प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 21,22 ज्ञान,कर्म और कर्मफल का स्वरुप
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार : ज्ञेयतत्त्वाधिकार

गाथा -21 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -123 (आचार्य प्रभाचंद्र  की टीका अनुसार )


मणुवो ण हवदि देवो देवो वा माणुसो व सिद्धो वा।
एवं अहोजमाणो अणण्णभावं कधं लहदि ॥ २१॥


आगे असत्उत्पादको अन्यरूपसे दिखाते हैं-[मनुजः] जो मनुष्य है, वह [देवः] देव [वा] अथवा [देवः] देव है, वह [मानुषः] मनुष्य [वा] अथवा [सिद्धः] सिद्ध अर्थात् मोक्ष-पर्यायरूप [न भवति] नहीं हो सकता, [एवं अभवन् ] इस प्रकार नहीं होता हुआ [अनन्यभावं] अभिन्नपनेको [कथं] किस तरह [लभते] प्राप्त हो सकता है ? । भावार्थ-जो देव मनुष्यादि पर्याय हैं, वे सब एक कालमें नहीं होते, किंतु जुदा जुदा समयमें होते हैं। जिस समय देव-पर्याय है उस समय मनुष्यादि पर्याय नहीं है, एक ही पर्याय हो सकती है। इस कारण जो एक पर्याय होती है, वह अन्यरूप नहीं हो सकती । सब जुदा जुदा ही पर्याय होते हैं। इसलिये पर्यायका कर्ता, करण, द्रव्य, आधार है, सो द्रव्य पर्यायसे जुदा नहीं है, पर्यायके पलटनेसे द्रव्य भी व्यवहारसे अन्य कहा जाता है । जैसे-मनुष्य-पर्यायरूप जीव देव-पर्यायरूप वा सिद्ध-पर्यायरूप नहीं होता, और देव-पर्यायरूप जीव मनुष्य-पर्यायरूप वा सिद्ध-पर्याय रूप नहीं होता, इस तरह पर्यायके भेदसे द्रव्य भी अन्य कहा जाता है । इस कारण पर्यायार्थिकनयसे द्रव्य अन्यरूप अवश्य करना चाहिये । जैसे सोना कंकण कुंडलादि पर्यायोंके भेदसे 'कंकणका सोना,' 'कुंडलका सोना' इस रीतिसे अन्य अन्यरूप कहा जाता है, उसी प्रकार मनुष्यजीव, देवजीव, सिद्धजीव इस तरह अन्य अन्य रूप कहनेमें आता है। इस कारण असत्उत्पादमें द्रव्यको अन्यरूप कहना चाहिये, यह सिद्ध हुआ

गाथा -22 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -124 (आचार्य प्रभाचंद्र की टीका अनुसार )

दव्वट्टिएण सव्वं दव्वं तं पज्जयहिएण पुणो।
हवदि य अण्णमणण्णं तकाले तम्मयत्तादो ॥ २२ ॥

