हो गया । समझ आ रहा है?
Reply
#3

सबसे पहले सम्यग्दर्श न होगा तो व्यवहार सम्यग्दर्श न होगा
जैन आचार्य क्या कह रहे हैं? अगर आपको सबसे पहले सम्यग्दर्श न होगा तो व्यवहा र सम्यग्दर्श न होगा। नि श्चय पहले नहीं होता। कान खोल कर सुन लेना, कि ताब में पढ़ा हुआ है, तो उसको underline कर लेना और नहीं लि खा हुआ हो तो copy में लि ख लेना। जिन कि ताबों में यह लि खा है कि नि श्चय पहले होता है, व्यवहा र बाद में होता है, तो उन कि ताबों को पढ़ना बन्द कर देना। सुन रहे हो? सबसे पहले व्यवहा र सम्यग्दर्श न। इन्द्रभूति को भी हुआ, सबसे पहले तो यह ी प्रश्न पूछा गया और यह ी हुआ। त्रै काल्यं द्रव्य-षट्कं ्कं , पहले यह बताओ कि तीन काल कौन से है? समझ आ रहा ? उसने तो वे सुन रखे थे त्रा ता, योग, त्रेपर, द्वा पर, सतयुग, कलयुग, ये तीन कहा ँ से आ गए? और छ: द्रव्य, द्रव्य तो एक ही है, ‘एकं सत् द्वि तीयो नास्ति, एकं ब्रह्मा द्वि तीयो नास्ति’, यह सुन रखा था उसने। बस! एक ब्रह्मा के अलावा कुछ है ही नहीं दुनिया में। छ: चीजें कहा ँ से आ गई? जब उसके सामने प्रश्न उठा तब उसके दिमाग में आया कि कहीं कुछ है, जो अभी हमारे ज्ञा न में नहीं है। जब वह समवशरण में गया और उसने भगवा न के दर्श न कि ए तो उसके अन्दर अपने आप यह ज्ञा न आ गया कि हमें पहले भगवा न को यथा र्थ रूप में स्वी कार कर लेना है। यह माया नहीं है, जो हमें अब दिखाई दे रही है। समझ आ रहा है न? अभी तक संसार माया थी लेकि न उसी संसार में समवशरण है। अब यह समवशरण माया नहीं है। अगर उसके लिय े समवशरण भी माया दिखाई देगा तो सम्यग्दर्श न नहीं होगा। जब उसने देख लिया कि यह माया नहीं है, यह यथा र्थ है। जिनबि म्ब को देखने से उसको पहले जो सम्यग्दर्श न हुआ, उसको आचार्य कहते हैं- उपशम सम्यग्दर्श न। वह सबसे पहले होता है तो इन्हीं छ: द्रव्यों पर विश्वा स करने से होता है और वह छ: द्रव्यों का विश्वा स इसी रूप में आ जाता है कि नहीं! यहा ँ पर जीव द्रव्य भी है, अजीव द्रव्य भी है। यहा ँ पर पुद्गल भी है, धर्म , अधर्म , आकाश, काल सब हैं। इन द्रव्यों पर विश्वा स करो माने दुनिया पर विश्वा स करो पहले। अपनी आत्मा का विश्वा स बाद में करना और दुनिया के विश्वा स करने का नाम ही व्यवहा र सम्यग्दर्श न है। व्यवहा र क्योंकि पर के आश्रि त है, तो हमने पर का आश्रय लिया न। सबसे पहले छ: द्रव्यों पर विश्वा स करने से सम्यग्दर्श न होगा। आत्म द्रव्य पर विश्वा स करने से नहीं होगा। हा ँ! जिन ग्र न्थों में आत्म द्रव्य की विश्वा स की बात है, वह तब की है जब पहले आपने छ: द्रव्यों पर कर लिया हो। उसके बाद में उनको पढ़ना। हा ँ! अब आत्म द्रव्य पर विश्वा स करो, अब आत्म तत्व पर विश्वा स करो। पहले कि स पर करना? पहले छ: द्रव्यों पर विश्वा स करो, पहले दुनिया की बात पर विश्वा स करो। आज तक तुम दुनिया में घूम रहे हो, पर्याय मूढ़ होकर घूम रहे हो। द्रव्य तुमने जाना कहा ँ? हा ँ! पर्याय को ही पकड़ते रहे, पर्याय को ही जानते रहे, पर्याय से ही अपना सब कुछ लेन-देन करते रहे। तुमने द्रव्य जाना ही कहा ँ? एकदम से ज्ञा न हुआ हमें सम्यग्दर्श न होना चाहि ए। सम्यग्दर्श न होते ही तुम्हा रे अन्दर भाव आ गया कि पहले मुझे आत्म दर्श न हो जाए। अरे! भले आदमी पहले ही तुझे आत्मदर्श न हो गया तो तू सर्वज्ञ पहले ही बन गया । श्रद्धा न तुझे अभी कुछ हुआ नहीं, सर्व दर्शी तू पहले बन गया । आत्मदर्शी माने सर्व दर्शी । जिसे आत्मा का दर्श न हो गया , आत्मा का ज्ञा न हो गया माने केवलज्ञा न हो गया । पहले वह नहीं करो। पहले क्या करो? पहले यथा र्थ को समझो। आँख खोलकर जो हम दुनिया देख रहे है न, इसका पहले अस्तित्व स्वी कार करो। इसका अस्तित्व एक रूप के साथ है कि अन्य रूपों के साथ है। एक रूप है कि छह द्रव्यों के रूप में है। इस पहले अस्तित्व को यथा र्थ मानो। पहले संसार का सही विश्वा स करो। इसका नाम है व्यवहा र सम्यग्दर्श न और यह व्यवहा र सम्यग्दर्श न गलत नहीं होता है। जो हमें उपशम सम्यग्दर्श न छह द्रव्यों के श्रद्धा न से प्राप्त होगा इसी का नाम व्यवहा र सम्यग्दर्श न कहा जाता है। यह व्यवहा र क्यों है? क्योंकि पर के आश्रि त है, पर यानि क्या ? संसार पर है, छ: द्रव्य हमारा स्व भाव थोड़े ही न है। पुद्गल द्रव्य को पुद्गल