प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 19,20 किस कारण से पुद्गल का सम्बन्ध होता है ?
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श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार : ज्ञेयतत्त्वाधिकार

गाथा -19 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -121 (आचार्य प्रभाचंद्र  की टीका अनुसार )

एवंविधं सहावे दव्वं दव्वत्थपज्जयत्थेहिं ।
सदसब्भावणिबद्धं पादुब्भावं सदा लहदि ॥19॥



आगे द्रव्यके द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनयकी विवक्षासे 'सत उत्पाद' और 'असत् उत्पाद' ऐसा दो प्रकारका उत्पाद होता है, सो उन दोनोंका अविरोध दिखलाते है-[एवंविधं] इस प्रकारसे [द्रव्यं] द्रव्य [स्वभावे] स्वभावमें [द्रव्यार्थपर्यायार्थाभ्यां] द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनयोंकी विवक्षासे [सदसद्भावनिबद्धं] सत् और असत् इन दो भावोंसे संयुक्त [प्रादुर्भावं] उत्पादको [सदा] हमेशा [लभते] प्राप्त होता है। 
भावार्थ-अनादि अनंत द्रव्य अपने परिणाम स्वभावमें निरंतर उत्पन्न होता है, इसको 'उत्पाद' कहते हैं । इसे जब द्रव्यार्थिकनयकी विवक्षासे कहते हैं, तब यों कहते हैं, कि द्रव्य जो जो पर्याय धारण करता है, उन उन पर्यायोंमें वही द्रव्य उत्पन्न होता है, जो पूर्वमें था, इसका नाम 'सद्भावउत्पाद' है । और जब पर्यायकी अपेक्षासे कहते हैं, तब यों कहते हैं कि द्रव्य जो जो पर्याय धारण करता है, उन उन पर्यायोंमें वही द्रव्य अवस्थाके पलटनेसे अन्य कहा जाता है, इसका नाम 'असद्भावउत्पाद' है। इन दोनों प्रकारके उत्पादको नीचे लिखे दृष्टान्तसे समझना चाहिये । जैसे-सोना अपने अविनाशी पीत स्निग्ध (चिकने) गुरुत्वादि गुणोंसे नाना कंकण कुंडलादि पर्यायोंको प्राप्त होता है। जो यहाँपर द्रव्यार्थिकनयसे विचार करें, तो कंकण कुंडलादि जितने पर्याय हैं, उन सबमें वही सोना उत्पन्न होता है, जो कि पहले था, न कि दूसरा । यह सोनेका सद्भावउत्पाद है। और जो उन्ही कंकण कुंडलादि पर्यायोंमें सोनेको पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे कहें, तो . जितने कंकण कुंडलादि पर्याय हैं, सबके सब क्रम लिये हुए हैं । इस कारण ऐसा कहा जावेगा, कि कंकण उत्पन्न हुआ, कुंडल उत्पन्न हुआ, मुद्रिका (अंगूठी) उत्पन्न हुई। ऐसा दूसरा दूसरा उत्पाद होता है, अर्थात् जो पूर्वमें नहीं था, वह उत्पन्न होता है, यह असद्भावउत्पाद है। इसी प्रकार द्रव्य अपने अविनाशी गुणोंसे युक्त रहकर अनेक पर्याय धारण करता है। सो उसे यदि द्रव्यार्थिकनयकी विवक्षासे कहते हैं, तो जितने पर्याय हैं, उन सब पर्यायोंमें वही द्रव्य उत्पन्न होता है, जो पहले था, अन्य नहीं । यह सत्उत्पाद है । और यदि पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे कहते हैं, तो जितने पर्याय उत्पन्न होते हैं, वे सब अन्य अन्य ही हैं। पहले जो थे, वे नहीं हैं-यह असत् उत्पाद है। और जैसे पर्यायार्थिककी विवक्षामें जो असत्रूप कंकण कुंडलादि पर्याय उत्पन्न होते हैं, उनके उत्पन्न करनेवाली जो सुवर्णमें शक्ति है, वह कंकण कुंडलादि पर्यायोंको सुवर्ण द्रव्य करती है। सोनाकी पर्याय भी सोना ही है, क्योंकि पर्यायसे द्रव्य अभिन्न है । इसी प्रकार पर्याय विवक्षामें द्रव्यके जो असद्रूप पर्याय हैं, उनकी उत्पन्न करनेवाली शक्ति जो द्रव्यमें है, वह पर्यायको द्रव्य करती है। जिस द्रव्यके जो पर्याय हैं, वे उसी द्रव्यरूप हैं, क्योंकि पर्यायसे द्रव्य अभिन्न है। इसलिये पर्याय और द्रव्य दो वस्तु नहीं हैं, जो पर्याय है, वही द्रव्य है। और द्रव्यार्थिककी विवक्षासे जैसे सोना अपनी पीततादि शक्तियोंसे कंकण कुंडलादि पर्यायोमें उत्पन्न होता है, सो सोना ही कंकण कुंडलादि पर्यायमात्र होता है । अर्थात् जो सोना है, वही कंकण कुंडलादि पर्याय हैं, उसी प्रकार द्रव्य अपनी शक्तियोंसे अपने पर्यायोंमें क्रम से उत्पन्न होता है । जब जो पर्याय धारण करता है, तब उसी पर्यायमात्र होता है, अर्थात् जो द्रव्य है, वही पर्याय है। इसलिये सिद्ध हुआ कि असत्उत्पादमें जो पर्याय हैं, वे द्रव्य ही हैं, और सदुत्पादमें जो द्रव्य है, सो पर्याय ही हैं । द्रव्य और पर्याय आपसमें अभेदरूप हैं, परंतु नयके भेदसे भेदरूप हैं ॥

गाथा -20 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -122 (आचार्य प्रभाचंद्र  की टीका अनुसार )

जीवो भवं भविस्सदि णरोऽमरो वा परो भवीय पुणो ।
किं दव्वत्तं पजहदि ण जहं अण्णो कहं हवदि ॥ 20॥


आगे सदुत्पादकों पर्यायसे अभेदरूप बतलाते हैं - [जीवः ] आत्मा [ भवन् ] द्रव्यस्वभावरूप परिणमन करता हुआ [ नरः ] मनुष्य वा [अमरः ] देव [वा ] अथवा [ परः ] अन्य अर्थात् नारकी, तिर्यंच, सिद्ध इन सब पर्यायरूप [ भविष्यति ] होवेगा, [पुनः ] और [ भूत्वा ] पर्यायस्वरूप होकर [ किं ] क्या [द्रव्यत्वं ] अपनी द्रव्यत्वशक्तिको [ प्रजहाति ] छोड़ सकता है? कभी नहीं, और जब [न जहत्] अपने द्रव्यत्वस्वभावको नहीं छोड़ सकता तो [ अन्यः कथं भवति ] अन्य स्वरूप कैसे हो सकता है ? कदापि नहीं हो सकता । भावार्थ -- यह जीवद्रव्य नारकी, तिर्थंच, देवता, मनुष्य, सिद्ध इन सबकी अनंत पर्यायोंको धारण करता है । यद्यपि यह जीव पर्यायोंसे अनेक स्वरूप हो गया है, तो भी अपने द्रव्यपने स्वभावको नहीं छोड़ता है। और जब अनेक पर्यायोंके धारण करनेपर भी अपनी द्रव्यत्व-शक्तिको  नहीं छोड़ता, तो अन्यरूप कभी नहीं हो सकता, जो नारकी था, वही तिथंच पर्यायमें है, वही मनुष्य हो नाता है, वही देवता तथा सिद्ध आदि पर्यायरूप हो जाता है। इन सब अवस्थाओंमें अविनाशी द्रव्य वही एक है, दूसरा नहीं । इसलिये सत्उत्पादकी अपेक्षा सब पर्यायोंमें वही अविनाशी वस्तु है, ऐसा सिद्ध हुआ 


मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार

गाथा -19
एवं अनेकविध स्वीय स्वभाव वाला , होता सुसिद्ध जब द्रव्य स्वयं निराला ।
पर्याय द्रव्य नय से वह द्रव्य भाता , भाई अभावमय भावमयी सुहाता ll

अन्वयार्थ - ( एवं विधं ) इस प्रकार ( सहावे ) स्वभाव में अवस्थित ( दव्यं ) द्रव्य ( दव्वत्थपञ्जयत्थेहिं ) द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों के द्वारा (सदसब्भावणिबद्धं पादुब्भाव) सद्भावनिबद्ध और असद्भावनिबद्ध उत्पाद को (सदा लहदि ) सदा प्राप्त करता है ।



गाथा -20 

जीवत्व जीव धरता नर देव होता , तिर्यंच नारक तथा स्वयमेव होता ।
पै द्रव्य द्रव्यपन को जब ना तजेगा , कैसा भला परपना फिर वो भजेगा ।l

अन्वयार्थ - ( जीवो ) जीव ( भवं ) परिणमता हुआ ( णरो ) मनुष्य , ( अमरो ) देव ( वा ) अथवा ( परो ) अन्य कुछ ( भविस्सदि ) होगा , ( पुणो ) परन्तु ( भवीय ) मनुष्य देवादि होकर ( किं ) क्या वह ( दबत्तं पजहदि ) द्रव्यत्व को छोड़ देता है ? ( ण जहं ) सो द्रव्यत्व को नहीं छोड़ता । हुआ वह ( अण्णो कहं हवदि ) अन्य कैसे हो सकता है ?



Manish Jain Luhadia 
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दो नय: दो दृष्टि कोण
आचार्य कुन्दकुन्द देव इस प्रवचनसार महा न ग्रन्थ की इस गाथा में द्रव्य को उसके स्व भाव में स्थि त हुआ बताते हैं और कहते हैं कि द्रव्य हमेशा अपने स्व भाव में ही स्थि त रहता है। वह स्व भाव ‘दव्वत्थ पज्जयत्थेहिं’ द्रव्यार् थिक नय से और पर्यायार् थिक नय से जानने में आता है, अनुभव में भी आता है। द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय, ये दो नय इस तरह से क्यों रखे जाते हैं? क्यों इनका आलंबन लिया जाता है?

