प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 17,18 जीवके अनवस्थितपन
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार : ज्ञेयतत्त्वाधिकार

गाथा -17 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -119 (आचार्य प्रभाचंद्र की टीका अनुसार )


जो खलु दव्वसहावो परिणामो सो गुणो सदविसिट्ठो ।
सदवट्ठीदं सहावे दवं त्ति जिणोवदेसोयं ॥ 119 ॥


आगे सत्ता और द्रव्यका गुण-गुणी-भाव दिखलाते हैं - [ यः ] जो [ खलु ] निश्वयसे [ द्रव्यस्वभावः ] द्रव्यका स्वभावभूत [ परिणामः ] उत्पाद, व्यय, ध्रुवरूप त्रिकाल संबंधी परिणाम है, [सः ] वह [ सदविशिष्टः ] सत्तासे अभिन्न अस्तित्वरूप [ गुणः ] गुण है । और [ स्वभावे ] अस्तित्वरूप सत्ता-स्वभावमें [ अवस्थितं द्रव्यं ] तिष्ठता हुआ द्रव्य [सत् ] सत्ता कहलाता है, [ इति ] इस प्रकार [अयं ] यह [ जिनोपदेशः ] जिनभगवान्‌का उपदेश है । भावार्थ - द्रव्यका जो अस्तित्वरूप स्वभावभूत परिणाम है, उसको सत्ता नामका गुण कहते हैं । यह अस्तित्वरूप सत्तागुण द्रव्यसे ... अभिन्न द्रव्यका स्वभावभूत परिणाम है । और यह सत्ता गुण द्रव्यमें प्रधान है । सत्तामें द्रव्य स्थित रहता है । इसी कारण सत्ता गुणकी प्रधानतासे द्रव्यको सत् कहते हैं, और इस सत्ता गुणसे सत्स्वरूप गुणी द्रव्य जाना जाता है । इस कारण सत्ता गुण है, और द्रव्य गुणी है ॥

गाथा -18 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -120 (आचार्य प्रभाचंद्र  की टीका अनुसार )

णत्थि गुणोत्ति य कोई पज्जाओत्तीह वा विणा दवं ।
दव्वत्तं पुण भावो तम्हा दवं सयं सत्ता ॥ 120 ॥


आगे गुण - गुणीका भेद दूर करते हैं - [इह] इस जगत्में [द्रव्यं विना] द्रव्यके विना [गुण इति] गुण ऐसा [वा] अथवा [पर्यायः इति पर्याय ऐसा [कश्चित् ] कोई पदार्थ [नास्ति नहीं है । [पुनः] और [द्रव्यत्वं] द्रव्यका अस्तित्व [भावः] उसका स्वभावभूत गुण है, [तस्मात् ] इसलिये [द्रव्यं] द्रव्य [स्वयं] आप ही [सत्ता] अस्तित्वरूप सत्ता है। भावार्थ-ऐसा कोई गुण नहीं है, जो द्रव्यके विना पृथक् रहता हो, इसी प्रकार ऐसा कोई पर्याय भी नहीं है, जो द्रव्यसे पृथक् हो। द्रव्य ही में गुण और पर्याय होते हैं, द्रव्यसे पृथक् कोई पदार्थ नहीं है। अतः गुणपर्याय द्रव्यसे अभेदरूप हैं। जैसे सोनेसे पीतत्वादि गुण, कुंडलादि पर्याय पृथक् नहीं पाये जाते, उसी प्रकार द्रव्यसे गुणपर्याय पृथक् नहीं हैं, और सत्ता है, सो वस्तुसे अभिन्न उसका गुण है । इस कारण अस्तित्वरूप सत्ता गुण द्रव्यके पृथक् नहीं है, द्रव्य स्वयं सत्तास्वरूप है

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार

गाथा -17
द्रव्यत्व का स्व परिणाम सदा सुहाता अस्तित्वधाम गुण सो जिन शास्त्र गाता ।
सत्ता स्वभाव भर में स्थित द्रव्य सोही , है सत् रहा कि इस भांति कहें विमोही ॥

अन्वयार्थ - ( खलु जो ) वास्तव में जो ( दव्वसहावो परिणामो ) द्रव्य का स्वभाव भत । उत्पादव्यय ध्रौव्यात्मक परिणाम है ( सो ) वह ( सदविसिट्ठो गुणो ) सत्ता से अभिन्न गुण है ( सहावे अवट्टिदं ) स्वभाव में अवस्थित ( दव्यं ) द्रव्य ( सत् ) सत् हैं ( त्ति जिणवदेसो ) ऐसा जो जिनोपदेश । है ( अयं ) वही यह है ।


गाथा -18
पर्याय का जनन भी कब कौन होई ? लो द्रव्य के बिन नीं गुण होय कोई ।
द्रव्यत्व ही तब रहा ध्रुव जन्मनाशी , सत्ता स्वरूप खुद द्रव्य अतः विभासी ll

अन्वयार्थ - ( इह ) इस विश्व में ( गुणो त्ति य कोई ) गुण ऐसा कुछ ( पज्जाओ त्ति वा ) या पर्याय ऐसा कुछ ( दवं विणा णत्थि ) द्रव्य के बिना नहीं होता ; ( पुण दब्बत्तं भावो ) और द्रव्यत्व उत्पादव्यय ध्रौव्यात्मक सद्भाव है ( तम्हा ) इस कारण ( दवं सयं सत्ता ) द्रव्य स्वयं सत्तारूप है l


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#2

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार

“त् ति जि णोवदेसोयं” यह जिनेन्द्र भगवा न का उपदेश है। क्या है? जो खलु दव्वसहावो जो खलु माने वास्तव में, द्रव्य का स्व भाव है। “परिणामो सो गुणो सदविसिट्ठो ” वह द्रव्य का स्व भाव भूत जो परि णाम है, वही  गुण है। क्या कहा ? जो वास्तव में, द्रव्य का स्व भाव भूत परि णाम है- वह ी द्रव्य है। सदविसिट्ठो अर्था त् वह सत् से अविशि ष्ट है, अभि न्न है, सत् से मि ला हुआ है। जो गुण हैं, वह सत्ता से अभि न्न हैं। सदवट्ठी दं सहावे और स्व भाव में अवस्थि त हुआ वह द्रव्य दव्वं होता है। इस प्रकार से जिनेन्द्र भगवा न ने कहा है। जो स्व भाव में अवस्थि त है वही द्रव्य कहलाता है और जो द्रव्य का स्व भाव है वही  परि णाम उसका गुण कहलाता है और वह गुण ही सत्ता से अभि न्न होता है। यह गाथा का भाव है।
द्रव्य का स्वभाव रुप परिणाम
द्रव्य का जो स्व भाव , सभी द्रव्यों की चर्चा करें तो सभी द्रव्य जो चेतन, अचेतन, कि सी भी रूप में है, उन सभी द्रव्यों का जो स्व भाव भूत परि णमन चल रहा है, वही उसका स्व भाव भूत परि णाम है। परि णाम से यहाँ पर अर्थ है कि जो उत्पा द, व्यय, ध्रौ व्य रुप हर द्रव्य का स्वा भाविक परि णमन चल रहा है वह उस द्रव्य का स्व भाव है। माने उस द्रव्य का, उस पदार्थ का, अपना स्व भाव अपना nature है, जो हर समय प्रत्ये क द्रव्य परि णाम भूत रहता है। परि णाम माने वह उत्पा द, व्यय और ध्रौ व्य इन तीनों ही धर् मों से परि णीत बना रहता है। उसका वह परि णाम इस प्रकार का, उसका गुण कहलाता है। द्रव्य का गुण कहलाता है क्योंकि अब कोई पूछे कि द्रव्य की quality क्या है? द्रव्य का मुख्य परि णाम या भाव क्या है, तो वह क्या है? वह इसी गुण के साथ में रहना यही उसका मुख्य परि णमन है। कौन सा गुण? उत्पा द-व्यय-ध्रौ व्य रूप हर द्रव्य का परि णमन होता रहना यही  उसका मुख्य स्व भाव भूत परिणाम है।


द्रव्य का गुण
यह जो उसका गुण है यह कैसा होता है? सदविसिट्ठो जो सत् जिसकी हम चर्चा करके आए हैं सत् माने अस्तित्व है। वह अस्तित्व इसके साथ अविशि ष्ट है, अभि न्न है मतलब अस्तित्व और द्रव्य यह दोनों चीजें एक दूसरे से मि ली हुई है। कोई भी द्रव्य है, तो उसका अस्तित्व है और जो उसका अस्तित्व है, वह ी उसका द्रव्य है। फिर भी द्रव्य का अस्तित्व जो है वह गुण कहलाता है। इतना अन्तर समझना। कि सी भी पदार्थ का जो अस्तित्व बना हुआ है वह ी अस्तित्व उस द्रव्य का गुण है। मुख्य गुण तो द्रव्य का यह अस्तित्व गुण ही है, सत्ता गुण ही है जिसके कारण से वह पदार्थ का अस्तित्व बना रहता है। कोई भी पदार्थ हो चाह े आत्म पदार्थ हो, चाह े परमात्म पदार्थ हो या कोई भी अनात्म पदार्थ हो। अनात्म का मतलब जीव पदार्थ से रहि त अजीव पदार्थ हो या अपना आत्म पदार्थ हो या परमात्मा का पदार्थ हो। परमात्मा का मतलब जो आत्मा परम शुद्ध हो गई, उस परमात्म द्रव्य का भी परि णमन इसी रूप में चलता रहता है। सत्ता कभी भी छुटती नहीं है। इसको समझ कर अगर हम अपनी दृष्टि को उस ओर ले जाते हैं जहा ँ से ये परि णमन चलता हुआ आया है, तो वह परि णमन क्या होता है। जहा ँ से हर द्रव्य का आगमन हुआ है वह स्था न क्या है? जिसे हम कहते है- नि गोद। क्या बोलते हैं? नि गोद। वह स्था न जहा ँ पर हर आत्मा का अस्तित्व रहा , कि स रूप में रहा ? उत्पा द, व्यय और ध्रौ व्य इस परि णाम रूप रहा । आत्मा के अस्तित्व को आप देखने की कोशि श करें तो वह अस्तित्व हमेशा इसी उत्पा द, व्यय, ध्रौ व्य के साथ बना हुआ मि लेगा। कभी भी वह छूटा नहीं है। यह द्रव्य का स्व भाव है। एक क्ष ण, एक पल के लि ए भी वह अस्तित्व द्रव्य को छोड़ नहीं सकता क्योंकि वह द्रव्य का मूलभूत गुण हैं। मूलभूत उसका स्व भाव परि णाम है। इसलि ए द्रव्य को अगर उसके स्व भाव के साथ देखना है, तो उसके सत्ता गुण के साथ देखें।