द्रव्य मानना, धर्म द्रव्य को धर्म मानना, आकाश को आकाश मानना, काल को काल मानना, हम पर द्रव्य को मान रहे है न। अतः पर द्रव्य के श्रद्धा न के साथ में जो हमारा श्रद्धा न जुड़ा हुआ है, जो समीचीन बन गया है, हमारा श्रद्धा न, अभी तक तो हमने क्या माना था ? दुनिया भ्रम है, माया है। उधर बौद्धों की तरफ चले जाओ ‘सर्व म् क्ष णिकं’- सब कुछ क्षणि क है, सब कुछ क्षणि क है। इधर वेदों की तरफ चले जाओ तो सब ब्रह्म है, सब ब्रह्म है, सब ब्रह्म है और बौद्धों में चले जाओ तो सब क्षणि क है, सब क्षणि क है, सब क्षणि क है। बस इसी में घूमते रहे आप अभी तक। समझ आ रहा न? अब क्या पकड़ना, अब क्या समझना? कुछ क्षणि क है, कुछ ब्रह्म है। दोनों चीजें पकड़ो। समझ आ रहा है? जो क्षणि क है उसको क्षणि क की दृष्टि से देखो। जो सत् है, जो ब्रह्म स्व रूप है, उसको ब्रह्म की दृष्टि से देखो। सब कुछ ब्रह्म स्व रूप नहीं है। अगर सब कुछ ब्रह्म हो जाएगा तो फिर यह कि ताब भी ब्रह्म हो जाएगी, यह कपड़ा भी ब्रह्म हो जाएगा। समझ आ रहा है? ब्रह्म तो चेतना का ही परि णाम है। अजीव द्रव्य को हम ब्रह्म कैसे कह सकते है? अगर हमने सब कुछ ब्रह्म कह दिया तो अजीव द्रव्य भी ब्रह्म हो गया न। फिर तो अजीव और जीव में कोई अन्तर ही नहीं रहेगा। हम अजीव को खा रहे हैं कि जीव को खा रहे हैं। कभी हम यह difference ही नहीं कर सकेंगे। अजीव का भोग कर रहे हैं या जीव का भोग कर रहे हैं। अजीव और जीव के बीच का अन्तर तभी ज्ञा न में आता है जब हम छः द्रव्यों का ज्ञा न करते हैं। इसलि ए सबसे पहले तीर्थं करों ने कहा कि जिस कि सी भी जीव को सम्यग्दर्श न होगा तो वह उसका सबसे पहला व्यवहा र सम्यग्दर्श न होगा। क्यों होगा? क्योंकि एकदम उसका आत्म द्रव्य पर श्रद्धा न नहीं बनेगा। पहले तो उसे श्रद्धा न कहा ँ करना पड़ेगा? जो मैं बता रहा हूँ। तीर्थं कर भगवा न ने पहले छः द्रव्य का व्याख्या न किया है, सात तत्व का व्याख्या न किया है, आत्म तत्व का बाद में। पहले ये जो बाह र की चीजें हैं, पहले वह नि श्चि त कर लो। ये सब हो जाएगा, उसके बाद में अब क्या करना? अब चलो अपनी आत्मा की ओर तब चलो नि श्चय सम्यग्दर्श न की ओर। पहले ही नि श्चय हो गया तो फिर व्यवहा र की जरूरत ही क्या है? नि श्चय में जो केवल अपने आत्म आश्रि त है, स्व द्रव्य के आश्रि त है, वो नि श्चय कहलाता है और जो पर द्रव्य के आश्रि त है वह व्यवहा र कहलाता है। यह आचार्यों की परि भाषा है।
कोई भी व्यवहार अगर झूठा है, तो निश्चय झूठा हो जायेगा
जो श्रद्धा हमारी पर द्रव्यों के आश्रि त है, वह सारी की सारी श्रद्धा अभी यथा र्थ है क्योंकि वह तीर्थं करों के द्वा रा कही हुई वा णी पर विश्वा स करके बनी है। इसलि ए भगवा न की वा णी पर विश्वा स करके जो हमारे अन्दर सम्यग्दर्श न होता है, वह व्यवहा र सम्यग्दर्श न यथा र्थ होता है। कुछ लोग इस व्यवहा र को झूठ बोलते हैं, यह सबसे बड़ा झूठ है। समझ आ रहा है? कुछ लोग व्यवहा र सम्यग्दर्श न को झूठा कहते हैं, अभूतार्थ है, अयथा र्थ है, असत्य है ऐसे शब्दों से नकारते हैं। उन्हें ज्ञा न ही नहीं होता कि व्यवहा र झूठा हो ही कैसे सकता है? कोई भी व्यवहा र झूठा नहीं। व्यवहा र झूठा हो जाएगा तो झूठे से कभी भी सत्य की ओर हम जा ही नहीं सकते। व्यवहा र झूठा हो जाएगा तो नि श्चय भी झूठा हो जाएगा क्योंकि हमें उसी व्यवहा र से नि श्चय को प्राप्त करना है। क्या समझ आ रहा ? संसार अगर झूठा हो गया तो मोक्ष भी झूठा हो गया । बंधन अगर झूठा है, तो फिर मुक्ति भी झूठी है। व्यवहा र अगर झूठा है, तो नि श्चय भी झूठा है। सब कुछ झूठा हो जाएगा। फिर एक और उड़ जाएँगे, फिर सफेद भी नहीं रहेंगे, सब उड़ जाएँगे। कहीं-कहीं, वह ीं-वह ीं पर घुमाते रहते हो महा राज। वह ी सत्, वह ी द्रव्य और कि तने दिन से सब चल रहा है। यथा र्थ को समझने के लि ए कि तना ही हम उसको समझने की कोशि श करें लेकि न जब हम उस चीज का यथा र्थ समझ लेंगे तभी हमें समझ आएगा और उससे पहले हमें वह घूमना जैसा ही लगेगा। यह ध्या न में रखो। इन छः द्रव्यों के अस्तित्व को स्वी कार करना, संसार के द्रव्यों का अस्तित्व को स्वी कार करना, यह हमारे सम्यग्दर्श न का कारण है। तभी जिनवा णी को पढ़ने से सम्यग्दर्श न होगा। प्रवचनसार में यह जो chapter चल रहा