वस्तु स्वरूप : सामान्य, वि शेषात्म क
हमें यह जानकारी होनी चाहि ए कि कोई भी पदार्थ, कोई भी वस्तु , दो रूपों में ही हमेशा बनी रहती है। एक सामान्य रूप में और एक विशेष रूप में। जो वस्तु का सामान्य विशेषात्मक धर्म होता है, उस धर्म को हम यदि जानना चाह ते हैं तो हमारे पास दो दृष्टि कोण होना चाहि ए।

नय के दो भेद : द्रव्यार्थि व्यार्थिक और पर्या यार्थि र्थिक
उन्हीं दृष्टि कोणों को यहा ँ पर नयों का नाम दिया गया है जिसे हम द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय कहते हैं। मतलब यह हुआ कि द्रव्यार् थिक नय हमें वस्तु के सामान्य गुण धर्म को बताता है और पर्यायार् थिक नय हमें वस्तु के विशेष गुण धर्म को बताते हैं। इसलि ए हमेशा दो ही तरह के नय होते हैं। द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय। कि सी के मन में यह भी प्रश्न आ सकता है कि जब तीन चीजें होती हैं- द्रव्य, गुण और पर्याय तो नय दो ही क्यों होते हैं? इसका समाधान आपको तब मि ल जाएगा जब आप द्रव्य और पर्याय ों के स्व भाव को जानेंगे। द्रव्य हमेशा अपने गुणों के साथ रहता है। द्रव्य का अपने गुणों से अन्वय रहता है। इसलि ए द्रव्य को जानने के लि ए हमें अलग से प्रया स नहीं करना पड़ ता। गुणों को यदि हमने जान लिया , उसी से ही द्रव्य की जानकारी हो जाती है। 


द्रव्य = गुणों का समूह
यूँ कहें कि द्रव्य कुछ नहीं है, अपने गुणों के समुदाय से ही वह द्रव्य बना होता है क्योंकि जो द्रव्य है, वह अनेक गुणात्मक है। अनेक गुण स्व रूप जो वस्तु है, उसी का नाम द्रव्य है। द्रव्य कहने से हमें गुणों का ग्रह ण हो जाता है और गुण कहने से हमें द्रव्य का भी ग्रह ण हो जाता है। द्रव्य की परि भाषा क्या है? आचार्य जब द्रव्य को गुणों के साथ जोड़ कर बताते हैं तो कहते हैं जो हमेशा द्रव्य के साथ जुड़े ड़े रहें, द्रव्य के साथ बने रहें, उन्हें गुण कहते हैं। जो गुण वा ला होता है, वह ी गुणी यानि द्रव्य कहलाता है। मतलब क्या हो गया ? द्रव्य गुणों के साथ हमेशा जुड़ा हुआ रहता है। अब आप कोई भी पदार्थ देखें। चाह े वो अजीव पदार्थ हो, चाह े जीव पदार्थ हो, उसमें द्रव्य जो है, वह उसके गुणों का ही एक परि णमन है। गुणों के परि णमन के साथ में उसका जो हमें लक्ष ण दिखाई देता है, वह द्रव्य के रूप में ही दिखाई देता है। इसलि ए नय माने दो दृष्टि कोण हमारे सामने रहते हैं। एक दृष्टि कोण तो वह होता है, जो हमेशा बना हुआ रहता है। हर पदार्थ के साथ में जुड़ा हुआ रहता है। वो चाह े हम गुण के रूप में कह लें या द्रव्य के रूप में कह लें। तात्प र्य यह है कि गुणों को जानने के लि ए अलग से कोई गुणार् थिक नय की जरूरत नहीं है। वह द्रव्यार् थिक नय में ही अन्तर्भू त हो जाता है क्योंकि द्रव्य का स्व भाव और गुणों का स्व भाव एक जैसा है।

द्रव्य का सामान्य धर्म ही उसका सत् गुण
हम पढ़ चुके हैं कि द्रव्य में हमेशा एक सत् नाम का गुण होता है, जिसे सत्ता गुण कहते हैं। वह सत्ता गुण ही उस द्रव्य का एक ‘विधाय क’ है जो उसकी पहचान बनाए रखने वा ला है। इसलि ए पि छली गाथा में कहा गया ‘दव्वं सयं सत्ता ’ द्रव्य स्वय ं सत्ता है। सत्ता ही द्रव्य है और द्रव्य ही सत्ता है। मतलब गुण ही द्रव्य हो जाते हैं, द्रव्य ही गुण हो जाता है। इसलि ए अलग से कि सी गुणयार् थिक नय की जरूरत नहीं है। द्रव्यार् थिक नय से ही गुणों की भी पहचान हो जाती है और द्रव्य की भी पहचान हो जाती है। हर पदार्थ में जो एक सामान्य धर्म चल रहा है, वह उसकी सत्ता को बनाए हुए है। उसकी जो सत्ता बनी हुई है, वह ी उसका द्रव्य है। इसलि ए द्रव्यार् थिक नय के माध्य म से हम द्रव्य को जान लेते हैं और पर्यायार् थिक नय के माध्य म से पर्याय को जान लेते हैं। गुणों को भी जानना होगा तो वह भी हम द्रव्यार् थिक नय के माध्य म से उन गुणों को भी जान लेते हैं। यदि हमें गुणों की पर्याय ों को जानना होगा तो पर्यायार् थिक नय से गुणों की पर्याय ों को जान लेंगे। नय तो दो ही हैं- एक द्रव्यार् थिक नय और एक पर्यायार् थिक नय। जानना हमें द्रव्य को भी हैं, गुण को भी है, पर्याय ों को भी है। इन दोनों नयों से तीनों चीजें जानने में आ जाती हैं। यह द्रव्य का स्व भाव है कि हर द्रव्य, भले ही वह हमारी जानकारी में आ रहा है या नहीं आ रहा है, अपना परि णमन इन्हीं रूप में कर रहा है। जानकारी हमें लेनी है, तो इन दो दृष्टि कोणों से हमें जानकारी लेनी पड़ गी।