द्रव्य की सत्ता का न प्रारम्भ है न अन्त
सत्ता देखना है कि वह सत्ता कब थी, कहाँ थी? तो अपनी दृष्टि past में दौड़ाते चले जाएँ। Future में न दौड़ा करके कहा ँ दौड़ाएँ? past में। जैसे- काल की कोई शुरुआत नहीं। समझ आ रहा है? समय कब शुरू हुआ, काल कब शुरू हुआ, time कब शुरू हुआ? time कभी शुरू होता है क्या ? कोई ऐसा तो नहीं जब से घड़ी आई तभी time शुरू हुआ, उससे पहले time ही नहीं था । time की कोई शुरुआत है, क्या ? जब time की शुरुआत नहीं है, तो वह time के साथ में रहने वा ले पदार्थ भी तो होंगे। नहीं तो time अकेला क्या करेगा? एक सोचने की बात यह है कि हम ये सोचे कि इससे पहले, इससे पहले, इससे पहले, इससे पहले। समझ आ रहा है? मैं 1 घण्टे तक भी बोलूँगा तो भी वह पहला नहीं आएगा। कभी काल की शुरुआत हो सकती है क्या ? जब काल की शुरुआत नहीं तो हम ये क्यों सोचते हैं कि हमारे पदार्थ की शुरुआत है। काल की ही शुरुआत नहीं है, समय तो हमेशा से ही रहा है। जब समय हमेशा रहा है, तो उस समय के साथ परि णमन करने वा ला पदार्थ भी हमेशा रहता है। जब हम काल की दृष्टि से देखते हैं तो भी हमारे लि ए कोई भी प्रा रम्भि क स्था न, प्रा रम्भि क बिन्दु बिन्दु इसलि ए नहीं मि लता क्योंकि वह काल भी हमेशा अपने अस्तित्व के साथ वह अपने अविनाशी द्रव्य के साथ बना रहता है। इसको काल-द्रव्य

कहते हैं। अब काल द्रव्य है, तो काल द्रव्य के साथ अन्य भी द्रव्य होंगे अन्यथा वह द्रव्य कहा ँ से आ जाएँगे? जब एक चीज नि श्चि त हो जाती है कि काल की कोई शुरुआत नहीं है। उस काल के साथ -साथ आप देखोगे क्षेत्र की भी कोई शुरुआत नहीं है। जैसे-आकाश क्षेत्र है। है न! यह जमीन है, तो इसको कोई बनाया जाता है कि यह जमीन है, यह आकाश है इसको कोई बनाता है क्या ? आकाश, धरती ये कोई बनाने वा ली चीज तो है नहीं। क्षेत्र तो ये भी है, ये भी है, ये भी है। इससे भी आगे, इससे भी आगे, इस से भी परे क्षेत्र का कोई अन्त है? अगर आप वर्त मान विज्ञा न के अनुसार देखोगे तो भी आपके लि ए क्षेत्र का जो अन्त दिखाई देता है, तो वह अन्त विज्ञा न के हि साब से तो हो सकता है लेकि न वस्तु तः वो क्षेत्र का कोई अन्त नहीं है। इतने से क्षेत्र में क्या होगा? कुछ भी व्यवस्था नहीं है उस क्षेत्र में और उस क्षेत्र में न कहीं पर कोई स्वर ्ग है, न कहीं पर कोई नरक है, न कहीं मोक्ष है। कहीं भी कुछ नहीं है। उस क्षेत्र से क्या होगा? वह क्षेत्र हो, काल हो, इन सब को हम past में देखते चले जाएँ।

शाश्र्व त पदार्थों के चिन्तन से मन की स्थि रता
आप कहते हो न, क्या चिन्तन करें महा राज, सामायि क में मन नहीं लगता। मन आप लगाना नहीं जानते हो, मन तो सबका लग जाता है। मन को लगाने के लि ए जो शाश्वत चीजें हैं उस में मन लगाओ। कि स में मन लगाओ? हम मन को लगाते हैं क्षणि क चीजों में, इसलि ए मन नहीं लग पाता है। लेकि न मन को लगाना कि स में चाहि ए? जो permanent चीजें हैं, जो शाश्वत पदार्थ हैं उसमें मन को लगाओ। काल द्रव्य है, शाश्वत है। आकाश द्रव्य है, शाश्वत है। क्षेत्र कभी भी मि टता नहीं, काल कभी भी मि टता नहीं। इससे पहले भी क्षेत्र था , उसके आगे भी और क्षेत्र हैं उसके आगे भी और क्षेत्र हैं, उसके आगे भी और क्षेत्र हैं, क्षेत्र माने स्था न space उसके आगे और हैं, और हैं और हैं। ऐसा करते चले जाओ, लोक के अन्त तक भी करते चले जाओ, ऊपर भी करते चले जाओ नीचे भी करते चले जाओ। इस आजू-बाजू सब जगह करते चले जाओ। क्या करते चले जाओ? इसके बाद यह क्षेत्र है, यह क्षेत्र है भले ही हम उसका नाम नहीं जानते हो लेकि न ये space और है, और है, और है। ऐसा करते-करते आपको लोक का अन्त तो आ जाएगा लेकि न उस लोक के बाह र भी और अलोकाकाश है, उसका भी कोई अन्त नहीं है। उसमें आप जितने अन्दर, अन्दर, अन्दर जाते चले जाओ, चले जाओ उसको जो कोई भी है उसका अन्त होने वा ला नहीं है। अगर हम ऊपर की ओर जाएँगे लोक में तो लोक की अपेक्षा से हम स्वर ्ग से होते हुए सि द्ध लोक तक पहुँ च जाएँगे। वहा ँ जो है ऊपर का स्था न लोक की अपेक्षा से अन्त को प्राप्त हो जाएगा। नीचे हम जाएँगे तो 7 नरकों के बाद में एक और 7 नरकों के बाद के जो स्था न हैं जो कलकला नाम से कहा जाता है उसके नीचे पहुँ च जाएँगे तो लोक का अन्त हो जाय ेगा। इधर आजू-बाजू देखेंगे तो असंख्या त दीप समुद्र हैं, मध्य लोक में तो उस पर जाकर लोक का अन्त हो जाएगा। उसके बाद का जो क्षेत्र है जिसे अलोकाकाश कहते हैं, वह अलोकाकाश तो अनन्त रूप होता है। उसमें कोई अन्त नहीं होता है। अलोकाकाश, आकाश ये अनन्त रूप है। ‘आकाशस्या नन्ता :’ आकाश के अनन्त प्रदेश होते हैं। आकाश के इन अनन्त प्रदेशों में अपना मन घूमाते चले जाओ, उसके बाद और आकाश और क्षेत्र और space और space और space और space मन को लगा दो। यह जानने की कोशि श करो कि यह कहा ँ तक जा रहा है? देखो मन की कि तनी उड़ा न है। अब देखो तुम मन को एक ऐसा आकाश दे दो जिसमें वह उड़ ता चला जाए। अभी तो आप छोटा-मोटा आकाश दे देते हो तो वह थोड़ा सा उड़ ता है फिर दूसरी जगह चला जाता है, फिर दूसरी जगह चला जाता है। उसको बि लकुल छोड़ दो अनन्त में। काल की अपेक्षा से भी अनन्त की ओर छोड़ दो और क्षेत्र की अपेक्षा से भी अनन्त में छोड़ दो। अनन्त काल की ओर जाने दो मन को बस। मन से कहो अनन्त का चिन्तन करो, अनन्त क्षेत्र है, अनन्त काल है। बस इसके बारे में सोचो। इससे पहले भी था , इससे पहले भी समय था , इससे पहले भी समय था । इससे पहले भी क्षेत्र था इससे पहले भी क्षेत्र था , इससे पहले भी यह क्षेत्र था ।