है, ज्ञेय तत्व अधि कार का, ज्ञेय की जरूरत क्या है इतना जानने की? ज्ञा न ही ज्ञा न की बात करते, आत्मा ही आत्मा की बात करते, आचार्य कुन्दकुन्द देव जैसे महा न आचार्य, आध्यात्मि क आचार्य जब से और ज्ञेय ों के पीछे पड़े हैं। सुनते-सुनते थक गए हैं, द्रव्य, गुण, पर्याय , वह ी सत्, वह ी असत् हैं। केवल आत्म तत्त्व की बात करते, उन्हें भी सब मालूम है और वह भी यह ी चाह रहे हैं कि आप भी सब कुछ मालूम करो। आप झुठला कर कि भाई! मुझे तो आत्मा की आराधना करनी है, मुझे मतलब नहीं है ज्ञेय से। समझ आ रहा है न? ऐसे भागने वा लों को मोक्ष नहीं मि लता। यह भी ध्या न रखना। भागो नहीं कि सी चीज से, हर चीज़ को स्वी कार करो। जो है सो है। अब इसको जब नकारोगे तो फिर कैसे काम चलेगा? स्वी कार करो। जो जिस रूप में है, उसको उसी रूप में स्वी कार करने का नाम यथा र्थ ज्ञा न इसलि ए कहा गया है। सम्यग्ज्ञा न की कोई परि भाषा नहीं है। सम्यग्ज्ञा न की परि भाषा यह ी है कि ‘यथार्थ परिगमनम्’। मतलब यथा र्थ का ज्ञा न करना बस, इसी का नाम सम्यग्ज्ञा न ज्ञा न है। यथा र्थ क्या है? केवल तुम्हा री आत्मा ही यथा र्थ है, बस? एकदम से हमको अपना कुछ भान हो गया , भाई! हमको तो बस आत्मा का ज्ञा न करना, बस आत्मा ही आत्मा की चर्चा करो, आत्मा ही आत्मा बताओ बस, वो ही यथा र्थ है बाकी सब अयथा र्थ। ऐसा सोचने वा ला भी कभी व्यवहा र सम्यग्दर्श न के लाय क नहीं होगा, नि श्चय की तो बात बहुत दूर की। जब तुझे संसार की वस्तु व्यवस्था ही नहीं मालूम तो तू ध्या न कि स का करेगा?
धर्म ध्या न की उपयोगि ता
अरे! धर्म ध्या न में भी यह ी चिन्तन करना पड़ता है। सबसे पहले धर्म ध्या न का लक्ष ण ‘आज्ञा वि चय’ धर्म ध्या न कहा है और सीधे लोग शुक्ल ध्या न की बातें करते हैं। समझ आ रहा है न? सीधा शुद्धो पयोग होता है। हा ँ! अभी शुभोपयोग के तो लक्ष ण नहीं आए और शुद्धो पयोग की बातें करते है। पहला धर्म ध्या न कि सको कहा है? आज्ञा वि चय धर्म ध्या न। सम्यग्दृष्टि जीव को धर्म ध्या न होता है, तो सबसे पहले कौन-सा होगा? आत्मा का नहीं होता, सबसे पहले आज्ञा -विचय धर्म ध्या न होगा। आज्ञा माने भगवा न जो कह रहे हैं पहले उनकी सुन, उनकी बात को श्रद्धा में लाओ तब धर्म -ध्या न की बातें करना। सीधा-सीधा आत्मा , शुद्धो पयोग, शुद्ध ध्या न, शुद्धो पयोग के बि ना तो कही संसार में कुछ है ही नहीं। सब बंध है, शुभ-अशुभ भाव तो संसार में हमने अनन्त बार कर लि ए हैं। इन सब बातों से कुछ होना नहीं है। तू अपना यथा र्थ देख, कहा ँ stand कर रहा

ह ै। तेरा level क्या है? पहले तू यह तो देख आज ही तेरी आँखें खुली। अभी तक विषया न्ध बना था , अंधकूप में पड़ा था , मोह में पड़ा था और अभी भी पड़ा हुआ है। थोड़े से शास्त्र पढ़ लि ए तो तू अपने आपको सम्यग्दृष्टि समझने लगा। शुद्धो पयोग से नीचे बात ही नहीं होती है। अभी तो आज्ञा विचय धर्म -ध्या न भी करना नहीं आ रहा । आज्ञा विचय का मतलब क्या है? जो भगवा न ने आज्ञा दी है। आज्ञा माने ये छः द्रव्य उन्हों ने अपनी देशना में बताए हैं- इसका नाम आज्ञा है। इसका विचय माने चिन्तन कर, इसी से धर्म ध्या न होगा। आत्मा के चिन्तन से धर्म -ध्या न नहीं हो रहा । छः द्रव्यों का चिन्तन कर पहले। यह तीर्थं करों की आज्ञा है, यह आचार्यों की आज्ञा है। समझ आ रहा है? हमारी आज्ञा नहीं है, मैं तो उनकी भाषा में बोल रहा हूँ। मैं कौन होता हूँ आज्ञा देने वा ला। मुझे जो आज्ञा मि ली है, वह आपके लि ए प्रेषि त कर रहा हूँ। हा ँ! मैं जो यह language बोल रहा हूँ न ‘कर’ मतलब मैं जो आज्ञावा ची बोल रहा हूँ-- यह कर, वह मुझे ऐसे सि खाया गया है। ज्या दा की कोई बात नहीं है लेकि न समझने की बात यह है कि व्यक्ति का भ्रम कि तना बढ़ता जा रहा है। संसार को भी यथा र्थ स्व रूप में समझना नहीं चाह ता और समझ कर भी उसे बिल्कु बिल्कु ल नकारता है। उसकी कोई उपयोगि ता नहीं समझना चाह ता। धर्म -ध्या न में उसकी कोई उपयोगि ता ही समझना नहीं चाह ता। थोड़ा-सा भी ज्ञा न होता है, तो आत्मा -आत्मा दिखने लग जाती है। आत्मा के नीचे कुछ उसको कि सी चीज में interest नहीं आता। अरे भाई! सब चीज को स्वी कार कर, सब चीज का श्रद्धा न कर। नहीं! वह तो मैंने कर लिया । अरे भाई! कैसे कर लिया ? जब तक तूने उसको गुना