द्रव्यार्थि व्यार्थिक नय : कुछ नया, कुछ पुराना
अब द्रव्य की बात आपको समझ में तब आएगी जब थोड़ा सा उदाह रण से आप उस चीज को समझने की कोशि श करें। मान लो हमें कि सी व्यक्ति की जानकारी लेनी है। द्रव्य की जानकारी लेने के लि ए व्यक्ति की जानकारी का उदाह रण समझने कोशि श करें। हमें कि सी व्यक्ति की जानकारी लेनी है। कि सी भी व्यक्ति को हमने सामने देखा तो हम उसकी जानकारी कि स रूप में लेते हैं? यह कहा ँ से आ रहा है? यह कि स स्था न का है? ये कहा ँ का रहने वा ला है? इसका परिवा र कहा ँ रहता है? इसका family background (पारिवारि क पृष्ठ भूमि ) क्या है? हमने कि सी भी व्यक्ति की पहचान करने के लि ए क्या देखा? पीछे! पहले वह कहा ँ था ? क्या था ? इसका background क्या है? समझ आ रहा ? मतलब हम क्या देखना चाह रहे हैं कि कोई ऐसी चीज है, जो इसके साथ पहले से जुड़ी हुई है। जो व्यक्ति आज हमारे सामने खड़ा हुआ है, वह तो उस रूप में है ही लेकि न इससे पहले भी ये जहा ँ था , वहा ँ पर भी ये अपने इसी सम्बन्ध के साथ था । उस व्यक्ति को हमें आज की स्थिति में जानना है, तो उसे जानने के लि ए हमें उसकी पुरानी स्थिति को भी जानना पड़ ता है। लेकि न पुरानी स्थिति में और आज की स्थिति में अन्तर भी है। यदि कोई आपसे कह दे कि यह व्यक्ति बीस साल पहले इस sector में रहता था और बीस साल पहले इस व्यक्ति का यह नाम था । इसके परिवा र में ये-ये लोग रहते थे तो आप यदि उस sector के रहने वा ले होंगे तो एकदम से उस व्यक्ति को देखते ही जान जाएँगे कि हा ँ बीस साल पहले, यह इस परिवा र का है, इस sector का है, इस family (परिवा र) का है। आपके दिमाग में आ जाएगा कि उनको भी मैं जानता हूँ। क्या मतलब हुआ इसका? जो द्रव्य हम जान रहे हैं, जो पदार्थ हम जान रहे हैं, वह पदार्थ पहले भी था । इस बात को हमने स्वी कार किया कि नहीं किया ? वह पहले भी था । जब बीस साल पहले जो था , हम उसमें कुछ न कुछ ऐसी चीज स्वी कार कर रहे हैं जो बीस साल पहले भी कि सी न कि सी रूप में, हर स्थिति में उससे जुड़ा हुआ था और वह चीज आज तक भी उसके साथ एक जैसा बनी हुई है। उसी का नाम है द्रव्यार् थिक नय। शब्द थोड़े ड़े से बदल जाते हैं लेकि न हम ज्ञा न वह ी करते हैं जिस तरीके से हमें ज्ञा न होना चाहि ए। जब हमने यह देखा कि यह उसी परिवा र का है। बीस साल पहले यह इसी स्था न पर रहता था । बीस साल पहले यह इस नाम का व्यक्ति था तो जो हमने बीस साल पहले का उससे सम्बन्ध जोड़ा , हमें पता नहीं कौन से नय से जोड़ लिया लेकि न वह द्रव्यार् थिक नय है। उसका नाम क्या है? द्रव्यार् थिक नय। यह ऐसी चीज हो गई जैसे कोई भी चीज हो रही है लेकि न हमें पता नहीं है, यह क्यों हो रही है? हम कहते हैं:- वृक्ष से फल गि रता है, तो नीचे गि रता है। यह सब जानते हैं कि वृक्ष से फल गि रता है, तो नीचे ही गि रता है। अब वह क्यों गि रता है? उसका जिसने कारण बता दिया , उस कारण के साथ में जो उस फल का ज्ञा न करने लगा तो वह कहलाया वैज्ञानि क। समझ आ रहा है? जिसने उस कारण को नहीं जाना, वैसे ही अपने लि ए काम में ला रहा था तो वह सामान्य व्यक्ति कहलाया । यह ी अन्तर यहा ँ पर है। जो चीजें हमारे सामने हैं, हम उनका जिस तरह से उपयोग कर रहे हैं, जिस तरह से हम उसकी जानकारी ले रहे हैं, वो सब चीजें हमारे साथ में चलती रहती हैं लेकि न हमें पता नहीं होता कि उनको हमें कि स-कि स तरह से देखना चाहि ए, कि स-कि स angle से जानना चाहि ए। जिस द्रव्य को हम आज जान रहे हैं, उसको हम बीस साल पहले के साथ में मि ला कर जान रहे हैं। अब आपको समझना है कि बीस साल पहले से वो चीज, जो मि ल रही है, तो वह उसी के साथ मि ल कैसे सकती है, जो बीस साल पहले थी और आज भी वह ी चीज है। इसका मतलब है, हम ये मान रहे हैं कि द्रव्य पहले भी था । बीस साल के जितने भी fraction of times हैं, जितने भी उस समय के बिन्दु बिन्दु हैं, उन सब में भी वह द्रव्य रहा और वह द्रव्य आज भी, बीस साल बाद भी बना हुआ है। यह हमारे ज्ञा न में आया तभी तो हमने स्वी कार कर लिया कि बीस साल पहले वो क्या था और अब क्या हो गया ? बीस साल पहले उसका सम्बन्ध कहा ँ था और अब कहा ँ है? ये जो सम्बन्ध हमने जान लिया , इसी का नाम है- द्रव्यार् थिक नय। सरल भाषा में इसको इस तरह समझाने की कोशि श कर रहा हूँ। क्या समझ आ रहा है?
वस्तु स्वरूप का ज्ञा न ही वि ज्ञा न
सीधा-सीधा कोई पढ़ ने बैठता है। क्या द्रव्यार् थिक नय है? क्या पर्यायार् थिक नय है? कुछ नहीं है। सब वह ी है। बात वह ी है। वृक्ष से फल गि र रहा है, हम उसको जान नहीं रहे हैं कि नीचे क्यों गि र रहा है? हमें फल का नाम भी नहीं मालूम। हमें ये भी नहीं मालूम कि कि स वृक्ष का क्या फल है? बस हम खाय े जा रहे हैं, देखे जा रहे हैं, आनन्द लि ए जा रहे हैं और हमें कुछ नहीं मालूम। जब उस चीज को जान लेते हैं तो वह एक science बन जाती है। इसी तरीके से जो वस्तु व्यवस्था हमारे सामने है, जब हम उसको जान लेते हैं तो वह हमारे सामने एक विज्ञा न बन जाता है, जिसे हम जैन विज्ञा न कहते हैं। हर पदार्थ को जानने के लि ए, समझने के लि ए, हमें दो नयों की आवश्यकता पड़ ती है। दो प्रकार के दृष्टि कोण हमारे अन्दर रहते हैं। एक पदार्थ के सामान्य स्व रूप को हमेशा बनाए रखता है और सामान्य रूप से हमें पदार्थ को continuity के साथ में जो उसके साथ ही अन्वय बना हुआ है, उस अन्वय को बनाए रखता है। उस दृष्टि कोण से जब पदार्थ को देखते हैं तो हम कहते हैं, यह द्रव्यार् थिक नय से यह पदार्थ है।
अब इस नय का आप उपयोग करो। बीस साल पहले जो व्यक्ति था , आज वह ी व्यक्ति है। कि स नय से है? द्रव्यार् थिक नय से। पाँच साल पहले, छह साल पहले, मान लो यह पुस्त क बनी हो। आज भी यह वह ी पुस्त क है। कि स नय से है? द्रव्यार् थिक नय से। समझ आ रहा है? यह नय आपकाे हमेशा काम आएगा। ये नय वस्तु को उसके साथ जोड़े ड़े रखेगा चाह े वस्तु कहीं भी पहुँ च जाए। मान लो, कोई यहा ँ का रहने वा ला व्यक्ति है, भारत का, रूस में पहुँ च गया । जब उससे पूछा जाएगा तेरा जन्म कहा ँ हुआ? क्या बोलेगा? भारत में हुआ। अपने जन्म को वो भारत से जोड़े ड़े हुए है। अपने जन्म को उस सदी से जोड़े ड़े हुए है, जिस सदी में उसका जन्म हुआ। आज वह पचास साल, साठ साल आगे बढ़ गया फिर भी अपने को पि छली चीजों से जोड़े ड़े हुए है। ये जो जोड़ ने वा ली चीज है, ये जो हमारा देखने वा ला दृष्टि कोण है कि साठ साल तक वस्तु कहा ँ रही और वह वह ी चीज है, जो साठ साल पहले थी, इसी का नाम है द्रव्यार् थिक नय। जो व्यक्ति मुख्य रूप से यह जान रहा है, उसके लि ए पहले दो नय ही सामने आते हैं।
पहले मूल में दो नय हैं, द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय। ‘नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ’ यह सब बाद के नय हैं। यह उसी में से और उसके विभाजन होते हैं। कुछ द्रव्यार् थिक नय के भेद हो जाते हैं, कुछ पर्यायार् थिक नय के भेद हो जाते हैं लेकि न मूल में नय दो ही हैं। पहले मूल चीज जान लो। विस्ता र में पड़ जाते हैं तो हम उस वस्तु की मूल स्थिति भी नहीं जान पाते हैं। हमें पहले समझना है कि हर पदार्थ जो हमें देखने में आ रहा है, वह द्रव्यार् थिक नय से देखने में आता है कि नहीं आता? पहले यह समझ लो। आप के घर में टीवी सेट रखा हुआ है। कि तना पुराना है? आठ-दस साल पुराना है। आप उसको क्या कहोगे? कि स नय से आप देख रहे हो कि आठ-दस साल पुराना है? इसी का नाम है- द्रव्यार् थिक नय। द्रव्य को जो अर्थ माने प्रयोजनीय बनाए, द्रव्य को जो देखे, उसका नाम है- द्रव्यार् थिक नय। द्रव्य तो वह ी है। द्रव्य यानि वस्तु , पदार्थ, वह वह ी है। उस वह ी चीज को जो पकड़ रहा है- वह द्रव्यार् थिक नय है। समझ आ रहा है?


पर्यायार्थिर्थिक नय
उसकी जितनी भी अलग-अलग पर्याय हो रही हैं, अलग-अलग उसकी जो परि णतिया ँ हो रही हैं, उन परि णतिय ों को, पर्याय ों को जो पकड़ रहा है, उसका नाम है- पर्यायार् थिक नय। अब हमने देखा कि दस साल बाद भी वह टीवी सेट है लेकि न उसमें पहले जैसी आवा ज नहीं रही, shining नहीं रही। पहले जैसी उसमें अब image नहीं आ रही है। यह क्या हो गया ? ये उसमें change आ गया । टीवी सेट तो वह ी है लेकि न उसकी ये जो परि णतिय ों में अन्तर आ रहा है, वो भी हमें महसूस हो रहा है। यह वह ी टीवी है लेकि न अब ये पुरानी हो गई है। हम दोनों चीजें कह रहे हैं? हम दोनों नयों का उपयोग कर रहे हैं। यह वह ी टीवी है मतलब द्रव्यार् थिक नय से देख रहे हैं। पुरानी हो गयी, पर्यायार् थिक नय से देख रहे हैं ।
प्रत्येक पदार्थ दो स्वरूप ह र पदार्थ ऐसे ही चल रहा है। चाह े आप कहो या न कहो, जानो या न जानो, कोई बताय े या न बताय े, चल तो वैसे ही रहा है। चाह े हमारा शरीर हो, चाह े हमारी आत्मा हो। हर पदार्थ के साथ में द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय के द्वा रा हमें अपने द्रव्य का ज्ञा न रखना चाहि ए। अपनी आत्मा के साथ में भी, अपने शरीर के साथ में भी। शरीर के साथ हमें ज्ञा न रह जाता है लेकि न आत्मा के साथ ज्ञा न नहीं हो पाता है। शरीर के साथ ज्ञा न इस रूप में तो रह जाता है कि हम पचास साल पहले यह थे, अब पचास साल हमारे गुजर गए हैं। हम पहले यह ी थे लेकि न पहले जैसे थे, वैसे अब नहीं रहे। यह हमारे लि ए जो ज्ञा न आता है, यह ी द्रव्यार् थिक और पर्यायार् थिक, दोनों नयों का ज्ञा न है। जो हम यह मान रहे हैं कि हम पचास साल पहले भी थे। यह क्या हो गया ? द्रव्यार् थिक नय। जैसे पहले थे वैसे अब नहीं है, यह हो गया - पर्यायार् थिक नय। बस इतनी सरल सी तो चीज है। वह सब गुण उसी द्रव्य में रहते हैं और उन्हीं गुणों के साथ द्रव्य का परि णमन चलता रहता है। गुण कभी भी द्रव्य को छोड़ कर नहीं जाते। उनका परि णमन बदलता रहता है, पर्याय बदलती रहती है। इसलि ए द्रव्य गुणों के साथ बना हुआ है, वह द्रव्यार् थिक नय से ही जानने में आता है। पर्यायाथि क नय से उसकी पर्याय जानने में आती है।