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#3

अपने अस्तित्व की अनन्त यात्रा
ये क्षेत्र और काल की अनन्तता सोचते-सोचते फिर इसको ले आओ अपने अस्तित्व के ऊपर। कहा ँ ले आओ? अपने अस्तित्व के ऊपर। कैसे, मैं आत्मा ! मेरा अस्तित्व है! सत्ता गुण से मैं अभि न्न हूँ! मैं आत्म द्रव्य हूँ! और वह आत्म द्रव्य सत्ता गुण के साथ में बिल्कु बिल्कु ल एकमेक है। माने सत्ता कहो, आत्मा कहो कोई अलग अलग चीज़ ें नहीं है। उसी आत्मा के लि ए अब सोचते जाओ ये इससे पहले भी था , इससे पहले भी था , इससे पहले भी था । न कोई सा भी काल था , उस काल में भी था , उस काल में भी था , उस काल में भी था , उस काल में भी था । कौन? कौन दूसरे का नहीं है अपना! समझ आ रहा है? अपना सोचने के बाद में फिर दूसरे का भी सोच लो। आप कहते हो मन नहीं लगता, मन को आप शाश्वत चीजों में लगा दो, मन की इच्छा है दौड़ ने की, उड़ ने की बहुत तीव्र गति से चलने की तो उसको इतना space दे दो, इतना time दे दो कि वह जितनी उसकी गति है, उतनी गति में वह अच्छे ढंग से उड़ सके, अच्छे ढंग से उसमें जा सके। जब आप छोटा-मोटा time देते हो तो वह छोटी मोटी जगाह ों पर होकर आ जाता है, परेशान करता है। जब उसको उड़ा न दे दो लंबी जा-जा, खूब-खूब दूर दौड़ा कर आ, जितनी दूर तू दौड़ सकता है, उतनी दूर दौड़ कर आ। मन को खुली छूट दे दो दौड़ ने के लि ए। फिर देखो कि आपका मन अपने आप शान्त होता है कि नहीं होता है। मन को अलोकाकाश तक पहुँ चा दो, लोकाकाश के बाह र पहुँ चा दो, मन को जो है अनन्त काल तक की या त्रा में डाल दो। मन को अपना अस्तित्व बताने के लि ए उसे नि गोद की या त्रा तक ले जाओ। कहा ँ से अपना अस्तित्व? मतलब है, तो उससे पहले भी लेकि न नि गोद एक ऐसा स्था न है जिसका कोई भी प्रा रम्भ नहीं है। अब जीव है, तो जीव कहा ँ पड़ा हुआ है। इससे पहले अनादि काल से कहा ँ पड़ा था । सबसे ज्या दा time उसने अनन्त काल कहा ँ गुजारा था । सब नि गोद है। जैसे- खदान में पड़ा हुआ पत्थर होता है, तो वहा ँ पत्थर पड़ा है, तो पड़ा है। अब उसे कोई नि कालने वा ला है ही नहीं। पड़ा है तो पड़ा ही है। जब कभी कोई खोदे, जब कोई mines बनाएँ तब जा कर उसमें से कोई पत्थर नि कले और नहीं नि कले तो न नि कले। वह पत्थर धरती के अन्दर कब से पड़ा है, कब से पड़ा है, कब से पड़ा है? अनादि से पड़ा है। उस पत्थर में सोना भी होता है, स्वर्ण पाषाण जिसको बोलते हैं। अब उस पाषाण के अन्दर स्वर्ण कब से पड़ा , कब, कब से पड़ा , कब से पड़ा ?
जब से पत्थर पड़ा तब से स्वर्ण पड़ा । क्या समझ आ रहा है? अस्तित्व हमारा कब से है? इस बात में यदि हम मन को लगा देते हैं तो मन कि तना भी चंचल हो, मन शान्त हो जाएगा क्योंकि मन को आपने अनन्त की दौड़ दे दी।

मन को स्थि रता के लिए अनन्त विस्ता र चाहिए
जब आप मन को छोटे से नक्शे में घुमाएँगे यह भारत है, ये अमेरि का है, ये चीन है, ये जापान है, ये जर्म नी और आप लौट कर फिर भारत में आ गए तो मन कहेगा बस! इतनी सी दुनिया । मन तुम्हें परेशान करेगा। वह फिर कहेगा पहले इंग्लैंड चलो तो इंग्लैंड हो आए। फिर कहेगा चीन चलो तो चीन हो आए, फिर कहेगा जापान चलो तो जापान हो आए। ऐसे ही घुमाता रहेगा, तुम ऐसे ही घूमते रहोगे। मन को छोटी-छोटी चीजें दोगे तो मन परेशान रहेगा और परेशान करेगा। समझ आ रहा है? मन को क्या पकड़ा दो? जितनी उसकी दौड़ है, उस से बढ़ कर उसको साधन दे दो। जैसे बोलते हैं न कि मानो अपनी गाड़ी में रेस 100 kmph रेस है, 200 की रेस है। अब उसको उसके according platform दे दो। कोई भी उसके अनुसार पथ दे दो, उसको कुछ भी जहा ँ पर दौड़ सके तब उसको ठण्ड क पड़े ड़ेगी। उसको तुम अपनी गलिय ों में थोड़ा -थोड़ा घूमाओगे तो वह तो कभी सन्तु ष्ट नहीं होगा। मन इसीलि ए सन्तु ष्ट नहीं होता, मन इसीलि ए आपका कहीं नहीं लगता क्योंकि आप उसे हमेशा छोटी-छोटी चीजों में बांधकर घूमाते रहते हो और बंधना उसका स्व भाव नहीं है। अब आपने उसको बन्धन में डाल दिया । अब इतना सा तुमने globe दिखा दिया कि बस यह ी दुनिया है, अब इतनी सी दुनिया में मन ने सब दुनिया देख ली तो कहेगा अब क्या करे? समझ आ रहा है? उस दुनिया में तो कुछ है ही नहीं। न उस दुनिया में कोई स्वर ्ग दिखाई दे रहा है, न तो उस दुनिया में कोई सुख का स्था न दिखाई दे रहा है, न कोई सिद्धा लय दिखाई दे रहा है। उस दुनिया में तो कुछ है नहीं और वह दुनिया भी इतनी बड़ी नहीं है कि हम उसको अगर पूरी ढूँढना चाह े या हम उसमें पूरी travel करना चाह े तो कर न सके। वह भी सब हो जाती है। जब आप ही अपने हाथ -पैरों से पूरी दुनिया घूम सकते हो तो अब मन के लि ए तो उससे बड़ी दुनिया चाहि ए कि नहीं चाहि ए। एक सोचने की बात है कि नहीं चाहि ए। जो दुनिया हम अपने हाथ -पैरों से नाप ले रहे हैं, अपने ही साधनों से है, अपने ही planship, इन सब साधनों से नाप ले रहे हैं तो अब मन को तो उससे कुछ और बड़ा चाहि ए। नहीं तो वह मन तुम्हें मार डालेगा। control नहीं करना, मन कभी control में नहीं आता। मन जो चाह ता है उसके अनुसार आपने उसको विषय वस्तु कभी दी ही नहीं। आप उसे control करने के चक्कर में कहीं से उठाकर कहीं लगाते रहे और वह कहीं से उठ करके कहीं लगता रहा । आप उसको परेशान करते रहे, वह तुम्हें परेशान करता रहा । और क्या होता है? तुमने कि सी को जैसे कोई नटखट बच्चा होता है। वो दौड़ ते-दौड़ ते gate के बाह र जा रहा था । तुम उसको उठा लाए, तुमने यहा ँ लाकर फिर पटक दिया माने रख दिया । फिर छोड़ दिया तुमने उसको फिर वह गया , फिर वह गया , फिर वह गया , फिर वह gate गेट के बाह र फिर नि कल गया । तुम उसको फिर पकड़ कर लाए, फिर रख दिया । तुम उसको पकड़ रहे हो, वो तुम को पकड़ रहा है। तुम उसको रोक रहे हो, वह तुम को रोक रहा है। तुम उसको घुमा रहे हो, वह 
तुम को घुमा रहा है। तुम सोच रहे हो हम उसका मन लगा रहे हैं, हम अपना मन लगा रहे हैं। कहा ँ लगा रहे हो मन? नहीं समझ आ रहा है? तुम सोच रहे हो हम बच्चे को था म रहे हैं। कहा ँ था म रहे हैं बच्चे को? कहा ँ पकड़ रहे हो बच्चे को? बच्चा तुम्हें पकड़ रहा है। जब तुमने उसे अन्दर ला कर पुनः छोड़ा और वो पुनः दौड़ रहा है, तो तुम्हा री दृष्टि तो उधर ही है न कि यह फिर से उस गेट के बाह र न चला जाए। तुम फिर उसके पीछे दौड़े ड़े तो तुम उसके पीछे दौड़ रहे हो कि नहीं। तुम क्या सोच रहे हो? हम उसको बार-बार अपने स्था न पर ला रहे हैं, हम उसको बार-बार अपने स्था न पर रख रहे हैं और वह तुम्हें बार-बार अपने स्था न पर ले जा रहा है। तुम्हें तो gate के बाह र नहीं जाना था । उसके कारण से तुम भी जा रहे हो gate के बाह र। वो बार-बार तुम्हें अपने स्था न पर ले जा रहा है।