नहीं, जब तक तूने उसे माना नहीं, जब तक तूने उसको अपने अस्तित्व में स्वी कार किया नहीं तो कैसे कर लिया ? अरे! उससे क्या होना है, काम तो आखि र अपना आत्म तत्त्व ही आना है। इसलि ए आप देख लो पंचास्तिकाय में लि खा है- सब द्रव्य हेय है, आत्म तत्त्व उपादेय है। बस! फिर उसने एक नई चीज और पढ़ ली। अरे भाई! ये सब हेय उपादेय हमें भी मालूम है लेकि न तेरे लि ए सबसे पहले अगर धर्म -ध्या न होगा तो इसी base पर होगा। ज्ञेय तत्वों का पहले सही ढंग से ज्ञा न कर क्योंकि ज्ञेय में तू भी एक ज्ञेय है। जब तुझको सब ज्ञेय सही ढंग से आने लगेंगे तो अपना ज्ञेय भी उसी में आएगा न। जैसे- हमने कहा हे! भगवा न्! सबका कल्या ण हो तो सबका हो। हमारा भी तो हो जाएगा उसी में कि मैं रह जाऊँगा। सबका कल्या ण हो तो मेरा भी हो जाय ेगा। अगर सब ज्ञेय को जान लेगा तो अपने आप को भी जान लेगा। मैं भी एक ज्ञेय हूँ। जैसे हम दूसरे के लि ए जान रहे हैं, दूसरा हमारे लि ए ज्ञेय है वैसे ही मैं भी अपने लि ए ज्ञेय हूँ, दूसरे के लि ए भी ज्ञेय हूँ। ज्ञेय को जाने बि ना ज्ञा ता का ज्ञा न कैसे होगा? छ: द्रव्यों का आज यह व्यक्ति चिन्तन करता ही नहीं। आज्ञा विचय धर्म ध्या न जिन्दगी में कभी किया ही नहीं और अपने को सम्यग्दृष्टि की हूँके मारता फिरता है। शुद्धो पयोग से नीचे बात ही नहीं करता है। कहा ँ से हो जाय ेगा शुद्धो पयोग पहले? शुभोपयोग की सीढ़ी पर तो आया नहीं और शुद्धो पयोग हो गया है। ये छः द्रव्यों का श्रद्धा न, ज्ञा न होने पर ही जब तुझे लगेगा कि अब इन छः द्रव्यों के अस्तित्व के बीच में मुझे अपना ही अस्तित्व केवल ग्रह ण करने योग्य रह गया है क्योंकि मैंने सबका अस्तित्व देख लिया तो क्या मतलब हुआ? तूने सबका अस्तित्व स्वी कार कर लिया , माया नहीं स्वी कार की, सबकी reality स्वी कार की।
भ्रम हमारे अन्दर है, संसार में नहीं
“This world is also real world” मतलब ये कोई artifical चीज नहीं है, संसार कोई illusion नहीं है। illusion हमारा एक कर्म है, illusion हमारी आत्मा में है। संसार को illusion नहीं कहना चाहि ए कि माया जो है, भ्रम जो है, ये सब संसार है। भ्रम हमारे अन्दर है, संसार में भ्रम नहीं हैं। हमारे अन्दर का भ्रम छूटेगा तो तुझे संसार भी भ्रम नहीं लगेगा। संसार, संसार है, जो है सो है। जब तुझे यथा र्थ सब कुछ समझ में आ जाय ेगा तो जो जैसा है उसको वैसा स्वी कार कर लेगा। तुझे कहीं भागने की जरूरत नहीं है। कहीं भी रह जाए, कहीं भी बैठ जाए, वह ीं तेरी आत्मा तेरे साथ है। भाग करके कहीं पर जाना, यह भ्रम के कारण से हो सकता है। लेकि न कभी भी यथा र्थ को पाने के लि ए कुछ भी भागने की जरूरत नहीं पड़ती है। इसलि ए जो व्यक्ति सम्यग्ज्ञा नी हो जाता है वह कहीं पर भी अपने लि ए अपनी आत्मा का ज्ञा न और संसार का ज्ञा न यथा र्थ बनाए रखता है। उसे कि सी भी स्था न के लिय े कोई भी ऐसी निया मकता नहीं होती कि मुझे इसी स्था न पर आत्मा का ज्ञा न होगा और इसी स्था न पर मुझे आत्मा का ध्या न होगा। कहीं नहीं गई आत्मा , कहीं नहीं गया संसार। तू संसार में है और तेरा भी अस्तित्व है, बस! वह ीं जहा ँ अस्तित्व है, वह ीं अपने अस्तित्व को पहचान। भागने की कहीं कोई जरूरत नहीं है, जागने की जरूरत है। क्या समझ आ रहा है? कि सकी जरूरत है? बस!, जहा ँ लेटा पड़ा है न, वह ीं से उठ कर बैठ जा। हा ँ! जहा ँ सोया पड़ा है, वह ीं जाग जा। जहा ँ भ्रम में खोया है, वह ीं से नींद भगा दे। सब कुछ तुझे वह ीं दिखेगा। छः द्रव्यों का पहले चिन्तन करो। आज्ञा विचय धर्म -ध्या न करना है, सबसे पहले धर्म -ध्या न की शुरुआत करना है। क्या कहा है? हा ँ! छः द्रव्यों का चिन्तन।
मोक्ष किसका नाम है? जीव और कर्म का अत्य न्त वि श्लेष हो जाना