वस्तु का सत् स्वभाव, असत् स्वभाव
इसीलि ए आचार्य कहते हैं, यह द्रव्य इसी प्रकार के स्व भाव में हमेशा बना रहता है। ‘एवंविध ं सहावे दव्वं दव्वत्थ पज्जयत्थेहिं’। फिर एक चीज यहा ँ अब आगे बताई जाती है। ‘सदसब्भा वणिबद्धं पादुब्भा वं’ प्रा दुर्भाव माने उत्पा द। ये जो उत्पा द है, उत्पत्ति है, यह दो प्रकार से बन्धी हुई है। एक सत् भाव के साथ और एक असत् भाव के साथ । मतलब एक सत् भाव रूप उत्पा द होता है और एक असत् भाव रूप उत्पा द होता है। पदार्थ वह ी है लेकि न बदल भी रहा है। अतः जो बदल रहा है, वह भी उत्पा द है। जो नहीं बदल रहा है, वह भी उत्पा द है। क्या कहा यहा ँ? जो बदल रहा है, वह भी उत्पा द है। जो नहीं बदल रहा है, वह भी उत्पा द है। जो बदल रहा है, उस उत्पा द का नाम है असत् उत्पा द क्योंकि वह पहले नहीं था , अब हो गया । क्या समझ आ रहा है? पहले जो हमारा रूप रंग नहीं था , अब हो गया । पहले जो हमारी अवस्था नहीं थी, अब हो गई। पहले नहीं थी, अब हो गई। ये क्या हो गया ? यह असत् का उत्पा द हो गया । असत् माने जिसका पहले सत् था माने यहा ँ सत् शब्द का अर्थ क्या लगाना- जो पहले हमारे साथ नहीं था , जो पहले हमारे अन्दर नहीं था , अब उसका उत्पा द हमें दिखाई देने लगा। अतः ये कहलाया , पहले जो नहीं था , उसका उत्प न्न होना। ये असत् उत्पा द हो गया । समझ आ रहा हैं? लेकि न वह चीज तो वह ी थी। जो मैं पहले था , वह ी अब हूँ। यह हो गया , सत् का उत्पा द। मतलब द्रव्यार् थिक नय से देखोगे तो आपको दिखाई देगा, सत् का उत्पा द हो रहा है, सत् उत्प न्न हो रहा है और पर्यायार् थिक नय से देखोगे तो आपको दिखाई देगा कि असत् उत्प न्न हो रहा है। जो पहले नहीं था , अब उत्प न्न हो गया ।
जैसे- मि ट्टी से घड़ा बनाया । समझ आ रहा है? मि ट्टी में पहले घड़ा तो नहीं था । मि ट्टी में मि ट्टी दिखाई दे रही थी। मि ट्टी से हमने लौंदा बनाया , उसको घड़े ड़े का आकार दिया । वह घड़ा बन गया । जब हम केवल घड़े ड़े को देखेंगे तो क्या कहलाएगा? ये भी उत्पा द है कि नहीं? ये कौन सा उत्पा द
कोई भी पदार्थ हमें बता दो कि एक रूप में कहीं रह सकता हो? पदार्थ हमेशा दोनों रूपों में मि लेगा। साठ साल पहले तुम कहा ँ थे? हम यहा ँ थे। यहा ँ जन्म लि ए थे। ये हमारे सम्बन्धी थे। ये हमारी पीढ़िया ँ, ये हमारा परिवा र है। इससे हमने सम्बन्ध जोड़ कर जो जाना, ये सब क्या हो गया ? द्रव्यार् थिक नय। अब हम क्या हैं? हम यहा ँ रह रहे हैं। हमने यह ीं की अपनी नागरि कता ग्रह ण कर ली है। अब हम यह ीं के सदस्य बन गए हैं। यह ी हमारे लि ए अब निवा स स्था न बन गया है। लोग हमें अब उस रूप में नहीं जानते, इस रूप में जानते हैं जो अभी मैं वर्त मान में हूँ। ये क्या हो गया ? यह पर्यायार् थिक नय हुआ। कि ताब के साथ भी यह ी स्थिति है। पाँच साल पहले यह कि ताब थी। जब बनी थी, उस समय पर इस कि ताब की, द्रव्य की जो स्थिति थी, आज उस कि ताब की द्रव्य की स्थिति में आपको अन्तर दिखाई देगा लेकि न द्रव्य तो वह ी है। जो थोड़ा उसमें पुरानापन आ गया , पीलापन आ गया । हलकी सी पुरानी लगने लगी। यह पुरानी quality की हो गई। यह पुरानी printing है। समझ आ रहा है न? ये जो पुरानापन हमें दिखाई दे रहा है, नया पन दिखाई दे रहा है, यह सब हो गया पर्याय और चीज तो वह ी है, वह हो गयी उसका द्रव्य। हर जगह यह ी है। कोई भी पदार्थ है, वह दोनों रूपों में ही जानने में आता है। एक रूप में तो कोई पदार्थ होता ही नहीं है लेकि न ये हमने अभी तक नहीं जाना। यह हमें बताया सर्वज्ञ भगवा न ने। इसीलि ए उनके ज्ञा न से जब हम जानते हैं तो हमें लगता है कि अब हमारे अन्दर नया विज्ञा न आ गया , हर पदार्थ को जानने का, देखने का, समझने का। है? यह असत् उत्पा द है लेकि न यह असत् उत्पा द कहीं अचानक से नहीं हो गया । हुआ कि ससे? कि सके द्वा रा हुआ? कि सके साथ हुआ? कहा ँ से चल कर आ रहा है? तो वह हुआ, सत् का उत्पा द। समझ आ रहा है? हम क्या बोलेंगे? ये मि ट्टी घड़ा बन गई। अब देखो! उसमें सब समाहि त है। मि ट्टी से बनी और क्या बना? तो मि ट्टी बनी, ये क्या हो गया ? सत् का उत्पा द और जो घड़ा बना, ये क्या हो गया ? असत् का उत्पा द। जो पहले उसमें नहीं था , वह अब उत्प न्न हो गया । आचार्य कहते हैं, हमेशा दो रूपों में ये उत्पा द चलता रहता है। एक सत् का उत्पा द है, एक असत् का उत्पा द। समझ आ रहा है? आपको यह उत्पा द तो समझ में नहीं आता। जो उत्पा त होता रहता है, वह समझ में आता है। जिस समय पर उत्पा त मच रहा हो उसी समय पर यदि अगर हमें यह ध्या न में आ जाए कि यह उत्पा द है, सत् और असत् का तो आपके अन्दर कि सी से उत्पा त करने का, लड़ा ई-झगड़ा करने का भाव ही नहीं आये। भाव तब आता है जब हम उस व्यक्ति को एक रूप में देखते हैं। कैसे एक रूप में देखते हैं? माने जिस व्यक्ति से हमें नाराजगी है, हम उस व्यक्ति को केवल उसी एक रूप में देखेंगे कि ये व्यक्ति हमारे लि ए बुरा करने वा ला है। यह व्यक्ति हमें नाराज करने वा ला है। यह व्यक्ति हमारा अहि त करने वा ला है। इसलि ए हमें इससे नाराजगी है। समझ आ रहा है? हम उसको कि स रूप में देख रहे हैं? केवल एक रूप में देख रहे हैं। वह उसकी एक पर्याय का रूप है। समझ में आ रहा है? हम उसको उस रूप में नहीं देख रहे हैं कि यह इससे पहले भी था , इससे पहले भी था , इससे पहले भी होगा। हम उसे एक पर्याय के रूप में ही देखते चले जाते हैं कि यह वह व्यक्ति है, जिसने अपने इसी शरीर के साथ में हमें दुःख दिया है. तो अब हमारे लि ए वह बैरी हो गया है। हम उसको अपने दुःख के कारण के रूप में देखते हैं तो यह हमारी दृष्टि में केवल एक भाव आया । वो क्या आया ? पर्याय का उत्पा द। समझ आ रहा है? यदि उत्पा त हमारे अन्दर आता है, तो वह क्यों आता है? केवल पर्याय का उत्पा द जब देखने में आता है, तो आता है। लेकि न जब हम देखें, सत् उत्पा द, द्रव्य का उत्पा द। वह कहा ँ से हो रहा है? वह तो हमेशा से बना हुआ है। आज जो व्यक्ति हमारे लि ए दुःख का कारण है, पहले भी दुःख का कारण रहा हो, जरूरी नहीं है। अगर हम उसके उस उत्पा द की तरफ देखेंगे, द्रव्यार् थिक नय की अपेक्षा से और रहता भी नहीं है।

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शत्रु और मित्र का भेद केवल दृष्टि में है

आचार्य कहते हैं:- जो व्यक्ति आज आपका मित्र है, वह पहले कभी आपका शत्रु था और जो आज आपका शत्रु है, वह भी पहले कभी मित्र था । व्यक्ति वह ी था । सत् उत्पा द की दृष्टि से वह ी व्यक्ति है वह लेकि न असत् उत्पा द की दृष्टि जब सामने आती है, तो हमें जिस समय पर जो मित्र होता है, हम उसको मित्र समझते हैं। जिस समय पर जो शत्रु होता है, उसे हम शत्रु समझते हैं। यह कि सकी दृष्टि होती है? ये पर्याय की दृष्टि होती है, जो असत् उत्पा द के रूप में हमारे सामने आती है। मान लो कोई व्यक्ति है। आपको उसको देखकर एकदम से मन में भाव आ जाता है कि ये वह ी है। समझ आ रहा है? जैसे ही वह व्यक्ति आपके सामने आएगा तो आपके दिमाग में उससे सम्बन्धि त जितनी भी पूर्व धारणाएँ हैं, वे सब आपके दिमाग में आ जाएँगी। उन सब पूर्व धारणाओं के साथ जो आपके सामने व्यक्ति आ गया , वह व्यक्ति आपके लि ए पूरे रूप से देखने में नहीं आएगा। दोनों आपको उसका बचपना भी दिखाई देगा, आपका उसके साथ पहले हुआ अच्छा व्यवहा र भी दिखाई देगा। वह पहले ऐसा नहीं था अब ऐसा हो गया है। ऐसा सोच कर आपकाे उसके प्रति गुस्सा अधि क नहीं आएगा, जो पहले अधि क आ रहा था । लेकि न अक्सर क्या होता है? हम कि सी व्यक्ति को जैसे ही देखते हैं तो हम उसके बारे में एकदम से निर्णय ले लेते हैं कि नहीं? ये तो ऐसा ही था , ऐसा ही है। अब अगर कोई आपसे उस समय पूछे, ये ऐसा ही था । मतलब ये ऐसा ही था , जन्म से ही ऐसा था । जन्म से ही ऐसा है। मतलब आपको उसकी जो जानकारी है, वह जन्म से है। बच्चे के रूप में था तब भी वह आपकी दृष्टि में ऐसा ही था । क्या समझ आ रहा है? यदि नहीं था , बाद में हुआ तो आप उसके दोनों रूपों को देखो। दोनों रूप देखोगे तो गुस्सा नहीं आएगा। एक रूप देखोगे तो गुस्सा आएगा। एक पर्याय को देखोगे तो आपके दिमाग में गुस्सा आएगा। उसके द्रव्य को भी देखोगे तो गुस्सा नहीं आएगा। पहले वह कुछ और भी था लेकि न अभी हमसे ऐसा कह दिया । जब से उसने हमसे ऐसा कह दिया तब से हमको इससे गुस्सा आ गया । तब से हमारे दिमाग में आ गया कि व्यक्ति ऐसा है। समझ आ रहा है? हमेशा से तो ऐसा नहीं था । हमेशा भी वैसा नहीं रहेगा।