द्रव्य का स्वभाव अपने सत्ता गुण से अभिन्न है।
यही मशक्कत जिन्दगी भर करते रहोगे तो कभी भी आप मन का स्व भाव समझे बि ना मन के लि ए कुछ नहीं कर पाओगे। मन को लगाना, मन को टिकाना यह सब बातें तब होती हैं जब हमें पता हो मन का स्व भाव क्या है? इसलि ए मन को पहले अच्छे ढंग से घुमाना सीखो। उतनी चीजों में मन मत घुमाओ जितनी चीज़ ें हम जानते हैं। उसमें घुमाओ जिसके माध्य म से हमारी जानकारी जो श्रुतज्ञा न के माध्य म से आ रही है उसमें मन को घुमाओ। जो आँखों से दिख रहा है, उसमें मन को मत घुमाओ। जो श्रुतज्ञा न के माध्य म से मन जानेगा उसमें मन को घुमाओ। जैसे दुनिया केवल इतनी है जितनी हमने globe में कैद कर दी। अगर इसमें मन को घुमाओगे तो मन कभी भी नहीं टिकेगा। इतनी दुनिया तो जब हम अपने हाथ -पैरों से पूरी कर रहे हैं, नाप ले रहे हैं तो मन के लि ए तो और बड़ी चीज है। उसे तो और बड़ी दुनिया चाहि ए घूमने के लि ए और वह आपके पास है नहीं। वो हमारे पास है। हमारे पास से मतलब एक बड़ी दुनिया जिसमें आप मन को घुमा सको। वो कि सके पास है? जिसके पास श्रुतज्ञा न होगा, जिसके पास जिनवा णी का ज्ञा न होगा, जिसके पास लोक-अलोक का ज्ञा न होगा, वह ी दुनिया में मन को घुमा सकेगा। तीन लोक का ज्ञा न तो रखो। कहा ँ हैं तीन लोक? आपके यहा ँ तो एक ही लोक है। तीन काल की बात तो करते हो लेकि न तीन लोक का कोई ज्ञा न नहीं। जब काल तीन हैं तो लोक भी तो तीन हैं और तीन काल में भी आपको कुछ past का पता नहीं है। कि तना सा पता है 5000 वर्ष पहले की बात या ज्या दा से ज़्या दा 100000 वर्ष पहले की बात और कि तनी बात ज्या दा बोले दस लाख वर्ष पहले की बात। ऐसा बोल दे, अरे! उससे पहले भी कुछ होगा न! हम दस अरब भी बोल दें, दस खरब भी बोल दें! हजार, करोड़ , अरब, खरब सब बोल दें। अगर उसके बाव जूद भी तो कुछ तो होगा। शुरुआत कहा ँ से हुई? time जब भी कोई भी शुरू नहीं कर सकता तो उस time में रहने वा ली चीजें भी कैसे शुरू हो सकती हैं। Beyond time and beyond the space. हर चीज सीमा से परे है और हर समय से परे है। अपना अस्तित्व जब तक हम इस रूप में स्वी कार नहीं करेंगे तब तक कभी भी हम अपने आप पर विश्वा स नहीं कर पाएँगे। हम भले ही दस बार पढ़ ले इसको कि द्रव्य का स्व भाव अपने सत्ता गुण से अभि न्न है। मतलब उसी के साथ मि ला हुआ है माने द्रव्य जो है, वह ी सत्ता है। अब हमें अपनी सत्ता को पकड़ ना है, अपनी सत्ता को महसूस करना है। कैसे महसूस करना? उस सत्ता को अगर हम इसी तरह से काल की सीमा से परे ले जाकर समझेंगे तब हमें अपनी सत्ता महसूस होगी कि मेरी सत्ता है। तब भी थी अब भी है। क्या समझ आ रहा है? जब सत्ता है, तो द्रव्य है। द्रव्य है, तो गुण हैं। गुण हैं तो पर्याय है। ये सब आगे आने वा ला है। अपनी सत्ता को स्वी कार करना, existence अपना स्वी कार करना, यह ी द्रव्य का अपना स्व भाव है और इसी द्रव्य के स्व भाव को स्वी कार करने के लि ए आपको अपना मन थोड़ा सा लंबी या त्रा पर लगाना पड़े ड़ेगा। छोटी या त्रा पर लगाने से मन कभी भी टिकेगा नहीं। अतः लंबी या त्रा क्या कहलाएगी? अनादि कहने से काम नहीं चलेगा, आप बैठ जाओ शान्ति से और मन के लि ए बताते चले जाओ कि तू इससे पहले भी था , तू इससे पहले भी था , तू तब भी था , तू तब भी था , तू तब भी था । कौन? मन नहीं, मन से कहो कि तेरा ये जो आत्मा है वह इससे पहले भी था , इससे पहले भी था और इसको हर क्षेत्र में घूमाओ। कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जिस क्षेत्र में यह ना रहा हो। हर क्षेत्र में, चाह े कोई सा भी क्षेत्र आपको या द आ जाए दुनिया के हर कोने कोने में जो है मन से कह दो कि देख तेरा जो अस्तित्व है, आत्मा के साथ है, वहा ँ भी था , वहा ँ भी था , वहा ँ भी था । मन को बताना है केवल अपनी आत्मा का अस्तित्व पहले वहा ँ भी था , वहा ँ भी था , वहा ँ भी था । मन हो या न हो लेकि न आत्मा तो था क्योंकि आत्मा का स्व भाव मन से जुड़ा हुआ है। ऐसा नहीं जैसा आत्मा का अपने सत्ता गुण से जुड़ा हुआ उसका स्व भाव है। आत्मा तो एक अपने अस्तित्व स्व भाव के साथ परि पूर्ण है लेकि न मन आत्मा की एक पर्याय है और वह पर्याय , वह परि णति जब कभी उत्प न्न होती है। जो मन की पर्याय का आत्मा के साथ रहना है, वो हमेशा का रहना नहीं है कि जब-जब आत्मा था तब-तब मन था । ऐसा नहीं है। जब-जब मन है तब-तब आत्मा अवश्य है। समझ आ रहा है न? ये भी logic होते हैं। जब-जब आत्मा है तब-तब मन हो ऐसी बात नहीं है लेकि न जब-जब मन है तब-तब आत्मा अवश्य है क्योंकि आत्मा की पर्याय मन है। बि ना आत्मा के मन हो नहीं सकता। इसी का न्याय ग्र न्थों में जो logic वा ले ग्रन्थ होते हैं, उनमें जहा ँ-जहा ँ धुआँ है, वहा ँ-वहा ँ अग् नि है। लेकि न जहा ँ-जहा ँ अग् नि है, वहा ँ-वहा ँ धुआँ हो जरूरी नहीं है। इसी तरीके से जब हर चीज निय मबद्धता के साथ चलती है, तो उससे हम समझ सकते हैं कि हमारी आत्मा का अस्तित्व कि सी भी काल की मर्या दा से जुड़ा हुआ नहीं, कि सी भी क्षेत्र की मर्या दा से जुड़ा हुआ नहीं है।

जीव ने अनन्त काल से पंच परावर्त न किया है
आप ये देखें कि यह तीन लोक जिसमें की ये जीव घूमता है और उस लोक के जितने भी space point हैं, स्था न, प्रदेश या क्षेत्र हैं, उस स्था न में ऐसा एक भी स्था न नहीं है जहा ँ पर इस जीव ने न जन्म लिया हो या न ही मरण किया हो। ये कहा गया है। कि स में? आगम में! समझ आ रहा है? हर स्था न पर इस आत्मा ने जन्म भी लिया है। जीव ने और हर स्था न पर इसने मरण भी किया है। इसी को बोलते हैं- क्षेत्र परावर्त न। पंच परावर्त न सुने हैं- द्रव्य परावर्त न, क्षेत्र परावर्त न, काल परावर्त न, भव परावर्त न और भाव परावर्त न। ये परावर्त न का मतलब है कि ऐसा कोई भी वह परिवर्त न का क्रम नहीं बचा जिसमें इस जीव ने अपनी सहभागि ता न दर्ज करा ली हो। जीव ने अपनी सहभागि ता हर द्रव्य के साथ दर्ज करा ली है। हर द्रव्य के साथ रह चुका है, हर क्षेत्र में रह चुका है, हर काल में रह चुका है, हर भव में रह चुका है, हर भाव में रह चुका है और जब सब में पूरा करके पुनः फिर उसी में रहना शुरू कर देता है तब इसको जो है एक परावर्त न बोलते हैं। कैसा सब में पूरा करके मतलब इस जीव की कि सी भी एक स्था न से इसकी या त्रा शुरू करो। जैसे- क्षेत्र परावर्त न है, तो इसकी या त्रा कहा ँ से शुरू की जाती है? जो पूरा लोक है उसका मध्य भाग जो होता है वह सुमेरु पर्व त का स्था न कहलाता है और उसमें भी जो पूरा मध्य भाग आता है वह सुमेरु पर्व त के नीचे एक आठ प्रदेश होते हैं, जो पूरे उस 14 राजु के मध्य भाग वा ले आठ प्रदेश कहलाते हैं। वहा ँ से इस जीव को बि ठाकर एक-एक प्रदेश बढ़ा ते, बढ़ा ते, बढ़ा ते, बढ़ा ते हर एक प्रदेश पर जन्म ले रहा है। एक तो असंख्या त प्रदेश जितना घेर रहा है, घेर रहा है। फिर उसके साथ एक point बढ़ाया फिर उसमें भी उसने जन्म लिया , मरण किया वो भी असंख्या त बार जन्म किया , मरण किया । फिर एक क्षेत्र बढ़ाया , एक प्रदेश बढ़ाया , फिर 1 point बढ़ाया । ऐसे 1 point बढ़ा ते, बढ़ा ते, बढ़ा ते पूरे लोक का क्षेत्र नाप लो। जहा ँ पर जीव ने जन्म भी लिया , एक-एक point पर और मरण भी किया । जब पूरा क्षेत्र नप जाए तब समझ लेना एक परावर्त न पूरा हो गया फिर वह ी से फिर शुरू कर देना। अब वो कहानिया ँ तो बहुत सारी रहती है लेकि न यह basic story है जो सबके साथ चलती है। महा राज के साथ नहीं, सबके साथ चलती है। पंच परावर्त न सबने कर लि ए हैं। कोई भी जीवात्मा ऐसा नहीं होता जिसने ये पंच परावर्त न का पूरा का पूरा परि णाम न कर लिया हो और यह पंच परावर्त न उसके इस रूप में होते रहते हैं। अगर वह नहीं करेगा तो कहा ँ होगा? या तो नि गोद में पड़ा रहेगा, नहीं करेगा तो वह ीं पड़ा रहेगा। नहीं तो पंच परावर्त न हर भव के साथ में त्र स पर्याय के आने पर हो ही जाते हैं। यह समझने की चीज है कि यह क्षेत्र परावर्त न इतना बड़ा है। चलो हम कहते हैं आप अपने उस globe को जो आपने अपने सामने रख रखा है, अपनी दुनिया समझ रखा है, उसी पर चलो। एक-एक point पर मन को घुमाते हुए देखते जाओ कि पहले आत्मा यहा ँ पर भी जन्म ले चुका, यहा ँ पर भी जन्म ले चुका, यहा ँ पर भी जन्म ले चुका, यहा ँ पर भी जन्म ले चुका है। आप पूरे भारत को भी नहीं पूरा पाओगे मतलब इतना बड़ा क्षेत्र है कि आप बैठे-बैठे सुबह से शाम तक अपना पूरा का पूरा time एक-एक क्षेत्र के चिन्तन में लगा दोगे तो भी पूर्ति र्ति नहीं होगी और फिर सारा देश, विदेश, जल, सागर हर स्था न पर आत्मा का जन्म होना और हर स्था न पर आत्मा का मरण होना लेकि न उसके अस्तित्व का, उस द्रव्य का कभी भी विनाश नहीं होगा। तब आपको इस द्रव्य पर विश्वा स होगा जो यहा ँ बताया जा रहा है।