भगवा न ऋषभदेव ने भी यह ी कहा है:- ‘जीवमजीवं दव्वं , जि णवरवसहे हेण जेण णिद्दिट्ठं िद्दिट्ठं’ हा ँ! यह ी तो कहा है। दो द्रव्य हम मान नहीं पा रहे हैं, जो कुछ है बस, एक ही एक है। द्रव्य कि तने है? छः हैं। छह तो और classified करके हो जाते हैं लेकि न मूल रूप में कम से कम दो तो मानो। वह दो भी नहीं मान रहा । ‘एको ब्रह्मा , द्विति यो नास्ति’ के अलावा तीसरी कोई बात ही नहीं। ब्रह्मा ही ब्रह्मा है सब जगह। इसलि ए कहा है कि दो द्रव्य मानो। एक जीव द्रव्य है, एक अजीव द्रव्य और ये द्रव्य जबरदस्ती नहीं हैं। आप अपने conscious से खुद सोचो। खुद आपको यह सब देखने में आएगा। जीव, अजीव के अलावा और दिख क्या रहा है? कहा ँ ब्रह्मा दिख रहा है? जीव और अजीव के अलावा हमें दुनिया मे दिखता ही क्या है। जिसमें चेतना है, ज्ञा न दर्श न है, वह जीव है। जिसमें नहीं है, वह अजीव है। कुछ नई बात तो है नहीं, न थोपने की बात है, न जबरदस्ती की बात है। बिल्कु बिल्कु ल यथा र्थ है। अब इसी का नाम संसार है। जो जीव और अजीव दो द्रव्य से मि लकर बना है तो संसार हो गया । संसार से मोक्ष जाना है, तो क्या करना है? जीव में जो अजीव घुस गया है, उसको नि काल देना है। जीव, जीव pure रह जाएगा ‘that is moksha, salvation’। हो गया सब solve। Salvation मतलब सब solve हो गया । बहुत simple ही तो है। स्वी कार करोगे तो सब simple है और नहीं स्वी कार करो तो कुछ भी simple नहीं है। आखि र और क्या है? अब भ्रम है, तो भ्रम कहा ँ है? हमारे कर् मों के कारण से हमारी आत्मा में भ्रम आ रहा न। कर्म क्या हो गया ? अजीव हो गया । जीव में जो अजीव घुस कर बैठा है न, उसने सब मटिया मेट कर रखा है। उसने जीव को जीव नहीं मान कर रखा, उसने जीव को बिल्कु बिल्कु ल भ्रम में डाल कर रखा। जीव को अनेक मान्यताओं में डाल कर रखा। कि सने? जो हमारा कर्म है। वह कर्म भी क्या है? वह अजीव द्रव्य ही है, वह पौद्गलि क कर्म है, पुद्गल की ही परि णति है। पुद्गल परमाणुओं के, कर्म परमाणुओं के सम्बन्ध से उस आत्मा में ऐसा एक bondage हो गया कि अब उसी को हटाने का नाम मोक्ष है और क्या है? संसार को हटाने का नाम मोक्ष थोड़ा न है। यह परि भाषा कहीं भी लि खी हो तो दिखा दो। है ही नहीं। न संसार से भागने का नाम मोक्ष है, न संसार को अपने से हटाने का नाम मोक्ष है। मोक्ष कि सका नाम है? जीव और कर्म का अत्यन्त विश्लेष हो जाना, अत्यन्त पृथक हो जाना, इस का नाम मोक्ष है। जीव से कर् मों को पृथक करो। बस!, मोक्ष हो गया और क्या है? इस theory को हम जान ही नहीं पाते हैं और फिर बीच में नए-नए भ्रम ले आते हैं।
धर्म
ध्या न के लिए छः द्रव्यों पर श्र द्धा न होना आवश्यक
अब कर्म को कर्म नहीं मानोगे तो कैसे तुम्हा रा श्रद्धा न बनेगा कि छह द्रव्यों में तुम्हें श्रद्धा न है और आत्म द्रव्य पर कैसे श्रद्धा न बन जाय ेगा? जब तक तुम कर्म को नहीं मानोगे कि मेरी आत्मा में कर्म घुसा हुआ है, उसी के कारण से ये सब हमारे अन्दर मि थ्या त्व, प्रमाद, अविरति , कषाय , योग मि थ्या भाव चल रहे हैं। जब तक आपको यह ज्ञा न नहीं होगा तो कहा ँ से इन सब चीजों का, आत्मा का ध्या न कैसे कर लोगे? आत्मा की बातें कर सकते हो, ध्या न तो कहीं से कहीं तक हमें नहीं लगता कि हो रहा है। उस ध्या न को धर्म -ध्या न कहना भी मुश् किल हो जाएगा अगर आपका छह द्रव्य के चिन्तन में मन नहीं लगता, भगवा न की कही हुई वा णी में आपका मन नहीं लग रहा । नहीं समझ आ रहा ? छः द्रव्य भगवा न ने कहे तो भगवा न की वा णी चिन्तन के योग्य है कि नहीं, मानने के योग्य है कि नहीं है जिस पर सम्यग्दर्श न टिका हुआ है। आचार्यकुन्दकुन्द देव कहते हैं:- ‘छ दव्व णव पयत्थ सद्दयहणं होई सम्मतं’ अष्ट पाहुड़ में लि खा हुआ है। छः द्रव्यों और नौ पदार्थों पर श्रद्धा न करने का नाम ही सम्यग्दर्श न है। छह द्रव्यों पर श्रद्धा न किया नहीं, नौ पदार्थों पर श्रद्धा न होता नहीं, सीधा आत्म द्रव्य के नीचे कुछ दिखता नहीं तो तुम्हा रे लि ए र्श न कहा ँ से हो जाएगा। अरे भाई! सम्यग्दर्श न ही कराने की ही बात बता रहा हूँ। वह सम्यग्दर्श न करने के लि ए भी अगर ध्या न करना है, तो आत्मा का ध्या न नहीं करना, धर्म ध्या न करना है। छः द्रव्यों का ध्या न करने से ही सम्यग्दर्श न होगा। कि सी भी जीव को इस संसार में आत्मा का पहले ध्या न करने से कुछ नहीं हो रहा । बात आपको उल्टी भी लग सकती है, कठोर भी लग सकती है लेकि न यथा र्थ बोल रहा हूँ। आपने ऐसा अभी तक कभी नहीं सुना होगा। सब क्या कहते हैं? आत्मा का ध्या न करो। सबसे पहले धर्म -ध्या न होगा तो छः द्रव्यों के ध्या न से ही होगा। पहले छः द्रव्यों का ध्या न करो। उसमें क्या ध्या न करना? जैसा भगवा न ने कहा कि छः द्रव्यों का जो स्व रूप है उसी का ध्या न करो, उसी का चिन्तन करो। उसमें मन नहीं