आगे एक द्रव्यके अन्यत्व, अनन्यत्व ये दो भेद हैं, वे परस्पर विरोधी एक जगह किस तरह रह सकते है ? इसका समाधान आचार्य महाराज करते हैं-[द्रव्यार्थिन] द्रव्यार्थिकनयकी विवक्षासे [तत् सर्व] वह समस्त वस्तु [अनन्यत् ] अन्य नहीं है, वही है, अर्थात् नर नारकादि पर्यायोंमें वही एक द्रव्य रहता है [पुनः] और [पर्यायार्थिन] पर्यायार्थिकनयकी विवक्षासे [अन्यत् ] अन्यरूप द्रव्य होता है, अर्थात् नर नारक आदि पर्यायोंसे जुदा जुदा कहा जाता है। क्योंकि [तत्कालं] नर नारकादि पर्यायोंके होनेके समय वह द्रव्य [तन्मयत्वात् ] उस पर्यायस्वरूप ही हो जाता है। भावार्थ-वस्तु सामान्य, विशेषरूप दो प्रकारसे है। इन दोनोंके देखनेवाले हैं, उनके दो नेत्र कहे हैं-एक तो द्रव्यार्थिक, दूसरा पर्यायार्थिक । इन दोनों नेत्रोंमेंसे जो पर्यायार्थिक नेत्रको सर्वथा बंद करके एक द्रव्यार्थिक नेत्रसे ही देखे, तब नारक, तिर्थंच, मनुष्य, देव, सिद्ध पर्यायोंमें स्थित जो सामान्य एक जीव उसके देखनेवाले पुरुषको सब जगह जीव ही प्रतिभासता ( दीखता ) है, भेद नहीं मालूम होता । और जब द्रव्यार्थिक नेत्रको सर्वथा बंद कर एक पर्यायार्थिक नेत्रसे ही देखा जावे, तब जीवद्रव्य में नर नारकादि पर्यायोंके देखनेवाले पुरुषोंको नर नारकादि पर्याय जुदा जुदा मालूम होते हैं । जिस कालमें जो पर्याय होता है, उस पर्यायमें जीव उसी स्वरूप परिणमता है। जैसे कि आग, गोबरके छाने - कंडे, तृण, पत्ता, काठ आदि ईंधन आकार हो जाती है, उसी प्रकार जीव भी अनेक पर्यायोंको धारण करता हुआ अनेक आकाररूप होजाता है । तथा जब द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक दोनों ही नेत्रोंसे इधर उधर सब जगह देखा जाय, तो एक ही समय नर नारकादि पर्यायोंमें वही एक द्रव्य देखनेमें आता है, और अन्य अन्य रूप भी दीखता है । इस कारण एक नयरूप नेत्रसे देखना एक अंगका देखना है, तथा दो नयरूप नेत्रोंसे देखना सब अंगोंका देखना कहा जाता है । इसलिये सर्वांग द्रव्यके देखनेमें अन्यरूप और अनन्यरूप -- इस तरह दो स्वरूप कहनेका निषेध नहीं हो सकता

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार

गाथा -21
हो देव मानव न या नर देव ना हो , किं वा मनुष्य शिव भी स्वयमेव ना हो ।
ऐसी दशा जब रही व्यवहार गाता , कैसे अनन्यपन को वह धार पाता ।l

अन्वयार्थ - ( मणुसो ) मनुष्य ( देवो ण हवदि ) देव नहीं है , ( वा ) अथवा ( देवो ) देव ( मणुसो । | व सिद्धो वा ) मनुष्य या सिद्ध नहीं है ; ( एवं अहोजमाणो ) सो ऐसा न होता हुआ वह ( अणण्णभावं कधं लहदि ) अनन्यभाव को कैसे प्राप्त हो सकता है ? |


गाथा -22
द्रव्यार्थि के वश सभी बस द्रव्य भाता , पर्याय अर्थिवश पर्यय रूप पाता ।
ऐसा कथंचित् अनन्य व अन्य होता , तत्काल क्योंकि वह तन्मय द्रव्य होता ।

अन्वयार्थ - ( दव्वट्ठियेण ) द्रव्याथिक नय से ( तं सव्वं ) वह सब ( दबं ) द्रव्य ( अणण्ण ) अनन्य है ; ( पुणो य ) और ( पज्जयट्ठिएण ) पर्यायार्थिक नय से ( तं ) वह ( सब द्रव्य ) ( अण्णं ) अन्य - अन्य है , ( तक्काले तम्मयत्तादो ) क्योंकि उस समय द्रव्य की पर्याय से तन्मयता है।