मन को स्थिर करने से धर्म ध्यान होगा
अभी आप पढ़ लेते हो परन्तु विश्वा स में नहीं आ रहा है कि द्रव्य अपने अस्तित्व के साथ है। अपने सत्ता गुण के साथ हमेशा विद्यमान है। यह चिन्तन करने से ही आपकी श्रद्धा का विषय बनेगा और यह चिन्तन करोगे तो जैसे मैं बता रहा हूँ, तीन लोक के अन्दर जितने भी असंख्या त द्वी प-समुद्र हैं, नरक हैं, स्वर ्ग हैं, उन सब पर अपना चिन्तन ले जाओ कि हर एक point पर मेरा आत्मा जन्म ले चुका, मरण कर चुका, फिर भी मेरी आत्मा का अस्तित्व कभी भी समाप्त नहीं हुआ और न होगा। यह ी मेरी आत्मा का द्रव्य है, यह ी मेरी अपनी सत्ता है, यह ी मेरा अपना अस्तित्व है। यह सारा का सारा चिन्तन आपको कैसा लग रहा है। महा राज! फिजूल की बातों में उलझाने से मन को क्या मि लेगा? बेवजह time खराब करते रहो बैठे-बैठे आप भी कर रहे हो और हमारा भी करवा रहे हो। ऐसा ही सोचने में आ रहा है क्या ? जब तक आप इस रूप में time खराब नहीं करोगे तब तक आपको time की कीमत भी समझ में नहीं आएगी। जिसे आप फिजूल समझ रहे हो वह ी वस्तु तः धर्म -ध्या न है। यह सब क्या है? यह धर्म -ध्या न है और तुम जो कर रहे हो वह बच्चों वा ला खेल है। क्या कर रहे हो? मन तू इसमें लग जा, मन तू उसमें लग जा, मन तू पूजा में लग जा कि णमोकार में लग जा, भक्ता म्बर में लग जा, इस स्तोत्र में लग जा, उसमें लग जा, वह कभी नहीं लगने वा ला। ये सब आपका बच्चों जैसा खेल है। मन को कि समें लगाओ? जो यह तीन लोक में भरी पड़ी हुई शाश्वत चीजें हैं इसमें लगाओ। इसमें अगर मन लगेगा तो यह आपका धर्म -ध्या न कहलाय ेगा। अरे! यह लगने के लि ए कुछ करना ही नहीं। तीन लोक का नक्शा अपने दिमाग में लाकर एक-एक point पर मन को बि ठाते चले जाओ। अब तू यहा ँ से आ गया , यहा ँ भी जन्म ले लिया , मरण कर लिया । थोड़ा और खि सक जा, यहा ँ जन्म ले लिया , मरण कर लिया । फिर यहा ँ से थोड़ा और हट जा। क्या रुक-रुक कर रहे हो? चलो ठीक है नहीं रुका। कहा ँ गया ? ठीक है, तू सीधा चला गया । छूटा, कहा ँ गया ? सीधा लोक के अग्र भाग पर पहुँ च गया । चल ठीक है, वह ीं रुक जा। अब चल वहा ँ से, वहा ँ से खि सक गया । फिर चल कर आ गया । चलकर कहा ँ आ गया ? मध्य लोक में आ गया । जंबूद्वी प में आ गया । फिर हाथ से नि कल गया । जंबूद्वी प से नि कला घूमता-घूमता, फिर हाथ से नि कल गया । जंबूद्वी प से फिर नि कला, फिर कहा ँ गया ? चलो! मानुषोत्त र पर्व त पर चला गया । मानुषोत्त र पर्व त पर, वहा ँ से उसको घुमाते-घुमाते वह फिर चला गया । फिर कहा ँ चला गया ? असंख्या त द्वी प समुद्र में चला गया । स्वय ंभूरमण समुद्र में चला गया । उसको ले जाओ, जहा ँ जा रहा है, जाने दो। लेकि न उसे इतना एक विस्ता र तो दे दो जहा ँ पर वह घूमता रहे, आप बैठे रहो, बस देखते रहो, उसे और कुछ मत कहना। उसे केवल यह कहना कि तू यहा ँ पर भी जन्म ले चुका, यहा ँ पर भी मरण कर चुका। जहा ँ जाना है, जाओ। अब कहा ँ जा रहा है? कहा ँ लग रहा है? इस घर में, अपनी कोठी में। देख! इस कोने में भी तू जन्म ले चुका, मरण कर चुका। इस कोठी के इस कोने में यह ी आत्मा जन्म ले चुका, मरण कर चुका। बोलो-बोलो कहा ँ जा रहा है मन? बता दुकान में, चलो दुकान में। ले जाओ दुकान में भी एक-एक point पर। जितना भी क्षेत्र दुकान का है, एक-एक point पर यहा ँ पर भी तू कोई न कोई नि गोद जीव बन करके, कीड़ा बनकर जन्म ले चुका, मरण कर चुका। सब कर चुका। अरे! करना-धरना कुछ नहीं तुम्हें तो बातें करना है। थकान हो जाएगी, थक जाने दो! थक कर कहा ँ जाएगा? आएगा तो अपने पास ही न कहा ँ जाएगा? उसकी डोर तो अपने ही पास है। आत्मा के बि ना तो मन का कोई अस्तित्व नहीं है कि कहीं बाह र नि कल जाएगा, या थक कर कहीं बाह र टूट कर गि र पड़े ड़ेगा। आएगा तो लौट कर यही  न। जब थक जाएगा तो कहाँ जाएगा? बच्चा खेल रहा है। अब उसको थका दिया । चल वहाँ से वहाँ दौड़ , वहाँ  से वहाँ  दौड़ , वहाँ  से वहा ँ दौड़ तो दौड़ ते-दौड़ ते थकेगा, आप उसको पकड़ रहे थे। वो बार-बार इधर दौड़ रहा था , बार-बार उधर दौड़ रहा था । आप फिर कहते हैं यहीं  बैठ जा, फिर वह ीं पहुँ च गया । मना करता हूँ, वहा ँ मत जाया कर, फिर वह ीं बैठ गया । फिर बुला लिया फिर वह ी पहुँ चा दिया । अब उसको इतना दौड़ा दो कि वह थक करके सो जाए। तुम अपना काम करते रहोगे, नहीं समझ आ रहा ? control-control क्या होता है? control भी बच्चों वा ला control है। वह तुम्हें control कर रहा है। उसको इतना दौड़ा दो, इतना थका दो कि उसके बाद में जब वह सो जाए तो तुम्हें फिर अपनी आत्मा का ध्या न लग जाए।