लगता तो कि स में मन लगता है तेरा? कभी तेरा आत्मा में मन लग ही नहीं सकता। इसका मतलब है, तेरा मन उखड़ा हुआ है। मन तेरा केवल बातों में लगता है, ऊँची-ऊँची बातों में लगता है। इसका मतलब यह नि कलता है कि कुछ भी करने में तुम्हा रा मन नहीं लगता। अरे! बैठ न। क्या चिन्तन करना? छः द्रव्यों में क्या चिन्तन करने लाय क है? ठीक है! धर्म द्रव्य है, अधर्म द्रव्य है। देख! ऐसे नहीं बोलना, नहीं तो पि टाई कर दूँगा। मतलब आचार्य उसको ऐसे ही समझाते हैं कि ऐसे नहीं बोलना मतलब मुँह बि गाड़ कर मत बोल। धर्म द्रव्य को धर्म द्रव्य स्वी कार कर, अधर्म द्रव्य को अधर्म द्रव्य स्वी कार कर। मुँह बि गाड़ कर नहीं, यथा र्थ स्वी कार कर पहले। मुँह बि गाड़ कर स्वी कार करेगा तो श्रद्धा नहीं कहलाएगी। जिनवा णी का अपमान कहलाय ेगा। क्या सुन रहे हो? मैं आपको ऐसे बता रहा हूँ जैसे आज सम्यग्दर्श न करा कर ही उठूँगा। ऐसे ही होता है, समझ आ रहा न? मेरा मन ऐसा ही करता है इसलि ए इस मन को सम्भा लो। इतने बड़े-बड़े भ्रम हम छोड़कर कर आते हैं और यहा ँ आकर फिर जैनी बन कर हम भ्रम में पड़ जाते हैं। यह फिर और भ्रम देने वा ली बात है जो मैं आपको बता रहा हूँ और सब इसी प्रकार के भ्रम में पड़े हैं। क्या चिन्तन करना? धर्म द्रव्य है और हमें मालूम है यह गति में सहाय क होता है, अधर्म द्रव्य स्थिति में सहाय क होता है। आकाश तो सब फैला हुआ है। कोरा आकाश द्रव्य ही तो खाली है। काल है सो उसके अनुसार सबका परि णमन होता रहता है। आदमी बोलता है कि बैठे-बैठे इसमें क्या चिन्तन करना। इसका मतलब है कि तुझे अभी इन छः द्रव्यों का भी कोई सही ज्ञा न नहीं है, कोई रुचि छः द्रव्यों में अभी नहीं है और जब रुचि नहीं है, तो श्रद्धा नहीं है। माने छः द्रव्यों की श्रद्धा नहीं हुई तो तुझे कभी आत्म द्रव्य की श्रद्धा भी हो नहीं सकती और जो कुछ करेगा सब तेरा भ्रम में जाय ेगा, तू ध्या न रखना। धर्म -ध्या न हो ही नहीं सकता।
आज्ञा -वि चय धर्म -ध्या न- पहला धर्म -ध्या न
सबसे पहला धर्म -ध्या न बताया - आज्ञा -विचय धर्म -ध्या न। कोई भी सिद्धा न्त ग्रन्थ खोल कर देख लो। आचार्य कुन्दकुन्द से भी पहले गणधर परमेष्ठि हुए, उन्हों ने भी ‘धम्मज्झा णं दसविह ं’ दस प्रकार के धर्म -ध्या न कहे। सबसे पहला धर्म -ध्या न- आज्ञा विचय धर्म -ध्या न कहा है। अगर धर्म -ध्या न पर आना चाह ते हो तो सबसे पहला आज्ञा विचय धर्म -ध्या न और जिस शुद्धो पयोग की बातें करते हो वह शुक्ल ध्या न है जो वर्त मान में होता नहीं। केवल बातों में ही खोना चाह ते हो तो तुम्हा री मर् जी लेकि न कुछ करना चाह ते हो तो धर्म -ध्या न करना सीखो। छः द्रव्यों का चिन्तन करना सीखो। जैसे बने वैसे करो। ज्ञा न में नहीं आता तो अब खोजो। यह इतना बड़ा प्रवचनसार कि सलि ए लि खा है, खोजो। ये द्रव्य, गुण, पर्याय का चिन्तन करो। छः द्रव्यों का, पंचास्तिकाय का वर्ण न क्यों किया ? एक लाइन बस पढ़ लेंगे, छः द्रव्यों में सब द्रव्य हेय हैं, एक उपादेय है। जब इतना ही कहना था तो पंचास्तिकाय लि खने की ज़रूरत क्या थी? द्रव्य संग्रह लि खने की ज़रूरत क्या थी? सीधे एक लाइन में बोल देते कि सब द्रव्य हेय हैं, एक उपादेय है। बस उपादेय की बातें कर रहा हूँ, हेय की बात करना ही क्यों और बताना ही क्यों । एक-एक द्रव्य का, एक-एक पर्याय का, एक-एक गुण का, बि लकुल ऐसा यथा र्थ नि रूपण करने की जरूरत ही क्या थी? यह समझने की कोशि श करो। हम जिनवा णी का अभी भी सत्का र नहीं कर पा रहे हैं, हम अपनी बुद्धि के अहं में अभी भी जिनवा णी का अपमान कर रहे हैं। जिनवा णी का मतलब जिनेन्द्र भगवा न की वा णी। जो छः द्रव्यों के आधार पर हमारा सम्यग्दर्श न टिका है, आचार्य कुन्द-कुन्द देव यूँ ही नहीं कहते अष्ट पाहुड में:- ‘छद्दव्व णवपयत्थं सद्दहणं होई सम्मत्तं ’ पहले छः द्रव्य, नौ पदार् थो का श्रद्धा न करो। इसी श्रद्धा न को अगर उन्हों ने सम्यग्दर्श न कहा है, तो इसलि ए कहा है कि जब तक हम जिनेन्द्र भगवा न के द्वा रा बताए हुए तत्त्व पर, इस पूरे द्रव्य पर विश्वा स नहीं करेंगे, हमारे अन्दर धर्म -ध्या न की परि णती है, उसकी शुरुआत भी नहीं होगी। शुक्ल ध्या न तो ख्वा ब देखने की बातें