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#2

दो नय: दो दृष्टि कोण: दोनों सही

द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय से द्रव्य के अन्दर दोनों ही चीजें घटित होती हैं। जो द्रव्य अपनी पर्याय ों के साथ रहता है उसको देखने, जानने के ये तरीके हैं। दोनों ही नयों के माध्य म से जो बताया जा रहा है वह इसीलि ए बताया जा रहा है कि हमें हमेशा दोनों नयों के माध्य म से ही वस्तु को देखना चाहि ए। पि छली गाथा में द्रव्यार् थिक नय से यह बताया था कि द्रव्य कथञ्चि त् अन्य-अन्य पर्याय ों में विद्यमान रहता है। इसे द्रव्यार् थिक नय से सत् का उत्पा द कहा था । अब कहते हैं ‘मणुसो ण हवदि देवो’ ‘मणुसो’ माने मनुष्य की पर्याय , जो मनुष्य की है वह देव की पर्याय नहीं है । ‘देवो वा माणुसो व सि द्धो वा’ और जो देव पर्याय है वह मनुष्य की अथवा सि द्ध की पर्याय नहीं है। ‘एवं अहोज्जमाणो अणण्णभावं कधं लहदि ’ यदि ऐसा नहीं होता तो वह अनन्य भाव को कैसे प्राप्त करता? अर्था त् नहीं करता। कहने का तात्प र्य यह है कि पि छली गाथा में जो आत्म द्रव्य का उत्पा द बताया था , वह ी आत्मद्रव्य जब अन्य-अन्य पर्याय ों में परि णमन करता है, तो उन पर्याय ों में बिल्कुवबकिुल एकमेक हो जाता है। एकमेक का मतलब वबकिुल अभि न्न हो जाना। उन पर्याय ों से भि न्न नहीं रहता बल्कि उसी पर्याय में उसी मय हो जाता है।
द्रव्य और पर्या य अभिन्न हैं
द्रव्य हमेशा पर्याय सहि त ही रहता है। जीव द्रव्य और कर्म रूप पुद्गल द्रव्य की मि ली हुई पर्याय ों में ये मनुष्य, देव इत्या दि जो पर्याय ें बनती हैं ये सभी पर्याय ें अपने द्रव्य से एकपने को प्राप्त होती हैं। मतलब एक पने को प्राप्त होते हुए भी पर्याय ें अन्य-अन्य हैं, भि न्न-भि न्न हैं, अलग-अलग हैं लेकि न जिस समय पर जो पर्याय जिस द्रव्य के साथ रहती है वह पर्याय उस द्रव्य से अभि न्न रूपता के साथ रहती है। मतलब द्रव्य की वह ी पर्याय उस समय पर कही जाएगी और द्रव्य की वह ी पर्याय उस समय अनुभूति में आएगी। जैसे- मनुष्य पर्याय है, तो मनुष्य पर्याय में जो आत्मा है, वह हमेशा मनुष्य रूप ही स्वय ं को अनुभव करता है। इस मनुष्य पर्याय में आत्म द्रव्य की मनुष्य पर्याय के साथ में एक अभि न्नता बनी रहती है। भि न्न-भि न्न नहीं हैं। उसी के साथ में वह मि ला हुआ है। जो यह मनुष्य पर्याय है, इसके आगे जो अन्य पर्याय होगी तो वह पर्याय उस पर्याय से भि न्न होगी, अलग होगी। उसको कहेंगे कि मनुष्य की पर्याय देव पर्याय से भि न्न है। अतः हर पर्याय भि न्न-भि न्न होती है। यह नहीं कह सकते हैं कि मनुष्य पर्याय ही देव पर्याय है। ऐसा कहने से तो एक समय में दो पर्याय हो जाय ेंगी लेकि न कभी भी ऐसा होता नहीं।
क्रमबद्ध नहीं क्रमानुपाती पर्या य

र द्रव्य की जो पर्याय ें होती हैं वे क्रम-क्रम से उत्प न्न होती रहती हैं। क्रम से उत्प न्न होने का मतलब यह नहीं समझना चाहि ए कि उसकी पर्याय क्रम से बंधी हुई है। बंधी हुई नहीं है। इसमें देखो 'वा ' जो शब्द आया है ‘देवो वा ', 'माणुसो वा ', ‘सिद्धो वा ' तो इसकी भी टीका करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र जी कहते हैं कि इनमें से कि सी भी एक पर्याय को जीव प्राप्त कर लेता है। कोई भी पर्याय जीव अपने-अपने परि णामों के अनुसार प्राप्त कर सकता है। अन्यतम, कि सी भी पर्याय को वह प्राप्त कर लेता है। मतलब कोई भी पर्याय ें होती हैं, तो वह क्रम से होती हैं। क्रमानुपाती या क्रम के अनुसार ऐसा कहा गया है लेकि न ऐसा नहीं समझना चाहि ए कि पर्याय हमेशा कि सी क्रम से बन्धी हुई हैं और उसी क्रम से वे उत्प न्न होती हैं। पर्याय ें क्रम से बंधी हुई रहती हैं ऐसा कभी भी नहीं समझना चाहि ए। यह समझना चाहि ए कि पर्याय हमेशा क्रम-क्रम से ही नि कलती हैं। इसे क्रमानुपाती ऐसा शब्द आचार्य अमृतचन्द्र जी महा राज ने टीका में दिया है। क्रमबद्ध पर्या य यह शब्द तो कहीं भी नहीं आया है। क्रमानुपाती यह शब्द आया है। क्रमानुसारिण ऐसा शब्द आया है या क्रमभावी शब्द आया है। हर पर्याय क्रम-क्रम से उत्प न्न होती है। यह गाथा और पि छली गाथा ये दोनों एक-एक नय को हमें क्रम-क्रम से बताने वा ली हैं। मतलब यह हुआ कि जब हमें सत् का उत्पा द देखना है, तो हम क्या देखेंगे? हम द्रव्य की ओर देखेंगे। यह वह ी द्रव्य है जो देव बन गया , यह वह ी द्रव्य है, जो फिर मनुष्य बन गया , यह वह ी द्रव्य है जो सि द्ध बन गया । यह हो गया सत् का उत्पा द। जब हम केवल पर्याय को देखेंगे कि यह मनुष्य पर्याय है, इस द्रव्य की यह पर्याय है उस समय जब हमारी पर्याय की ओर देखने की दृष्टि रहती है वह उसके असत् का उत्पा द कहलाता है।