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#4

अपनी आत्मा का ध्यान ही धर्म ध्यान है

ऐसे ही लगाया जाता है, आत्मा का ध्या न। इसलि ए इस ध्यान को कहते हैं- संस्थान वि चय धर्म ध्यान। एक धर्म ध्यान, एक दिन पहले बताया था न- आज्ञा विचय। वह पहले नम्बर का ध्या न है और चौथे नम्बर का जो ध्यान है, वह है यह संस्थान विचय धर्म -ध्यान। उस धर्म -ध्यान का first point बताया था , एक दिन आपको। आपको ध्यान हो तो आज्ञा विचय है। 4 धर्म ध्यान होते हैं। नाम लिख लो अगर लि खना हो तो। पहला धर्म ध्यान होता है= आज्ञा विचय धर्म -ध्यान, 
दूसरा होता है- अपाय विचय धर्म -ध्यान, 
तीसरा होता है- विपाक विचय धर्म -ध्यान, 
और चौथा होता है- संस्थान विचय धर्म -ध्यान। 
आज्ञा विचय ,अपाय विचय, विपाक विचय और संस्थान विचय।
ये संस्था न विचय धर्म ध्या न हम आपके लि ए बता रहे हैं। ये आपको इसीलि ए नहीं होता क्योंकि आपको लोक के संस्था न की माने आकार की knowledge नहीं होती। उसमें कि तने द्रव्य, कि तनी आत्मा एँ, कि तने शरीर, कि तनी अवगाह नाएँ, कि तनी वहा ँ की height इत्या दि, कि तनी उम्र। ये सब चीजें जब होती हैं तो उसी में मुनि महा राज अपना मन लगाए, लगाए, लगाए उस मन को थका-थका करके बिल्कु बिल्कु ल उसे राग-द्वेष से रहि त बना लेते हैं। इसलि ए जो ये धर्म -ध्या न हैं ये मुनि महा राज ही मुख्य रूप से कर पाते हैं। इसलि ए आपको नहीं होता क्योंकि आप को अपने घर की कोठी और दुकान के अलावा कोई तीसरी चीज मालूम नहीं होती। समझ आ रहा है? जब आप इसको इस रूप में फैला कर अपने ज्ञा न में इस रूप से चिन्तन करोगे तो ये आपके लि ए धर्म ध्या न का कारण बनेगा। इसलि ए कहा है कि छोटी-मोटी चीजों में मन लगाने से कभी मन लगता नहीं है। उसको कुछ अच्छा विस्ता र दो। जो मन है अपने आप बच्चे की तरह घूमते-घूमते घूमते-घूमते जब सो जाएगा, थक जाएगा, फिर आपको अपनी आत्मा की अनुभूति आनन्द से होगी क्योंकि अब मन तो सो गया । ऐसा कभी आपके साथ तो होना नहीं है। आप कहोगे यहा ँ लगाया , वहा ँ लगाया । यहा ँ लगाया णमो अरिह ंताणं, णमो सिद्धा णं। अब मन लगाने में ही तुम अपना मन खराब कर रहे हो और मन लगाने में ही tension ले रहे हो तो उससे क्या मि लने वा ला? ऐसे कभी मन लगता ही नहीं। क्या सुन रहे हो? मन लगाने के लि ए भी tension लेना पड़े ड़े तो मन लगेगा कैसे? मन कभी भी tension के साथ नहीं लगता है। मन तो बिल्कु बिल्कु ल सहज स्व स्थ भाव के साथ लगता है और वह स्व स्थता तब आती है जब आपके अन्दर और कोई बाह री चीजों की चिन्ता न पड़ी हो। नि श्चि न्तता अगर आई तो मन लगेगा और चिन्ता आई तो मन नहीं लगेगा। क्या समझ आया ? बाह री चीजों की चिन्ता ? कोई भी चिन्ता बाह री चीज की। चलो हम ध्या न करने बैठ गए। बेटी आ गई होगी स्कू स्कू ल से 3:00 बजे का time हो गया । अरे ध्या न तुम यहाँ  कर रहे हो कि बच्चा स्कू स्कू ल से आ रहा है, यह ध्या न कर रहे हो। जब तक बैठे हो आँख खोलकर तब तक या द नहीं आएगी और जैसे ही आँख बन्द करके बैठोगे सबसे पहले वही  याद आएगा। यहाँ  बैठा हूँ, दुकान बन्द करके तो आया नहीं, नौकर को बि ठा आया , कहीं वह चाय पीने न चला गया हो। वो ध्या न आ गया है। यहाँ बैठी हूँ, आज काम वा ली आई नहीं। सुबह के बर्त न धुले नहीं। शाम का भोजन कैसे बनेगा? ये क्या होता है? आप बाह री चिन्ता से मुक्त नहीं हो इसीलि ए आपका मन लगता नहीं। अब आप अपने मन को लगा रहे हो, णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं। महा राज ने एक माला फेरने का निय म दे दिया है। शाम को भोजन कैसे बनेगा? णमो अरिहंताणं! णमो सिद्धा णं! आपका मन इसलि ए नहीं लगता क्योंकि आपने मन को नि श्चि न्त नहीं बनाया । पहले मन को क्या बनाओ? नि श्चि न्त। नि श्चि न्त का मतलब सो नहीं जाओ। कोई चिन्ता नहीं बाह र की, कोई हमें फिक्र नहीं, ऐसा सोच कर जब बैठोगे तब आपके लि ए कि सी भी चीज में थोड़ा सा मन लगेगा। तब भी ज्या दा नहीं लगेगा, तब भी थोड़ा सा लगेगा। मन का यह स्व भाव है कि उसे पहले उसे चिन्ता से रहि त किया जाए। चिन्ता से रहि त होगा तो फिर आप मन को यह जो ज्ञान के विषय दिए जा रहे हैं इनमें जहाँ कहीं पर भी उसको ले जाओगे वह चला जाएगा। ये कब होता है? जब बाह री कोई चिन्ता नहीं पड़ी हो। इसीलि ए कहा जाता है कि जब तक आपके पास में घर है, दुकान है, पत्नी है, बेटे हैं, गाड़ी है, बंगले हैं, ग्राह क हैं, रि श्तेदार हैं, सम्बन्धी हैं तब तक आपका मन निश्चिन्त नहीं होगा। क्या करोगे फिर? बस अब लोग पूछते हैं न कि मुनि महाराज क्यों बनना चाहि ए? साधु क्यों बनना चाहि ए? बाह री नि श्चि न्तता को लाने के लि ए आपको यह सब चीजें छोड़ देनी पड़ेंगी।
धर्म
ध्यान प्रमाद रहित अवस्था में होता है
जब तक बाह री नि श्चि न्तता नहीं आएगी तब तक भीतर की नि श्चि न्तता की शुरुआत नहीं होती। धर्म -ध्यान की। इसलि ए कहा गया है, धर्म -ध्या न वास्तव में जो शुरू होता है वह अप्रमत्त गुणस्था न से शुरू होता  है। सातवें गुणस्था न से धर्म -ध्या न शुरू होता है, ऐसा एक आचार्य महा राज का कहना है। माने एक पूर्व आचार्यों का? एक ऐसी परम्परा है। आप लोग कहते हैं चौथे गुणस्था न से शुरू हो जाता है। वह भी एक परम्परा है। सम्यग्दर्श न के साथ धर्म -ध्या न शुरू हो जाता है। ये भी मान लिया जाता है लेकि न मुख्य रूप से जो धर्म ध्या न शुरू होता है, वह कहाँ  से? अप्रमत्त गुणस्था न से। मुनि महा राज के लि ए भी जब प्रमत्त गुणस्था न है, प्रमत्त का भाव है मतलब प्रमाद का उदय चल रहा है तब तक वह भी धर्म -ध्या न नहीं कहेंगे। वो होगा लेकि न उपचार से कहा जाएगा, मुख्यता से नहीं। मुख्य का मतलब जिसका नाम वास्तव में धर्म -ध्या न ही कहा जाए तो वह मुख्य धर्म -ध्या न जो है, वह अप्रमत्त अवस्था के साथ ही होता है। बिल्कु बिल्कु ल प्रमाद रहि त अवस्था । जब वहाँ  धर्म -ध्या न शुरू हो रहा है, तो अब आपका ध्या न कि समें होगा यह आप सोच लो। अतः दूसरे आचार्यों ने आपके लि ए जो धर्म ध्या न कहा है कि भाई सम्यग्दृष्टि हो गया तो इसके लि ए धर्म -ध्या न कहना चाहि ए, यह भी धर्म -ध्या न होता है। चौथे गुणस्था न से भी धर्म -ध्या न शुरू हो जाता है। वह कि स रूप में हो जाता है? वो सिर्फ सिर्फ इतने रूप में हो जाता है कि आपकी श्रद्धा , आपका विश्वा स इस बात पर आ गया कि यह तीनों लोक हैं। इसमें यह छह द्रव्य भरे पड़े ड़े हैं। हमारा भी आत्मा उसमें एक द्रव्य है। उस द्रव्य का हमारा अस्तित्व बना हुआ है। अनादि-अनि धन मेरा आत्मा द्रव्य है। ऐसा जो हमने अपने विश्वा स में ज्ञा न में बि ठा लिया और वह बैठा हुआ है, तो वह भी एक धर्म -ध्या न कहलाता है, सम्यग्दर्श न के साथ में। मन का स्व भाव तो है, चिन्ता करते रहना। दुकानदारी करते रहना तो वह भी चलता रहता है लेकि न विश्वा स तो भीतर पड़ा रहता है। इसीलि ए भी आचार्य कहते हैं कि चलो गुणस्था न से भी धर्म -ध्या न होता है लेकि न वह भी कैसा है? मुख्य रूप से धर्म -ध्या न नहीं है। वह सब काम चलाऊ है, उपचार से है। मुख्य रूप से धर्म -ध्या न प्रमाद से रहि त होकर बाह र और भीतर से जो नि श्चि न्तता आती है, उस से शुरू होता है। ये इतनी मनोवैज्ञानि क चीजें हैं कि हम इसको समझने के लि ए अगर प्रया स करे तो समझ में आएगा कि हमें बाह री चीजों से क्यों बचना? बाह री चीजें क्यों छोड़ ना? समझ आ रहा है? कुछ लोगों को शौक होता है ये छोड़ दो, वो छोड़ दो। छोड़ तो दो करोगे क्या छोड़ कर? पहले यह तो पता होगा। कि सी को कुछ पता नहीं होता है, तो वह प्रश्न खड़ा करते हैं कि छोड़ ने से क्या होता है? नि श्चि न्तता आती है। जब कुछ हमारा है ही नहीं, कुछ भी जल जाए, मर जाए, कट जाए क्या फर्क र्क पड़ रहा है? कोई नि श्चि न्तता है नहीं? आप सोचो तो आपकी चिन्ता कहाँ  लगती है? जहा ँ पर आप ने यह मान लिया कि यह मेरा है। बस उसी में आपको चिन्ता लग गई कि मि ट न जाए, जल न जाए, कट न जाए, नष्ट न हो जाए? अगर नहीं है, तो कुछ नहीं है। आप यहाँ  बैठे हो आपके घर में चोर चला गया । डरो नहीं! अभी नहीं गया । अब ऐसा होने लगा है। दिल्ली में भी ऐसा होने लगा है। अभी कल ही कोई बता रहा था कि एक महि ला यह ीं पर है, जो आहा र देने गई। उसके घर पर चोर घुस गए। मतलब दिल्ली में तो यह बड़ी आम बात हो गई है। कोई भी colony safe नहीं है। चलते रास्ते चेन खींच लेना, पर्स खींच लेना है, mobile खींच लेना, सब आम बात है। अब आपके लि ए जब वहा ँ पर यह भाव आया कि मेरा घर है। कि सी ने खबर दी, flat - 361 में चोरी हो गई। अब जैसे ही यह नम्बर सुनोगे कि सके लि ए चिन्ता पड़े ड़ेगी? जिसका होगा उसको ही पड़े ड़ेगी। जो बगल में बैठा होगा उसके बगल वा ला उठेगा। भाई! मेरे घर में चोरी हो गई मैं जा रहा हूँ। हा ँ ठीक है, तू जा मैं तो अभी प्रवचन सुन रहा हूँ। उसको कुछ नहीं है। क्यों नहीं है? क्योंकि उसका नहीं है। उसका नहीं है, तो वह नि श्चि न्त होकर सुनता रहेगा और जिसका होगा तो वो उसी समय उठ कर जाएगा। बोलेगा महा राज! आप के प्रवचन तो बाद में सुन लूँगा पहले देखूँ तो घर में क्या -क्या ले गया , क्या नहीं ले गया , क्या समझ में आ रहा है? चिन्ता हमारी बाह री चीजों से जुड़ी हुई है और उसी बाह री चीजों के कारण से जुड़ी चिन्ता में पड़ा हुआ मन कहाँ  लगेगा? जहाँ  मन जुड़ा है उसी में तो लगेगा। आपका पैसे कमाने में मन है। आप आँख बन्द करके बैठ जाओ तो पैसे ही पैसे दिखेंगे। आपको कुछ नहीं दिखेगा। आपका मन जिस चिन्ता में पड़ा है, आपके लि ए मन वहीं पर लगेगा और इसलि ए वह धर्म -ध्या न हो नहीं पाता।