ह ैं। क्या करना है? धर्म -ध्या न ही करने का मन बना लो, समझ आ रहा है न? शुक्ल ध्या न तो शुद्धो पयोग की ही स्थिति है। हम भले ही शुद्धो पयोग, शुद्धो पयोग करते रहें लेकि न शुक्लध्या न जब वर्त मान में नहीं होता तो शुद्धो पयोग भी कुछ नहीं होता। गृहस्थों के तो बिल्कु बिल्कु ल ही नहीं होता। क्या करना? ये द्रव्य, गुण, पर्याय का चिन्तन करना। कैसे करना? जो लि खा है, उसे ही बार-बार पढ़ो, दोहराओ, मन में लाओ, उसके अस्तित्व को स्वी कार करो। हर एक द्रव्य का, हर एक entity जो हमें इस universe में दिखाई दे रही है, ये सत् है, सत् है, existence है इसका। हर चीज का existence है, हमारी स्वी कृति में यह आएगा तो फिर हमारे अन्दर जो अग्रह ीत मि थ्या त्व पड़ा हुआ है कि यह कि स ने बनाया ? यह कब से बना? यह कि सी के द्वा रा कब बनाया हुआ है? कि सी ने उसकी शुरुआत की है या कि सी ने इसको रचा है, ये सब मि थ्या अहंकार उस समय पर टूट जाएगा। ज्या दा ऊपर से तो नहीं जा रहा ? अतः हमें क्या करना चाहि ए? इस सत् का चिन्तन करना चाहि ए। अब देखो! कि तना सरल है। दुनिया में जो कुछ भी हमें दिखाई दे, बस उसको सत् के रूप में देखो। कल्पना करो दुनिया मे कि तनी greenery है, कि तने plants है, कि तने grass आदि है और इन सब चीजों में अनन्त जीव पड़े हुए हैं। हर जीव का अस्तित्व स्वी कार करो। उस जीव के अलावा पृथ्वी में भी जीव हैं, जल में भी जीव हैं, अग् नि में भी जीव हैं, वाय ु में भी जीव हैं। उसके अलावा जो चीजें हमें दिखाई देती हैं- लकड़ी, फर्नी चर, घर, मकान, इन सब को अजीव द्रव्य के रूप में इनको स्वी कार करो। ये सब पुद्गल हैं, इनका भी अस्तित्व है। एक-एक अणु इसका अस्तित्व है, सत् है, सत् है। कुछ भी यहा ँ माया , मि थ्या कुछ भी नहीं हैं। संसार माया है!, संसार माया है!, कुछ भी माया नहीं है संसार में, संसार में यथा र्थ है। जैन आचार्य संसार को क्या बोलते हैं? यथा र्थ बोलते हैं। माया तुम्हा रे लि ए है, संसार माया नहीं है। माया तुम्हा रे अन्दर पड़ी है, तो तुम उस माया को नहीं समझने के कारण से संसार को ही अपना मान करके चलते हो और संसार में ही अपने आपको बनाए रखने के लि ए हमेशा दौड़ते रहते हो। इसलि ए कहना पड़ता है कि तुम्हा रे अन्दर की माया जब छूट जाएगी तो तुम्हा रे लि ए समझ में आ जाएगा कि संसार माया है। छोड़ना कि सको है? भीतर का भ्रम छोड़ना, भीतर की माया छोड़ना। संसार में न भ्रम है, न संसार में माया है। संसार तो संसार है ऐसे ही चलता आया है, चलता रहेगा। समझ आ रहा है? इसलि ए आचार्य कहते हैं:- ‘हवदि पुणो अण्णं वा तम्हा दव्वं सयं सत्ता ’ इसलि ए द्रव्य स्वय ं सत्ता है। सत्ता और द्रव्य दोनो अलग-अलग चीजें नहीं हैं। जो द्रव्य है, वह सत्ता है और जो सत्ता है वह ी द्रव्य है। सत् का भाव - सत्ता । पहले बताया था न, सत् का भाव - सत्ता । जैसे हम बोलते हैं- इयत्ता , नियन्ता तो ‘ता’ जो लग जाता है वह उसके भाव के रूप में लग जाता है। कभी कृत्रि म प्रत्यय में भी ‘ता’ लग जाता है। जैसे- कर्ता तो वह कर्ति र्तिम प्रत्यय हो गया लेकि न जहा ँ पर कई बार- अस्मि ता, अस्मि का भाव उसमें ता लग गया , अस्मि ता। स्वायत्त ता, ये जो ‘ता’ प्रत्यय लगता है, भाव अर्थ में लगता है। इसी सत् में ‘ता’ लगाया तो सत्ता । माने सत् का भाव ही द्रव्य है। माने हर द्रव्य सत् स्व रूप है और उसी द्रव्य के साथ में वह सत् तत्त्व जुड़ा हुआ है। सत् कोई अलग से चीज नहीं हैं। जो सत् है, वह द्रव्य है। जो द्रव्य है, वह सत् है। इसलि ए ‘सद् द्रवयस्य लक्ष णम्’ ऐसा कहा गया है।
होता न द्रव्य यदि सत् मत हो तुम्हा रा, कैसा बने ध्रुव असत् यह द्रव्य प्या रा।
या सत्व से यदि निरा वह द्रव्य होवे, सत्ता स्वयं इसलिए, फि र क्यों न होवे।।

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
Email: manish@frontdesk.co.in
Tel: +91 141 6693948
Reply
#4

If the substance (dravya) is not of the nature of existence – i.e., if it is not sat – then its permanence (dhruvatva) must become nonexistent – asat. How can something that is non-existent – asat – be a substance (dravya), or how can a substance (dravya) exist – remain as sat – without the nature of existence? Therefore, the substance (dravya) is of the nature of existence – it is sat. 