द्रव्य पर्या य सहित ही होता है
आचार्य ने यहा ँ पर द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय दोनों के माध्य म से हमें समझाने के लि ए दो अलग-अलग गाथाय ें दी हैं। 121 नम्बर की गाथा में कहा था कि प्रत्ये क द्रव्य स्व भाव से सत् के उत्पा द और असत् के उत्पा द रूप पर्याय से सहि त होता है। मतलब द्रव्यार् थिक नय से भी उसमें उत्पा द होता है और पर्यायार् थिक नय से भी उत्पा द होता है। द्रव्यार् थिक नय होने वा ले उत्पा द को सत् उत्पा द कहा और पर्यायर् थिक नय से होने वा ले उत्पा द को असत् उत्पा द कहा । कोई भी द्रव्य है वह द्रव्य अपनी पर्याय ों को लि ए हुए ही है। स्व भाव के साथ ही उसकी पर्याय रहती ही है। हर द्रव्य का अपनी पर्याय के साथ रहना हो रहा है। जब भी हम द्रव्य को जानेंगे तो द्रव्यार् थिक नय से भी जानेंगे और पर्यायार् थिक नय से भी जानेंगे। एक ही नय से जानने का आचार्यों ने कभी भी विधान नहीं किया है क्योंकि अनेकान्त दर्श न में हमेशा दोनों नयों के माध्य म से वस्तु को बताया जाता है। एक नय से यदि हमने वस्तु को जाना तो हम एकान्तवा दी बन जाय ेंगे और हमारा ज्ञा न भी अधूरा ज्ञा न, मि थ्या ज्ञा न कहलाय ेगा। इसलि ए इतना स्पष्टी करण देखने के बाद हम सबके दिमाग में यह बात रहनी चाहि ए कि जो लोग कहते हैं कि पर्याय तो झूठी होती है या पर्यायार् थिक नय से जानने में हमें कोई भी लाभ नहीं है, हमें द्रव्य को केवल द्रव्यार् थिक नय से ही जानना चाहि ए। पर्यायार् थिक नय से जो जानने में आता है, कहा जाता है वह तो असत्य होता है, ऐसा कुछ लोगो का अभिप्राय रहता है। ऐसा अभिप्राय रखने वा ले लोगों को ये चार 121, 122, 123 और आगे आने वा ली 124 वें नम्बर की गाथा ओं को ढंग देखना समझना चाहि ए कि आचार्य महा राज ने यहा ँ पर द्रव्यार् थिक नय से और पर्यायार् थिक नय से, दोनों नयों से द्रव्य का स्व भाव बना रहता है, ऐसा पहले एक गाथा में कहा । फिर द्रव्यार् थिक नय से बताने के लि ए 122 वें नम्बर की गाथा आयी और पर्यायर् थिक नय से बताने के लि ए 123 वें नम्बर की यह गाथा चल रही है। कि स नय से क्या -क्या देखा जाता है? कैसे जाना जाता है? इस बात का स्पष्टी करण आचार्यों ने किया है। यदि उन्हें पर्यायार् थिक नय से असत् का उत्पा द या पर्याय की उत्पत्ति स्वी कृत नहीं होती तो वे अलग से पर्यायार् थिक नय का व्याख्या न क्यों करते? इसी से स्पष्ट होता है कि द्रव्यार् थिक नय से भी द्रव्य का स्व भाव सि द्ध है और पर्यायर् थिक नय से भी द्रव्य का स्व भाव सि द्ध है। क्यों नहीं होगा? ऐसा तो कोई द्रव्य है ही नहीं कि जो द्रव्य तो है पर उसमें पर्याय न हो। द्रव्य हो और पर्याय न हो, ऐसा तो कोई द्रव्य तो होता ही नहीं। द्रव्य होगा तो उसकी कोई न कोई पर्याय तो होगी ही। उस पर्याय को धारण करने वा ला जो द्रव्य है वह तभी जानने में आएगा जब हम द्रव्य को भी जाने और पर्याय को भी जाने। मनुष्य पर्याय है, आत्मा द्रव्य है। पुद्गल द्रव्य है, कि ताब पर्याय है। आपकी जो पोशाक है- वह आपके वस्त्र की पर्याय है और जो कपड़ा है- मूल रूप में वह द्रव्य है | हर पदार्थ अपने द्रव्य और पर्याय के साथ ही रहता है। ये माइक है। इसका जो काले रंग के रूप में हमें बाह री पर्याय के रूप में दिखाई दे रहा है और इसका जो द्रव्य है वह लोह द्रव्य, वह पुद्गल द्रव्य है। हर द्रव्य अपनी पर्याय के साथ ही रहता है।