द्रव्य, गुण और उनके अस्तित्व की अभिन्नता का श्रद्धान्
गृहस्थ अब क्या करें? आचार्यों ने कहा कि भाई कम से कम तू ध्या न की बात तो छोड़ । तू कम से कम श्रद्धा न और ज्ञा न ही कर ले अच्छे ढंग का। क्या कर ले, हा ँ श्रद्धा न और ज्ञा न कर ले। विश्वा स ही कर ले कि सी चीज पर ढंग से। जिनेन्द्र भगवा न का यह उपदेश है, इस पर विश्वा स कर ले। ‘जि णोवदेसोयं’ यह जिनेन्द्र भगवा न का उपदेश है कि जो द्रव्य का स्व भाव है वह अपने गुणों से अभि न्न रूप के साथ चलता है और वह सत्ता स्व भाव द्रव्य का हमेशा अपने गुण के साथ बना रहता है। यह श्रद्धा न कर ले। मेरी आत्मा का द्रव्य, मेरे ज्ञा न, दर्श न, सुख आदि गुणों का अस्तित्व हमेशा आत्मा में अभि न्न रूप से बना हुआ है। यह कभी भी न नष्ट हुए हैं, न होंगे। इतना श्रद्धा न कर ले। फिर घर का काम करते रहना, दुकान करते रहना कोई बात नहीं। इतना विश्वा स तो कर ले। वह भी नहीं करता। अब इतना विश्वा स कर लेगा तो चल तेरे लि ए क्या हो जाएगा? तेरे लि ए धर्म -ध्या न एक उपचार से कहने-सुनने लाय क, एक तेरे लि ए धर्म -ध्या न कहने में आ जाएगा। मतलब जो धर्म -ध्या न आगे के लि ए हमें मुख्य रूप से बनाने का कारण हो उससे पहले का वह धर्म ध्या न उपचार से अभी तेरे लि ए कहने में आ जाएगा कि हाँ  भाई! तेरा भी धर्म ध्या न चल रहा है। सम्यग्दर्श न चल रहा है, तो इतने श्रद्धा न और विश्वा स को बनाए रखने के बाद ही वह धर्म -ध्या न की शुरुआत होती है। जिसकी यह भी श्रद्धा और विश्वा स नहीं है, क्या धर्म ध्या न करेगा, मन लगाने के लि ए बैठ जाता है और मन कहीं का कहीं चलता रहता है। वह अपना सब काम करता रहता है आचार्य कहते हैं ये जिनेन्द्र भगवा न का उपदेश है, जैसा अपने आत्म द्रव्य के लिये  लगाना वैसे ही सब आत्म द्रव्य के लिए लगाना और इसी में मन को लगा तो, तेरा कुछ ना कुछ धर्म ध्या न होता रहेगा। मन को केवल दुनिया के बाह री कौन सी चीज का क्या भाव चल रहा है? कौन से rate down हो गए? कि स के rate बढ़ गए हैं? कौन सा plot बि क गया ? कौन सा कहाँ  पर छूट गया ? इसी में लगा रहेगा तो कभी भी धर्म -ध्यान होने वा ला नहीं। मन तो उस में ही लगा है न, मन को उस विषय में लगा ले, जिनेन्द्र भगवा न के उपदेश में, जो बात कही गई है। उसमें अगर मन को लगा देते हैं तो वह धर्म -ध्या न का नाम पा लेता है। जितना लग जाए उतना लग जाए, विश्वा स करले, इतना भी हो जाए तो भी वह धर्म -ध्यानी कहलाने का अधि कारी हो जाता है। मुख्य रूप से नहीं सही, उपचार से ही सही। शुरुआत तो होती है कहीं न कहीं से तो यही बात यहाँ  पर कहीं जा रही है। इसीलिए आचार्य कहते हैं:-


“द्रव्यत्व का स्व परिणाम सदा सुहाता, अस्तित्व धाम गुण सो जिन शास्त्र गाता।
सत्ता स्वभाव भर में स्थित द्रव्य सोही , है सत्त रहा कि इस भांति कहें विमोही ”

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#5

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार गाथा -18 

‘णत्थि गुणोत् ति य कोई’ देखो! कोई ये कोई हिन्दी में बोलते हैं न, कोई आदमी! ये क्या है? प्रा कृत है, यह । कोई गुण ऐसा नहीं है ‘पज्जा ओत् तिह वा’ और ऐसी कोई पर्याय नहीं है वि णा दव्वं ’ जो द्रव्य के बि ना हो जाय े। क्या कहा ? ऐसा कोई गुण नहीं जो द्रव्य के बि ना हो। अब लोग कहते हैं, ज्ञा न, ज्ञा न ,ज्ञा न। समझ आ रहा है? ज्ञा न रहता कहा ँ है? ज्ञा न का आधार कहा ँ है? द्रव्य में! आत्म द्रव्य तो मानते नहीं हैं और ज्ञा न-ज्ञा न चिल्ला ते रहते हैं। ज्ञा न कहा ँ है? बुद्धि में। ये ज्ञा न यहा ँ रहता है। बस खोपड़ी चली गयी, ज्ञा न चला गया । ज्ञा न चला गया तो आत्मा तो थी नहीं, सब चला गया । ज्ञा न गुण है, दर्श न गुण है, ज्ञा न और दर्श न जो हमारी प्रक्रिया चल रही है, ये कहा ँ है? आत्म द्रव्य के बि ना नहीं हो सकती, क्योंकि गुण कभी भी द्रव्य के बि ना नहीं होते और पर्याय भी बि ना द्रव्य के नही होती।