म अपने दिमाग में जो भी धारणाएँ बना कर के रख लेते हैं कि सी भी व्यक्ति के लि ए, वह भी हमारे ही अपने इस ज्ञा न की कमी के कारण से होती हैं। पूरा ज्ञा न रखो। द्रव्यार् थिक नय से उसके समूचे द्रव्य को देखने की कोशि श करो तो आपके लि ए यह भी ज्ञा न आएगा कि व्यक्ति वास्तव में ऐसा था नहीं, अभी-अभी ऐसा दिखने लगा है, ऐसा हो गया है। चाह े मान लो, वह आपको बुरे के रूप में दिखाई दे, चोर के रूप में दिखाई दे, झूठ बोलने वा ले के रूप में दिखाई दे, अहंकारी के रूप में दिखाई दे। कि सी भी बुराई के रूप में दिखाई दे। आप यह सोचो कि यह बुराई उसके अन्दर हमेशा से थी कि अभी-अभी आई है या अभी-अभी दिख रही है। हमेशा से थी तो कब से थी? गर्भ से ही थी कि बाद में दो, चार, दस साल बाद जब बड़ा हो गया तब से उत्प न्न हुई है। आपकी लड़ा ई कोई लम्बी लड़ा ई नहीं होती कि सी से। गर्भ से तो कि सी की लड़ा ई रहती नहीं। लड़ा ई तो बाद में दो, चार साल के एक व्यवहा र से बन जाती है। हम उस समय भी यदि अपने मन की धारणा छोड़ दे तो हमें लगेगा कि जिस के साथ हमारी नहीं बनती है, वह भी आपको बनती हुई दिखाई देने लगेगी। क्या समझ आ रहा है? चीजें तो सब एक ही जैसी बनी हुई हैं न। यहा ँ क्या कह रहे हैं?

प्रत्येक द्रव्य का यही स्वभाव है
द्रव्य का स्व भाव ही है- द्रव्यार् थिक नय से और पर्यायर् थिक नय से, उत्प न्न होते रहना। जो द्रव्यार् थिक नय से बन गया , वह भी बना हुआ है। जो पर्यायार् थिक नय से बन गया , वह भी बना हुआ है। हर द्रव्य, हर पर्याय के साथ में बन ही रहा है। हर द्रव्य से हर पर्याय उत्प न्न हो ही रही है। जब सब चीजें एक समान बन रही हैं तो फिर हमारी कि सी से बन रही है, कि सी से नहीं बन रही है, यह हमारे अपने राग-द्वेष का परि णाम है। वस्तु के स्व भाव का परि णाम नहीं है। क्या समझ आ रहा है? मतलब पदार्थ का पदार्थ के साथ तो मेल है क्योंकि हर द्रव्य, द्रव्य है लेकि न हमारा कि सी से मेल नहीं है, तो उस द्रव्य के साथ हमारा मेल नहीं है। इसका मतलब है कि हमारे बीच में कोई दूसरी चीज आ गई। जिसने उस मेल मि लाप को तोड़ दिया । वह चीज क्या है? वह चीज है, हमारे कर्म के कारण से उत्प न्न हुए राग-द्वेष के भाव । ये राग-द्वेष के भाव जब सामने आ जाते हैं तो यह कहने में आता है कि हमारी इससे नहीं बन रही। क्या समझ आ रहा है? कभी तीर्थं करों ने कहा कि हमारी कि सी से नहीं बन रही है? कभी जो मोक्ष जाने वा ले महा पुरुष हुए उन्हों ने कहा कि हमारी इनसे नहीं बन रही है? सामने वा ला भले ही कहता रहे कि हमारी तुमसे नहीं बन रही लेकि न जो इस ज्ञा न को धारण करने वा ला होगा, वह कभी नहीं कहेगा कि हमारी तुमसे नहीं बन रही है। नहीं बनने का मतलब क्या है? हम वस्तु को यथा र्थ रूप से जान नहीं रहे हैं और हम मध्य स्थता के भाव से उसके साथ व्यवहा र नहीं कर रहे हैं। हम या तो द्वेष के साथ ही व्यवहा र करते हैं या राग के साथ ही करते हैं। कि सी के साथ हमारी नहीं बन रही तो मतलब द्वेष के साथ व्यवहा र कर रहे हैं। जैसे ही वह व्यक्ति सामने आता है, हमारा द्वेष परि णाम उसके सामने उभर कर आ जाता है। पूर्व धारणाएँ हमारे सामने आ जाती हैं। यह व्यक्ति चोर है, यह व्यक्ति झूठा है, यह व्यक्ति धोखेबाज है, यह व्यक्ति अहंकारी है। अतः ये जो बातें हमारे सामने आती हैं, ये हमारे अन्दर के द्वेष परि णाम से उभर कर आती है। हम अपनी मध्य स्थता नहीं बनाए रख पा रहे हैं, इस कारण से वह व्यक्ति हमारे लि ए बुरा हो जाता है। वस्तु तः व्यक्ति कभी भी कोई बुरा नहीं होता है। उसके द्रव्य को देखो, उसके आत्म द्रव्य को देखो। आपको वह उतना ही अच्छा लगेगा, जितना आपको अपनी आत्मा का द्रव्य अच्छा लगता है। क्या समझ आ रहा है?
एक ही द्रव्य है, जब उसमें उत्पा द होता है, तो उत्पा त सा भी महसूस होने लग जाता है। जैसे mobie में कभी भी अचानक कि सी का call आ जाए और आप नहीं चाह रहे हो कि अभी यह call आए पर वह आ रहा है। आप बार-बार उसको मना कर रहे हो पर वह तो बार बार उधर से आता ही जा रहा है। आ रहा है, वो तो उत्पा द हो रहा है लेकि न आपके लि ए क्या हो रहा है? वह उत्पा त हो रहा है। क्यों हो रहा है, उत्पा त? अभी हम नहीं चाह रहे हैं। इसी का नाम उत्पा त है। जिस समय पर हमें जो चीज चाहि ए उस समय पर वह मि ल जाए तब तो वह द्रव्य अच्छा है। वह तो उत्पा द हो गया , अच्छा और जिस समय जो चाहि ए वह उस समय पर नहीं मि ल रहा या जिस समय पर नहीं चाहि ए उस समय पर मि ल रहा है, तो इसका नाम हो गया , उत्पा त। बस यह हमारे लि ए झगड़े ड़े का कारण बन गया । आपका प्रिय mobile भी आपको अभी गुस्से का कारण बन जाएगा। आपको बुरा लगने लगेगा। लेकि न जिसका call आ रहा है वह ी थोड़ी देर बाद जब आप उसको सुनोगे, जा करके देखोगे, अच्छा तुम बोल रहे थे। तुम्हें पता नहीं था कि अभी क्ला स चल रही है, महा राज प्रवचन कर रहे हैं और हम यहा ँ बैठे हैं। क्यों बार-बार रि ंग कर रहे थे? उधर से जवा ब मि लेगा, हमें क्या पता था कि क्ला स चल रही थी। अब आगे ध्या न रखना। ठीक है, अब आगे ध्या न रखेंगे लेकि न अभी तक तो पता नहीं था । आपके अन्दर उस समय पर तो उससे क्रो ध आ ही गया न। अब देखो वह व्यक्ति यहा ँ नहीं है। जिस व्यक्ति ने आप को call किया है, वह आपका सम्बन्धी है आपको उससे राग है। सुन रहे हो? लेकि न अभी इस समय पर आपको उससे बात नहीं करनी है, तो आप उसको मना कर रहे हो। चुप हो जा, मान जा, बन्द हो जा। आपको गुस्सा आ रहा है। ये गुस्सा कि सके प्रति आ रहा है? जब आप देख रहे हो कि उसका नाम आ रहा है, ये वह ी व्यक्ति बार-बार फोन कर रहा है, तो आपको उसके प्रति गुस्सा भी आ रहा है। जो आपके लि ए राग का कारण है, वह ी आपके लि ए द्वेष का भी कारण बन रहा है। वह ी थोड़ी देर बाद जब आपसे कहेगा, हम आपको call इसलि ए कर रहे थे कि आपको जो पैसा देना था , वह पैसा हम आपके खाते में डाल दिए हैं। समझ आ रहा है? अच्छा ! तब तो बहुत अच्छा हो गया है। अब उससे जो द्वेष होने वा ला था वह क्या हो गया ? अब राग हो गया । कहा ँ है राग और द्वेष? वस्तु में? कि सी दूसरे में? हम जो चाह रहे हैं वह होता जाए। जो नहीं चाह रहे हैं, वह नहीं हो।