पर्या य के बि ना द्रव्य का अस्तित्व नहीं
दुनिया में कोई भी ऐसा द्रव्य है ही नहीं जिसकी कोई पर्याय न हो। ऐसा हो ही नहीं सकता। पर्याय नहीं होगी तो द्रव्य नहीं होगा और द्रव्य नहीं होगा तो पर्याय नहीं होगी। द्रव्य और पर्याय साथ -साथ रहती हैं। अतः ऐसा कभी नहीं हो सकता कि केवल द्रव्यार् थिक नय तो सत्य है और पर्यायार् थिक नय असत्य हो जाय े। समझ आ रहा है? कुछ लोग कहते हैं कि द्रव्य दृष्टि रखो, पर्याय दृष्टि से क्या होगा।

केवल द्रव्य दृष्टि : एकान्तवाद: मूढ़ ता
केवल द्रव्य दृष्टि रखोगे तो आपको द्रव्य केवल द्रव्य रूप जानने में आएगा, पर्याय रूप जानने मे नहीं आएगा। यह आपके लि ए अधूरा ज्ञा न होगा। जानना और मानना तो आपको दोनों ही दृष्टि से पड़ेगा। कौन सी दृष्टि ? द्रव्यार् थिक और पर्यायार् थिक। जब तक हम दोनों दृष्टिय ों से नहीं जानेंगे, दोनों दृष्टिय ों से वस्तु को नहीं समझेंगे, हम वस्तु को समूचा, पूरा का पूरा जान ही नहीं सकते हैं। कुछ लोग समझने की गलती कर जाते हैं। वे कहते हैं कि देखो पहले इसी ग्रन्थ में आया था न 'पज्जयमूढा ही परसमया' जो पर्याय में मूढ़ होते है वह मि थ्या दृष्टि होते हैं माने परसमय होते है। इसलि ए अपने को द्रव्य में दृष्टि रखना है। उस समय भी आपको स्पष्टी करण दिया था कि यह उन ही लोगों के लि ए है जो केवल पर्याय को ही जानते हैं, द्रव्य को जानते ही नहीं हैं। उनके लि ए कहा गया है कि तुम केवल पर्याय ों को ही जानते रहते हो, पर्याय ों का ही तुम्हें ज्ञा न है, द्रव्यों का ज्ञा न तुम्हें है ही नहीं। जिसको द्रव्य, गुण, पर्याय का ज्ञा न नहीं उसका जो पर्याय में ही ज्ञा न बना रहता है कि मैं मनुष्य हूँ, मैं बालक हूँ, मैं अमीर हूँ, मैं गरीब हूँ, मैं छोटा हूँ, मैं बड़ा हूँ, हर आदमी इसी रूप में तो जानता रहता है। मैं स्त्री हूँ, मैं पुरुष हूँ। मैं अज्ञा नी हूँ, मैं ज्ञा नी हो गया हूँ। यह जो आदमी अपने साथ केवल पर्याय ों को जानता रहता है उसके लि ए कहा गया है कि तुम पर्याय ों में मूढ़ मत बनो। द्रव्य को भी जानो। जो द्रव्य को जान कर पर्याय ों को जानेगा उसे सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। उसे ही सम्यग्ज्ञानि कहा जाता है क्योंकि वह दोनों चीजों को जान रहा है। द्रव्य को भी जान रहा है, पर्याय को भी जान रहा है। द्रव्य को जाने बि ना जो केवल पर्याय को जानता रहा उसको पर्याय मूढ़ या मि थ्या दृष्टि कहा जाता है। इसलि ए यहा ँ पर आचार्य महा राज द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय दोनों का क्रम-क्रम से व्याख्या न कर रहे हैं। कोई भी नय झूठा है, ऐसा कहीं भी आचार्य कुन्द कुन्द देव ने कहा ही नहीं है।