द्रव्य का द्रव्यत्व, द्रव्य का अस्तित्व भाव है
अब जिस तरीके का भी हमारा ज्ञा न है, मति ज्ञा न, श्रुत ज्ञा न ये सब उसकी पर्याय हैं। ये पर्याय भी आत्म द्रव्य के बि ना नहीं हैं। चक्षु दर्श न, अचक्षु दर्श न जो ये दर्श न हैं, ये भी हमारे द्रव्य के बि ना नहीं हैं। आत्म द्रव्य के बि ना कभी भी ये ज्ञा न नहीं होता, कभी भी दर्श न नहीं होता। इसलि ए आचार्य कहते हैं- ‘दव्वत्तं पुण भावो द्रव्यत्वं ’ देखो पहले भी बताया था न आपको त्वं प्रत्यय लगता है- उसके भाव के लि ए। द्रव्य और द्रव्यत्व। द्रव्यत्व कहने का मतलब द्रव्य का जो भाव है, जिससे द्रव्य हमें पकड़ में आता है। वो द्रव्य का भाव ही उसका अस्तित्व भाव है। माने हम द्रव्यत्व कहे या द्रव्य का स्व रूप से अस्तित्व कहे, एक ही बात है। जो अस्तित्वपना है, अस्ति भाव है वह ी उस द्रव्य का द्रव्यत्व भाव है। द्रव्य का जो द्रव्यत्व है, वह पुण भावो भाव का मतलब यहा ँ पर गुण है माने द्रव्यत्व जो है, वह ी पुण क्या है! वह ी उसका गुण है। द्रव्य का गुण क्या है? द्रव्यत्व। द्रव्यत्व का मतलब अस्तित्व। अस्तित्व का मतलब हमेशा बना रहना। यह ी उसका गुण है। ‘तम्हा दव्वं सयं सत्ता ’, तम्हा माने इसलिए, द्रव्वं सयं माने स्वयं सत्ता है माने द्रव्य और सत्ता अलग अलग नहीं हैं। गुण और गुणी का भेद है। सत्ता उसका गुण है और द्रव्य वह गुणी है। जिस गुणी के अन्दर वह गुण रहता है। उसी तरह से द्रव्य के अन्दर वह सत्ता गुण हमेशा विद्यमान रहता है। यहा ँ पर जिसे सत्ता कहा जा रहा है, वह ी द्रव्यत्व है। त्व प्रत्यय उस द्रव्य के भाव को बताने वा ला होता है।
द्रव्य स्वयं सत्ता रूप है
द्रव्य का भाव , वह ी उसका अस्तित्व आत्म द्रव्य, यह तो एक द्रव्य हो गया और इस द्रव्य का द्रव्यत्व माने उसका अस्तित्व, उसकी सत्ता । यह जो आत्म द्रव्य की सत्ता है, वह सत्ता द्रव्य से पकड़ में आएगी। द्रव्य से सत्ता पकड़ में आएगी, सत्ता से द्रव्य पकड़ में आएगा क्योंकि गुण और गुणी अलग-अलग नहीं होते। जैसे हमने कहा आपकी ये सफेद शर्ट र्ट। अब आपको सफेदी पकड़नी है, तो सफेदी अलग से पकड़ में नहीं आएगी। शर्ट र्ट पकड़ोगे तो सफेदी पकड़ में आएगी। जो सफेदी है, वह ी उसका वस्त्र है और जो वस्त्र है, वह ी उसकी सफेदी है। ऐसे ही जो द्रव्य है वह ी उसका सत्ता है और जो सत्ता है वह ी उसका द्रव्य है। लेकि न फिर भी दोनों में अन्तर है क्योंकि सफेदी वस्त्र का गुण है। सफेद रूप जो वस्त्र का आकार है, वह उसकी पर्याय है। एक सफेद रूप कुर्ता है, एक सफेद रूप शर्ट र्ट है। ये सब क्या हो गयी उसकी पर्याय हो गयी। सफेदी गुण हो गया , सफेद वस्त्र द्रव्य हो गया और सफेद जो उसकी आकृति है या अलग-अलग गुणों के साथ उसका जो परि णाम है, वह उसकी पर्याय हो गयी। अतः कभी कोई भी द्रव्य होगा वह गुण और पर्याय ों के बि ना नहीं रहेगा। स्वर्ण पना, स्वर्ण होना, स्वर्ण क्या हो गया , द्रव्य हो गया , पीलापन उसका गुण हो गया । अब वो कि सके साथ रहे, चाह े वह कुँडल के रूप में हो, चाह े वह बि स्कि ट के रूप में हो, चाह े वह हा र के रूप में हो, चाह े मुकुट के रूप में हो। ये सब उसकी क्या हो गयी? पर्याय हो गयी। स्वर्ण के बि ना तो नहीं हुई। स्वर्ण के साथ में ही उसका पीलापन आदि गुण रह रहे हैं और उसकी ये अनेक पर्याय रह रही हैं। गुणों के बि ना द्रव्य का अस्तित्व, पर्याय के बि ना द्रव्य का अस्तित्व नहीं होता। इसलि ए यहा ँ कहा गया है कोई भी गुण ऐसा नहीं जो कभी द्रव्य के बि ना रहे। मानो आपको पीलापन देखना है, पीलापन कहीं भी मि लेगा तो कि सी न कि सी द्रव्य के साथ ही मि लेगा। पीला गुण अलग नि काल कर रख दो, सफेद गुण अलग नि काल कर रख दो। ये कभी सम्भव नहीं है, तो वह ी यहा ँ कहा जा रहा है। द्रव्य से सत्ता को हम पृथक नहीं कर सकते। जो सत्ता है वह ी उसका द्रव्यत्व है और जो द्रव्यत्व है वह ी उसकी सत्ता है इसलि ए द्रव्य और सत्ता स्वय ं एक दूसरे के साथ मि ले हुए हैं। ‘तम्हा दव्वं सयं सत्ता ’ इसलि ए द्रव्य स्वय ं सत्ता रूप है। बस अपनी सत्ता महसूस करो, मेरी सत्ता है। मेरी सत्ता कोई मि टा नहीं सकता है। इतनी तो हूँक भरो अपने अन्दर। हूँक भरनी पड़ेगी अपने अन्दर। हूँक जानते हो, जैसे मैं! मैं की हूँक भरते हो न, मैं ये हूँ, ऐसे ही हूँ कि भरना! मैं द्रव्य हूँ, मैं सत्ता रूप हूँ, मेरी सत्ता कोई मि टा नहीं सकता। अभी तक तो हूँक भरते थे मैं तुमसे बड़ा हूँ। मैं तुझसे लड़ूँगा, मैं तुझको नहीं छोडूँगा, अब क्या हूँक भरना? मैं सत्ता रूप हूं, मैं द्रव्य हूँ, मेरा अस्तित्व है, मेरी सत्ता कोई मि टा नहीं सकता। तम्हा दव्वं सयं सत्ता ! तम्हा दव्वं सयं सत्ता ! तम्हा दव्वं सयं सत्ता ! दव्वं सयं सत्ता ! इतना तो या द कर लो। द्रव्य स्वय ं सत्ता है, आपको दूसरी सत्ता हथिया ने की कोई आवश्यकता नहीं है। अपनी सत्ता तो प्राप्त कर लो, दूसरे की सत्ता कैसे मि लेगी। सब दूसरे की सत्ता हथिया ने में पड़े हैं। अपनी सत्ता का कि सी को कोई भान नहीं हो रहा है। इसी को कहते हैं आगे:-

पर्या य का जनन भी कब कौन होई? लो, द्रव्य के बि न नहीं गुण होय कोई।
द्रव्यत्व ही तब रहा ध्रुव जन्मनाशी, सत्ता स्वरूप खुद द्रव्य अतः वि भासी।।

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
Email: manish@frontdesk.co.in
Tel: +91 141 6693948
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#6

Gatha 17

The transformation (pariõāma) – in form of origination (utpāda), destruction (vyaya) and permanence (dhruavya) – in own-nature (svabhāva) of the substance (dravya) is, certainly, the quality (guna) of existence (sattā). Because the substance
(dravya) is established in this quality (guna) of existence (sattā), it is called ‘sat’ – that which exists. This is the Doctrine of Lord Jina. 


Explanatory Note: The own-nature (svabhāva) that every substance (drvaya) possesses, in all transformations (pariõāma),
is the quality (guna) of existence (sattā). This quality (guna) of existence (sattā) is indistinguishable from the substance (drvaya) itself as it is the own-nature (svabhāva) of the substance (drvaya). This quality (guna) of existence (sattā) is the differentia – the most ubiquitous mark – of the substance (drvaya). The substance (drvaya) is present in its quality (guõa) of existence (sattā). Because of this quality (guna) of existence (sattā), the substance (drvaya) is called ‘sat’ – that which exists. The existence (sattā) is the quality (guna) of the substance (drvaya), the possessor-of quality (gunī) .

Gatha 18 

In this world, there is no existence of either the quality (guna) or the mode (paryāya) without the substance (dravya). And, the substance (dravya) has, as its own-nature (svabhāva), the attribute of existence (sattā). Therefore, the substance (dravya) is of the nature of existence (sattā).

Explanatory Note: No quality (guna) can exist without the underlying substance (dravya). Similarly, no mode (paryāya) can exist without the underlying substance (dravya). Qualities (guna) and modes (paryāya) exist in the underlying substance (dravya). Qualities (guna) and modes (paryāya) are not distinct from the substance (dravya). As the quality of yellowness and the mode of earring have no distinction from the underlying substance (gold), in the same way, qualities (guna) and modes (paryāya) have no distinction from the substance (dravya). The nature of existence (sattā) has no distinction from the substance (dravya); the substance (dravya) is of the nature of existence (sattā).
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#7

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -17,18


अस्तिरूप परिणाम वस्तुका सत्ता सिद्ध कहाता है।
स्वयं वस्तु के साथ सत्वका यों गुण गुणिपन आता है ॥
द्रव्य बिना गुण नहीं और पर्याय नहीं कोई होती ।।
द्रव्यपणा परिणाम तथा यों द्रव्यसत्वको समझौती ॥ ९ ॥

सारांश: - द्रव्यों में सदा ही रहनेवाले स्वभावका नाम गुण है। जिसके द्वारा होनेवाला द्रव्य स्वयं विद्वानोंके विचारमें आया करता है। अर्थात् गुण आधेय हैं और द्रव्य उनका आधार है। आधारके बिना आधेय कहाँ रह सकता है, यह बात तो सरलतासे मानली जाती है परन्तु आधेयके बिना आधार भी कैसे हो सकता है, कभी नहीं होसकता है, यह बात भी मानने ही योग्य है। जैसे पत्नी पतिका आधार लेकर बनती है ऐसे ही पत्नीके बिना पति भी पति संज्ञाको नहीं पासकता है। इनमें आधार आधेयका भेद भी इसलिए है कि एक पतिके अनेक पत्नियाँ हो सकती हैं ऐसे ही एक द्रव्यमें अनेक गुण होते हैं।

मतलब यह है कि परस्पर मिले हुए अनेक गुणोंका अखण्ड पिण्ड ही द्रव्य होता है। जैसे उष्णता, पाचकता और प्रकाशकतादिका समन्वय ही अग्नि होती है। इनमेंसे एक भी यदि न हो तो अग्नि भी न हो, इन सबके होने के लिए उस एकका होना भी अवश्यंभावी है। सत्वविशेषका नाम ही गुण है और उन सबके सत्व सामान्यका नाम द्रव्य है। इसे छोड़कर न तो कोई गुण ही होसकता है और न उसके परिणमनरूप पर्याय ही हो सकती है जैसे पीला तथा भारी भी सोना ही होता है और कड़े कुण्डलादिके रूपमें भी सोना हो ढलता है।

मतलब यह है कि एक ही चीज द्रव्य, गुण और पर्यायके रूपमें परिणत होती हुई प्रतीत होती है। इसप्रकारसे परिणमन करते हुए भी अपने स्वरूपको लिए हुए रहना यहाँ द्रव्यकी द्रव्यता है, इसीका दूसरा नाम सत्ता है। द्रव्यकी इस द्रव्यता अथवा सत्ताको उपयोगमें लानेके लिए हम जैसे लोगोंके पास अब दो प्रकारकी विचारधारा प्रस्तुत है। एक साधारण और दूसरी असाधारण ।
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