हमारी दृष्टि कब बदलेगी?
मान लो जिस व्यक्ति ने आपको call किया है, उस व्यक्ति के प्रति अपनी धारणा बना हुई है कि यह व्यक्ति हमें कुछ परेशान करने के लि ए call करता है, तो आपने उसे मना कर दिया या कि सी भी तरीके से उसे रोक दिया था । बाद में आपने फिर पूछ लिया , भाई बता, क्यों बार-बार परेशान करता है। वह कहता है कि हमें तुम्हें पैसा देना था । उसे हमने account में जमा करना था , इसलि ए। क्या हो गया ? आपकी धारणा एकदम से बदल गई। हम आपसे पूछते हैं कि यदि वह व्यक्ति आपके साथ अच्छा या आपके अनुकूल व्यवहा र न भी करें तो भी आपकी धारणा उसके प्रति बदलनी चाहि ए कि नहीं? प्रश्न यहा ँ खड़ा होता है। वह आपके लि ए कुछ अच्छा या आपके अनुकूल नहीं भी करे तो भी आपकी धारणा उसके प्रति बदलनी चाहि ए कि नहीं? यह प्रश्न है। हम जिसको हमेशा अपने शत्रु के रूप में, द्वेषी के रूप मे देख रहे हैं, क्या हम उसे हमेशा ऐसे ही देखते रहेंगे? यदि हम उसे ऐसे ही देखते रहेंगे तो द्वेष उसके अन्दर नहीं है, हमारे अन्दर है। द्वेष से कर्म बन्ध कि सको हो रहा है? द्वेष के कारण हमारा उससे जो वैमनस्यता और बैर का भाव बढ़े ढ़ेगा, वो कि से दुःख देगा? हमें ही दुःख देगा। क्या समझ आया ? वो हमें ही दुःख देगा।
जिसके अन्दर द्वेष है और उस परिणाम से जो दुःख उसके अन्दर होता है, वही बाद में दुःख का कारण
जिसके अन्दर द्वेष है, द्वेष परि णाम से उत्प न्न होने वा ला वह दुःख भी उसी के अन्दर जमा हो रहा है और वह ी जमा होने वा ला दुःख बाद में भी उसके दुःख का कारण बनने जा रहा है। ये बात जब तक हम नहीं समझेंगे तब तक इस द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय का उपयोग करना हम सीख नहीं पाएँगे। उपयोग कि ससे होगा? पर्याय के साथ उसके द्रव्य को भी देखो और द्रव्य के साथ उसकी पर्याय को भी देखो। क्या सुन रहे हो? राव ण है, सीता है, राम है और लक्ष्मण है। इन सब की वर्त मान में स्थिति क्या है? राव ण तो चलो नरक में गया , सीता स्वर ्ग में गई। राव ण का सीता के प्रति कैसा भाव था ? राग का भाव था या द्वेष का भाव था ? राग का भाव था । आपको लग रहा है कि राव ण का सीता के प्रति राग का भाव है लेकि न वह राग का भाव कब तक था ? जब तक उसने उसका हरण नहीं किया । जब उसको वह हरण करके ले आया , हरण करने के बाद भी उसको मनाता रहा और जब वह नहीं मानी तब भी उसके अन्दर राग का भाव था । मानसि कताओं को पढ़ ने की भी कोशि श किया करो। आप पुराण पढ़ो तो गहराई से पढ़ा करो। जब उससे यह पता पड़ गया कि इस सीता की अब हमें जरूरत नहीं है और इस सीता के कारण से हमारे भाई, हमारे बेटे सब बन्दी हो गए। सबको राम ने बन्दी बना लिया है। इस सीता के कारण से बहुत बड़ा युद्ध होने वा ला है। इसी सीता के कारण हमारे लि ए सब परेशानिया ँ खड़ी हो रही हैं लेकि न फिर भी हम इस सीता को छोड़ नहीं सकते हैं क्योंकि यह हमारी नाक का सवा ल है। जब सीता से उसने कहा कि तू मुझे अपना ले और सीता ने कहा कि नहीं! मैं राम के अलावा कभी कि सी के बारे में सोच भी नहीं सकती। राव ण का राग उसी क्ष ण उसके प्रति नष्ट हो गया था । यह मेरे कोई काम की है ही नहीं। मुझे अब यह मि ल भी जाएगी तो भी मैं अब इसको नहीं रखूँगा। अगर राम से युद्ध करने के बाद राम का मरण भी हो गया और यह हमें मि ल भी गई तो यह तब भी हमें नहीं चाह ेगी। इससे अब प्रयोजन क्या है? राव ण के अन्दर सीता के प्रति राग हमेशा नहीं रहा । समझ आ रहा है? बाद में उसके अन्दर उससे द्वेष उत्प न्न हो गया । सीता को तो उस समय उस पर द्वेष था ही। जब उसके अन्दर उस समय पर द्वेष था तो वह द्वेष फिर उसके लि ए आगे भी रहना चाहि ए लेकि न वह स्वर ्ग में चली जाती है। वह वहा ँ जाकर देखती है कि हम यहा ँ क्यों आ गए? उसे सब कुछ दिखाई देने लग जाता है कि मुझे कि सने परेशान किया , कौन हमें उठा कर ले गया और उसकी क्या गति हो गई? जो हमारे स्वा मी राम थे, वो कहा ँ पहुँ च गए? तो उसे सबसे सन्तुष्टि हो गई कि रामचन्द्र जी तो मोक्ष को चले गए, कोई बात नहीं। लेकि न यह राव ण कहा ँ गया तो उसे क्या ध्या न आता है? अपने अवधि ज्ञा न से देव(सीता का जीव) देखता है, तो क्या देखता है कि राव ण तो नरक में पड़ा है। अब नरक में है, तो उसे नरक में पड़ा रहने दो। अच्छा है। मेरे साथ इसने बुरा किया था , नरक में गया है। चलो! अब उसको वहा ँ पर उसका फल मि ल रहा है। ऐसे ही तो सोचना पड़े ड़ेगा न। आप ऐसे ही सोचते हो न। उसने नहीं सोचा। आप तो ऐसे ही सोचते हो न। आपका बुरा करने वा ले का कुछ हो जाए। ऐसा ही होना चाहि ए था , इसलि ए ऐसा ही हुआ। तूने मेरे साथ बुरा किया था न। समझ ले मेरे साथ बुरा करने वा ला कभी भी फल-फूल नहीं सकता है। मतलब आपके अन्दर उसके प्रति बुराई का भाव , उसके बुरा होने के बाद भी बना हुआ है। समझने की चीज है। यह बना रहता है। कि सी का नुकसान होने के बाद, कि सी की बुरी गति होने के बाद, कि सी का बुरा होने के बाद, कि सी के साथ कुछ बुरी घटना घटने के बाद अगर हमारे मन में वह अच्छा लगता है कि इसके साथ तो ऐसा होना ही था , इसने मेरे साथ ऐसा किया था , इसलि ए इसका यह परि णाम इसको मि लना ही था । यह विचार करना भी आपके लि ए दुर्गति का कारण है। यह विचार यदि हम धर्म की भाषा में कहें तो वह कभी सम्यक् दृष्टि जीव में ये विचार आ नहीं सकता है।


सम्यग्दृष्टि ? मिथ्या दृष्टि ?
यह विचार कि सका है? ये मि थ्या त्व का भाव है। मि थ्या दृष्टि जीव का विचार है। सम्यग्दृष्टि जीव हमेशा सोचता है कि अगर इस के साथ बुरा भी हुआ तो वह यह सोचेगा कि देखो! इसने कैसे कर्म के बन्ध कर लि ए कि इसको ऐसे कर्म का फल भोगना पड़ रहा है। देखो विचार में कि तना अन्तर आ गया ? सम्यकग्दृष्टि क्या सोचेगा? इसने कैसे कर्म का बन्ध किया जो इसको ऐसे कर्म का फल भोगना पड़ रहा है। फल तो वह अपने कर् मों का भोग ही रहा है लेकि न उसको देखने वा ला जो मैं हूँ। मैं क्या सोच रहा हूँ? निर्भ र इस पर करता है कि मैं दूसरे को लेकर क्या विचार रखता हूँ? मैं दूसरे को लेकर जैसा विचार रखूँगा वैसा ही मैं कहलाऊँगा। उस मैं को समझना है कि मैं क्या सोच रहा हूँ? सम्यग्दृष्टि जीव क्या सोचेगा? इसको इसके कर्म के फल से कैसी पर्याय मि ल गई कि अब इसको इसके कर्म का फल भोगना पड़ रहा है। समझ आ रहा है? और मि थ्या दृष्टि क्या सोचता है? अच्छा हुआ जो इसने मेरे साथ बुरा किया तो इसे ऐसे कर् मों का फल मि लना ही चाहि ए था , सो मि ल गया । बात तो वह ी है। समझ आ रहा है? जो मि थ्या दृष्टि है, वो भी कर्म का फल जान रहा है। सम्यग्दृष्टि जीव भी कर्म का फल जान रहा है लेकि न अन्तर कि स में पड़ गया ? अपने भाव में, अपने सोच में। इस तरह के अभिप्राय में कि हम उसके प्रति अच्छे रूप में सोच रहे हैं। जो हुआ, वो तो उसके साथ हुआ। चीज वह ी होती है कि हम कि सके लि ए अपने मन में क्या धारणा बना कर बैठे हैं? माने हम कि सी को हमेशा बैरी ही समझते हैं, कि सी को हम हमेशा दुष्ट ही समझते हैं, दुर्ज न के रूप में ही देखते हैं तो यह भी हमारी अपनी गलती होती है। यह हमारे अन्दर का तीव्र द्वेष परि णाम होता है। हम इसको नहीं सम्भा लेंगे तो हम कभी भी सम्यग्दृष्टि बन नहीं पाएँगे। सामने वा ले का तो जैसा होना हो वह होगा लेकि न हमारा उसके प्रति क्या विचार है? यह विचार हमें समझना है। सीता का जीव सम्यक् को धारण करने वा ला था , सम्यग्दृष्टि था । इसलि ए उसके मन में क्या विचार आया कि मुझे इसकी भी रक्षा करने के लि ए उसके पास जाना है और प्रया स करना है कि वह नरक से नि कल आए। यह भाव आ गया । यह कौन सा भाव है? यह सम्यग्दृष्टि का भाव है। हम इन कथा नकों से भी यह ी अध्या त्म का ज्ञा न ले सकते हैं। प्रथमानुयोग के जितने भी दृष्टा न्त हैं यदि हम उन्हें अध्या त्म में घटाने की कला सीखें तो हमें प्रथमानुयोग कभी भी बुरा नहीं लगेगा। हमें हर घटना से देखने में आना चाहि ए कि द्रव्य और पर्याय को जानने वा ला जो सम्यग्दृष्टि होता है, वह समूची चीज को देखता है। द्रव्य को भी देखता है और पर्याय को भी देखता है। अभी इसकी पर्याय एक विद्या धर राजा के रूप में थी और मेरे कारण से इसकी पर्याय नरक में चली गई। नरक पर्याय में है, द्रव्य तो वह ी है।
कि
स का उत्पा द हुआ? सत् का भी उत्पा द है और असत् का भी उत्पा द है। सत् का उत्पा द कि स रूप में है? ये वह ी द्रव्य है, ये वह ी आत्मा है। जब आत्मा की ओर दृष्टि जाय ेगी तो सत् का उत्पा द। जो अब नरक में है, ये वह ी राव ण की आत्मा , अब वह ी राव ण का जीव नरक में आ गया । तो कि सका उत्पा द हो गया ? सत् का उत्पा द हो गया । अब असत् क्या था ? पहले नारकी नहीं था , अब ये नारकी बन गया । नारकी पर्याय को देखा तो ये क्या हो गया ? असत् का उत्पा द हो गया । दोनों पर्याय देखोगे तो आपके अन्दर करुणा आ जाएगी। मध्य स्थता आ जाएगी। आपके अन्दर का द्वेष भाव मि ट जाएगा, कम हो जाएगा। यह ी इस अध्या त्म को समझने का प्रति फल होता है। द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय। अगर हम दोनों को नहीं लगाते हैं, हम केवल पर्याय के माध्य म से ही उसको देखेंगे तो हम कहेंगे नारकी हो गया , अच्छा हो गया । जब हम द्रव्यार् थिक नय से देखते हैं तो चौंक जाते हैं कि अरे! यह तो उस द्रव्य ने इस पर्याय को धारण कर लिया । इसमें तो और भी दूसरी पर्याय उत्प न्न हो सकती थी। इस दुःख की पर्याय को क्यों प्राप्त हो गया ? इसे तो सुख की पर्याय भी प्राप्त हो सकती थी। ये क्या हो गया ? यह आपकी द्रव्यार् थिक नय की दृष्टि और पर्यायर् थिक नय की दृष्टि , दोनों दृष्टि मि ल गई। समझ आ रहा है? यह ी चीज यहा ँ कही गई है कि दोनों प्रकार का प्रा दुर्भाव , उत्पा द हमेशा द्रव्य प्राप्त करता रहता है।