Explanatory Note: 
If the substance (dravya) is not of the nature of existence – if it is not sat – two anomalies arise: 1) the substance (dravya) must become non-existent – asat, and 2) it must become discrete from the nature of existence – i.e., sat. If the substance (dravya) becomes non-existent – asat – it must lose permanence and face destruction. If the substance (dravya) becomes discrete from the nature of existence – i.e., discrete from sat – it must carry on with its own nature, without the nature of existence – i.e., sat.
In this case, the nature of existence – i.e., sat – becomes superfluous and, under such a hypothesis, the nature of existence – i.e., sat – itself loses its existence. Only when the substance (dravya) has existence – i.e., sat – as its nature, will it become permanent (dhruva) and indestructible. Only when the substance (dravya) is not discrete from its nature of existence – i.e., sat, will it be able to exist in own nature, establishing thereby the nature of existence – as the sat. Therefore, the substance (dravya) is of the nature of existence – it is sat. The substance (dravya) is the possessor-of-quality (gunī) of the quality (guna) of existence
Reply
#5

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -13,14

सत्ता संबंध असत् भी सत् यदि तो खरभृंग बने ।
सतमें सत्तायोग क्या करें यों स्वभावसे सत्य सने
गुणगुणि एकप्रदेशता इसलिये वे भिन्न नहीं ।
गुणका क्षण और गुणी का और किन्तु यो अन्य सही ॥ ७ ॥

सारांश:- कुछ लोगों का विचार है कि सत्व सामान्य एक पृथक् चीज है और द्रव्य उससे भिन्न है। सत्व सामान्यके साथ संबंध होनेसे द्रव्य भी सत् कहा जाता है। इस पर ग्रंथकारका कहना है कि सत्ता सामान्यके साथ संबंध होनेसे पहिले द्रव्य स्वयं सत् है या असत् है?

यदि यह कहा जावे कि सत्व संबंधसे पहिले वह असत् ही होता है। तब जिसप्रकार सत्ताके साथ सम्बन्ध होनेसे द्रव्य असत्से सत् हो गया उसीप्रकार गधेके सींग भी उसी सत्तासे सम्बन्धित होकर सत् क्यों नहीं बन जाता है, उसे कौन रोकता है? क्योंकि दोनोंके ही स्वयं असत्यनेमें कोई भेद नहीं है। फिर सताका सम्बन्ध पृथिव्यादिके साथमें हो और खरविधा के साथमें न हो इसमें विशेष नियामक कौन है?

यदि पृथिव्यादि द्रव्योंको सत्ता सम्बन्धके पहिले भी सद्रूप ही मान लिया जाये तब वहाँ सत्ता सम्बन्ध होने का फल क्या शेष रह जाता है? कुछ भी नहीं। यही सर्वज्ञ श्री वीर भगवान्का कथन है कि जीवादिक सम्पूर्ण पदार्थ स्वयं सद्रूप हैं। ये सब गुणी हैं और इनका सत्व गुण है। जो भिन्न प्रदेशत्वके रूपमें इनसे कभी भी पृथक नहीं होता है किन्तु सर्वथा एकरूप ही होता है और उनसे किसी भी तरहसे भिन्न प्रतीत नहीं होता है, ऐसी बात भी नहीं है।

गुण और गुणीमें संज्ञा, संख्या, प्रयोजनादिसे भेद भी रहता ही है। जैसे वस्त्र और उसकी सफेदीमें होता है। वस्त्रकी सफेदी नेत्र इन्द्रियके द्वारा जानी जाती है, स्पर्शन आदिके द्वारा नहीं जानी जा सकती है किन्तु वस्त्रको जिसप्रकार हम लोग नेत्र इन्द्रियसे जान सकते हैं वैसे ही स्पर्शनादि इन्द्रियोंके द्वारा भी जान सकते हैं अतः मानना पड़ता है कि सफेदी वस्त्रसे भिन्न है।

इसीप्रकार सत्ता और द्रव्यमें भी अन्यपना है। सत्ता अपने आप में अन्यगुणसे रहित स्वयं गुणरूपसे आश्रित होकर रहनेवाली है किन्तु द्रव्य वस्तुत्वादि अनेक गुणोंका समुदायरूप गुणी होकर उस सत्ताका आश्रयभूत है। इसप्रकार सत्ता और द्रव्यके स्वरूपमें भेद है। ऐसा ही आगे और भी स्पष्टरूपसे बताते हैं
Reply


Forum Jump:


Users browsing this thread: 1 Guest(s)