एवं अनेकविध स्वी य स्वभाव वाला, होता सुसिद्ध जब द्रव्य स्वयं निराला।
पर्या य द्रव्य नय से वह द्रव्य भाता, भाई अभावमय भावमयी सुहाता।
अब देखो उसी द्रव्यार् थिक नय से कैसे द्रव्य उत्प न्न होता है उसको उदाह रण देते हुए यहा ँ समझाया जा रहा है।

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मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार 
गाथा -20

द्रव्य कभी भी अपना द्रव्यपना नहीं छोड़ता

देखो! क्या कहते हैं? ‘जीवो भवं’ जीव होता हुआ, हो गया । ‘भवि स्सदि ’ यानि हो जाता है, होगा। ‘णरोSमरो वा’ नर भी हो जाता है और अमर भी हो जाता है। अमरो माने देव भी हो जाता है। वह ी जीव मनुष्य हो जाता है, वह ी जीव देव रूप हो जाता है। “परो” माने अन्य भी पुन: हो जाता है। ‘किं दव्वत्तं पजहदि ’ आचार्य पूछते हैं कि क्या अब वह अपने द्रव्यपने को छोड़ देता है? क्या द्रव्य अलग हो गया ? क्या उसने अपना द्रव्य स्व भाव छोड़ दिया ? आपको विश्वा स दिलाना चाह रहे हैं कि द्रव्य कभी भी अपने द्रव्य स्व भाव को छोड़ ता नहीं है।’ण जहं अण्णो कहं हवदि ’ यदि उसने द्रव्य नहीं छोड़ा तो अन्य कैसे हो गया ? अन्य माने कोई दूसरा कैसे हो गया ? मतलब द्रव्यार् थिक नय से हम देखें तो हम यह कहेंगे कि वह ी द्रव्य उत्प न्न होता है, तो ये दृष्टिया ँ हैं। पहले हमने कहा था कि द्रव्यार् थिक नय से कोई द्रव्य न नष्ट होता है, न उत्प न्न होता है। शास्त्र में लि खा हुआ है कि द्रव्यार् थिक नय से कोई भी द्रव्य न उत्प न्न होता है, न नष्ट होता है। लेकि न यहा ँ क्या कह रहे हैं? यहा ँ एक और नई चीज बता रहे हैं कि द्रव्यार् थिक नय से भी द्रव्य उत्प न्न होता है। उसके उत्प न्न होने को हम क्या कहेंगे? सत् उत्पा द कहेंगे क्योंकि जब हम द्रव्य की ओर दृष्टि रखेंगे तो द्रव्य तो वह ी है। वह ी द्रव्य उत्प न्न हो गया । जो वह ी द्रव्य उत्प न्न हो गया , इसी का नाम है- द्रव्य का नया उत्पा द हो गया । सुन रहे हो? हर चीज को हम कह सकते हैं, नयों के माध्य म से। द्रव्यार् थिक नय से उत्पा द नहीं होता लेकि न यहा ँ पर क्या कह रहे हैं? द्रव्यार् थिक नय से सत् का भी उत्पा द होता है माने द्रव्यपना बना हुआ है लेकि न फिर भी द्रव्य बदल गया । द्रव्य बदल गया ? द्रव्य तो वह ी रहा लेकि न नया उत्प न्न हो गया । जो नया उत्प न्न हो गया , वह ी द्रव्य का उत्पा द कहलाया माने द्रव्य ही तो उत्प न्न हो गया । जैसे आप बोलते हो, हमारे घर में नए बच्चे ने जन्म लिया है। नया ही तो होता है न बच्चा । हर बच्चा नया ही तो होता है। नया उत्पा द हुआ। समझ आ रहा है? वह नया उत्पा द कि स रूप में हुआ? जो पहले भी था कि नहीं था कि अभी-अभी उसका नया उत्पा द हुआ है? वह द्रव्य कहीं से आया है कि अभी कोई नया द्रव्य उत्प न्न हुआ? द्रव्य तो कहीं न कहीं होता ही है, था ही। उसी द्रव्य का यह उत्पा द हो गया । कोई निमित्त ज्ञा नी आपको उसी समय पर यह बता दे कि यह वह ी बेटा है जो आपके घर में आपके चाचा के, फूफा के, ताऊ का लड़ का था । उसको आपने देखा था , उसका यह नाम था , वह आपके घर आता था , आपकी उससे पहचान है, यह वह ी है। जब वह ी है, तो फिर नया कैसे हो गया ? इसी को कहते हैं, यह नई चीज आ गई, नया द्रव्य आ गया । द्रव्य का उत्पा द भी अगर हमें नई पर्याय के साथ प्राप्त होता है, तो भी हम उसको द्रव्य का ही उत्पा द कहेंगे, यह यहा ँ बताया गया है।
द्रव्य बदलता है: रावण हमेशा रावण नहीं
द्रव्यपना तो नहीं छोड़ा न उसने? जो मनुष्य था , वह ी देव हो गया । वह ी फिर पशु हो गया । द्रव्य तो वह ी है। जो सीता का जीव है, वह ी देव बन गया । वह ी सीता का जीव गणधर भी बनने वा ला है। वह ी राव ण तीर्थं कर बनेगा। जैन दर्श न में राव ण हमेशा राव ण नहीं है। राव ण आगे तीर्थं कर भी होने वा ला है। यदि आप उसको राव ण, राव ण कह कर, दशहरा ही मनाते रहोगे, उसकी पर्याय ही जलाते रहोगे तो आप द्रव्य को कब समझोगे? वह तीर्थं कर भी बन जाएगा तो भी आप उसका दशहरा ही मनाते रहोगे। समझ आ रहा है? अंजन चोर हुआ। अब वह अंजन चोर वर्त मान में कहा ँ है। सि द्ध भगवा न बन गया वह । आज भी हम अंजन ही कहते हैं, उसको। अंजन चोर का उत्पा द अभी सि द्ध पर्याय में है, तो सि द्ध पर्याय के रूप में वह उत्पा द हमें अंजन चोर की उस पर्याय के साथ दिखाई देता है तब तो चलो ठीक है, हमारा ज्ञा न। यदि ऐसा नहीं दिखाई देता है, हम उसको केवल चोर के रूप में ही आज तक जान रहे हैं माने हम उसकी केवल पर्याय को ही जान रहे हैं। आज भी अंजन चोर कहते हैं। हमें उसका चोरपना तो दिखाई देता है, सि द्धपना दिखाई नहीं दे रहा है। यह ी चीज हमें बताती है कि हम द्रव्य और पर्याय को पूरा नहीं जान रहे हैं। कि सी भी चीज के लि ए वास्त विक स्थिति को जब जानेंगे तो हमें दोनों ही प्रकार के नयों से उसका ज्ञा न करना होगा।

सब की सत्ता एक सी
आचार्य कहते हैं कि द्रव्य अपने द्रव्यत्व को, द्रव्य स्व भाव को, सत्ता स्व भाव को कभी छोड़ ता नहीं है। इसलि ए दुनिया में सब की सत्ता है। हमारी भी सत्ता है। समझ आ रहा है? हम कि सी की सत्ता को कभी भी यदि देखें तो उसके सत् स्व भाव के माध्य म से देखें कि इसकी सत्ता बनी रहती है, तो हम इसकी सत्ता को बुरा क्यों समझें? क्योंकि आज ये कि सी रूप में बुरा है। कल अच्छा था , आगे भी अच्छा हो जाएगा। एक ही पर्याय हमेशा नहीं बनी रहती है। समझ आ रहा है? आपने जिस दृष्टि से बहू को देखना शुरु किया है, जब से वह बहू बनकर आई है। हर सास बहू को आज तक उसी दृष्टि से देखती है। चाह े उसको घर में रहते हुए बीस वर्ष ही क्यों न नि कल गए हों, चालीस वर्ष क्यों न होने को आए हों। उस बहू को बीस वर्ष का लड़ का क्यों न हो गया हो पर दृष्टि नहीं बदलती। यह दृष्टि जब तक नहीं बदलेगी तब तक आपको यह पढ़ ने का कोई प्रयोजन सि द्ध नहीं होगा। यह गाथा एँ पढ़ कर, रट लेना या हमको प्रवचनसार समझ में आ रहा है ऐसा समझ लेना इससे कुछ होने वा ला नहीं है। होना कि ससे है? अपनी दृष्टि हर पदार्थ के साथ द्रव्य और पर्याय दोनों को जाने। द्रव्यार् थिक नय से भी पदार्थ को देखें और पर्यायार् थिक नय से भी पदार्थ को देखें। कि तनी भी बुरी कोई भी वस्तु चाह े वह बहू हो, चाह े बेटा हो, वह एक रूप में हमेशा कभी रह ही नहीं सकता है। पर्याय रूप, परि णमन रूप उसका स्व भाव है। लेकि न हमें वह हमेशा एक ही रूप में दिखाई देता है और पहले से ज्या दा बुरा ही दिखाई देगा। ऐसा भी नहीं है कि जितना पहले बुरा दिखाई देता था , उतना ही आज भी दिखाई दे रहा है। अब तो इतना बुरा हो गया कि उसका नाम भी यदि कोई दूर से ले, माने वो घर में नहीं हो, सौ कि लोमीटर दूर भी हो तो भी कलेजा जल जाता है। इतना बुरा लगने लगा वह द्रव्य हमें। क्या पता वह ी द्रव्य पहले आपकी बेटी की पर्याय में था । पहले वह ी आपकी माँ की पर्याय में था । कि सी भी रूप में हो सकता है। आपकी माँ बचपन में मर गई। वह ी बहू बन कर आपके घर में आ गई। क्या नहीं हो सकता? यदि हम द्रव्य की ओर दृष्टि डाले तो हमें सब कुछ समझ आ सकता है और उसके प्रति हमारा द्वेष कम हो सकता है। लेकि न हम पर्याय को ही और गाढ़ा करते चले जाते हैं। अब बहू कि तनी भी बदल जाए लेकि न हम उसके प्रति अपनी धारणा नहीं बदल सकते। अब वह कि तना भी फोन से संदेश भेजे, मेरी प्या री दुलारी सासू माँ लेकि न आपको भरोसा नहीं आएगा। आपको लगेगा कि यह message मेरे लड़ के ने बहू के नाम से कर दिया है। यह बहू का message हो ही नहीं सकता। मेरा लड़ का उसके प्रति मेरी धारणा बदलना चाह रहा है पर मैं नहीं बदलूँगी। वह ऐसी हो ही नहीं सकती। जो ऐसे बन चुके हैं तब आपका कोई भी धर्म कार्य, उनके भीतर धर्म पैदा नहीं कर सकता। आप कि तनी ही पूजा करे, कि तना ही स्वा ध्याय करे। यदि ऐसी कषाय बन जाती है, तो फिर वह पूजा, वह स्वा ध्याय भीतर से कुछ भी परिवर्त न का कारण नहीं बनता। द्वेष में, कषाय में कमी नहीं आती तो कभी भी हमारा भला होने वा ला नहीं।
सम्यक्त्व परिणाम ही सार्थक
सम्यक्त्व का परि णाम यदि आ जाता है तो हम कि सी के प्रति एक धारणा रखते ही नहीं है। ये आपको सीता के दृष्टा न्त से समझ कर रखना है। मि थ्या दृष्टि का परि णाम क्या होता है वह भी बता दिया और सम्यग्दृष्टि का परि णाम क्या होता है वह भी बता दिया । द्रव्य हमेशा बने रहते हैं। हमें अपने परि णामों को सम्यक्त्व के अनुसार बनाने के लि ए समझना चाहि ए कि कैसे परि णाम हमें बनाना है। उसी से हमारा सम्यग्दर्श न बनता है। केवल द्रव्य, गुण, पर्याय का श्रद्धा न कर लिया उससे हमारे परि णाम में जो द्वेष कम होगा, कषाय कम होगी, यह उसका प्रयोजन होगा, तभी हमें उस परि णाम से सम्यग्दर्श न होगा।

जीवत्व जीव धरता नर देव होता, तिर्यंच नारक तथा स्वयमेव होता।
पै द्रव्य द्रव्यपन को जब ना तजेगा, कैसा भला परपना फिर वो भजेगा।

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
Email: manish@frontdesk.co.in
Tel: +91 141 6693948
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#5

This way, the substance (dravya), established in its nature, is ever endowed with origination of either the intrinsic-nature
(sadbhāva-nibaddha) or the extraneous-nature (asadbhāvanibaddha), depending on whether it is viewed from the
standpoint-of-substance (dravyārthika naya) or from the standpoint-of-mode (paryāyārthika naya).


Explanatory Note: The substance (dravya) is ever endowed with the nature of origination (utpāda). When viewed from the
standpoint-of-substance (dravyārthika naya), the focus is on the substance (dravya), not on the mode (paryāya); origination
(utpāda) takes place of the same substance (dravya) while the mode (paryāya) changes. This is the sadbhāva-utpāda. When
viewed from the standpoint-of-modes (paryāyārthika naya), the focus is on the modes (paryāya), not on the substance (dravya); origination (utpāda) takes place of a new mode (paryāya) of the  substance (dravya). This is the asadbhāva-utpāda. As an illustration, gold with its eternal qualities like yellowness, smoothness and heavyness gets modes such as the bracelet and the earring. Viewed from the standpoint-of-substance (dravyārthika naya), origination (utpāda) of the same substance (dravya) – gold – takes place in all modes like the bracelet and the earring. There is no origination (utpāda) of a new substance. This is the sadbhāvautpāda of gold. Viewed from the standpoint-of-modes (paryāyārthika naya), the modes (paryāya) like the bracelet and the earring, are sequential and, therefore, it is predicated that there is origination of the bracelet or the earring or the ring. Origination (utpāda) takes place of something that did not exist in the past. This is the asadbhāva-utpāda of gold. In the same way, the substance (dravya), together with its eternal qualities, originates in various modes. When the predication is from the standpoint-of-substance (dravyārthika naya), it is said that the same substance (dravya), not anything new, originates in all new modes (paryāya). This is the sadbhāva-utpāda. When the predication is from the standpoint-of-modes (paryāyārthika naya), it is said that there is the origination (utpāda) of a new object, in
form of the new mode. That which existed in the past exists no more. This is the asadbhāva-utpāda. The modes (paryāya), like the bracelet and the earring, that exist from the standpoint-of-modes (paryāyārthika naya) are nothing but the substance (dravya) gold; these modes are due to the inherent power of gold to undergo such transformations. Gold itself is a mode (paryāya) of the substance that is gold; the mode (paryāya) is not distinct from the substance (dravya). The mode (paryāya) of a substance (dravya) is of the nature of the substance (dravya); the mode (paryāya) is not distinct from the substance (dravya). Therefore, the mode  (paryāya) is the substance (dravya). From the standpoint-ofsubstance (dravyārthika naya), gold, with its qualities like yellowness, is transformed into modes such as the bracelet and the  earring. So, the substance of gold itself is the modes like the  bracelet and the earring. The substance (dravya), due to its inherent power, originates in sequential modes. It takes the form of the existing mode; the substance (dravya) is the mode (paryāya).
It is thus established that the modes (paryāya) in asadbhāvautpāda (or asat-utpāda) are nothing but the substance (dravya).
And, the substance (dravya) in sadbhāva-utpāda (or sat-utpāda) is nothing but the mode (paryaya). The distinction between the substance (dravya) and the mode (paryāya) is only due to the difference in the standpoints; actually, there is no difference between these.
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#6

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -19,20


इसविधि पदार्थमें द्रव्यार्थिक नयसे सन्मय उत्पत्ति
पर्यायार्थिकसे हो यद्यपि यह असद्भावकी सम्पत्ति ॥
हुआ जीव वही जो कि होरहा होगा भी नरसुरआदि ।
जोवपनेसे रहित कहाँ क्या? यो तत्पनकी यह गा दी ॥ १० ॥

सारांश :- साधारण विचारधाराको सामान्यदृष्टि या द्रव्यार्थिक नय कहते हैं और असाधारण विचारधाराको विशिष्टदृष्टि या पर्यायार्थिक नय कहते हैं। द्रव्यार्थिक जयसे देखनेवर वस्तु जो पहिले थी वही अब भी है और आगे भी रहेगी किन्तु पर्यायार्थिक नयसे देखने पर वस्तु जैसे पहिले थी वैसी अब नहीं है, और ही है एवं आगे भी कुछ और ही हो जायेगी। जैसे इस समय जो मनुष्य है, वह अपने पूर्वजन्ममें पशु था और आगे के जन्ममें देय होगा। इसप्रकार पर्यायार्थिक नयकी दृष्टिसे पदार्थ प्रतिसमय बदलता रहता है, और का और होता रहता है परन्तु जीवसे अजीव कभी नहीं होता है, जीव सदा जीव ही रहता है। जो जीव पहिले पशु पर्यायमें था, वही अब नर पर्यायमें है और आगे देव पर्यायमें भी वही जीव रहेगा, उसके जीवत्वमें कोई भी अन्तर नहीं होता है, जो था वही रहता है फिर भी
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