पर्या य दृष्टि मूढ़ ता नहीं केवल पर्या य दृष्टि मूढ़ ता
कुछ लोग जो व्यवहा र को झूठ कहते हैं या पर्याय दृष्टि को मि थ्या कहते हैं उन्हें यह तो सोचना चाहि ए कि पर्याय को दृष्टि में नहीं रखेंगे तो द्रव्य की दृष्टि भी हमें कैसे पता पड़ेगी कि यह द्रव्य इस पर्याय के साथ में है। पर्याय दृष्टि मूढ़ हो जाएगी, झूठ हो जाएगी तो हम कभी यह ही नहीं कह पाएँगे कि सि द्ध भगवा न को केवलज्ञा न के साथ हम जानते हैं या देखते हैं। सि द्ध भगवा न में अनन्त सुख उत्प न्न हुआ है। यह केवलज्ञा न है, अनन्त सुख है, सम्यक्त्व है, यह सब क्या है? ये सब पर्याय ही तो हैं। ज्ञा न गुण था । ज्ञा न गुण की पर्याय केवल ज्ञा न के रूप में प्रकट हुई। आत्मा का सुख था - सुख गुण, वह अनन्त सुख के रूप में प्रकट हुआ। हम यदि यह कहेंगे कि सि द्ध भगवा न अनन्त सुख से सम्पन्न हैं, सि द्ध भगवा न केवल ज्ञा न से सम्पन्न हैं, सि द्ध भगवा न सम्यकत्व के साथ हैं, अनन्त शक्ति के साथ हैं, अनन्त दर्श न के साथ हैं, यह सब कहना मि थ्या हो जाएगा क्योंकि यह सब क्या है? यह सब पर्याय दृष्टि ही तो है। केवल द्रव्य दृष्टि से देखोगे तो द्रव्यार् थिक नय से द्रव्य का कुछ होता ही नहीं है। फिर तो न कोई जीव संसारी सि द्ध होगा, न कोई जीव मुक्त सि द्ध होगा क्योंकि जीव तो जीव है बस। जीव था , जीव है। अब वह चाह े संसार में रह रहा हो, चाह े मुक्त हो गया हो। जीव तो जीव था , सो है। जीव द्रव्य तो कुछ नष्ट नहीं हुआ? केवल जीव द्रव्य की ओर ही हमने देखा तो संसार और मुक्ति की व्यवस्था ही नहीं बनेगी। केवल द्रव्ययार् थिक नय से ही जानेंगे तो तत्त्वा र्थ सूत्र में जो ‘संसारिणो मुक्ता श्च’ जीव दो प्रकार के होते हैं ऐसा कहा गया है कि नहीं। एक संसारी जीव होते हैं और एक मुक्त जीव होते हैं, यह कथन ही गलत हो जाएगा। ऐसा मानना पड़ेड़ेगा कि नहीं कि संसारी जीव होते हैं और मुक्त जीव होते हैं। यदि हमने यह भी देखा कि ये संसारी जीव हैं और ये मुक्त जीव हैं तो यह भी तो हमारी पर्याय दृष्टि हो गई। जो पर्याय दृष्टि को गलत कहते हैं उन्हें इतना तो सोचना चाहि ए कि जीवों में यह भेद करना कि हम संसारी हैं और ये मुक्त जीव हैं, यह कहना भी फिर हमारे लि ए गलत हो जाएगा और यदि इसको हम गलत मान लेंगे तो फिर संसार और मुक्ति के बीच का कोई विभाजन ही नहीं रहेगा। द्रव्य है, तो है। था सो था । रहेगा सो रहेगा। केवल अगर हम द्रव्य दृष्टि ही माने, द्रव्यार् थिक नय को ही जाने तो द्रव्य तो कभी भी नष्ट होता ही नहीं है। फिर उसको हम संसार से मुक्ति की ओर ले जाने का प्रया स ही क्यों करें? जो पर्याय चल रही है, चल रही है। जब उसकी जो पर्याय होनी होगी, हो जाएगी। जीवों का दो प्रकार से विभाजन करना, जीव के लि ए यह कहना कि यह इसका मति ज्ञा न है, यह इसका श्रुत ज्ञा न है, यह इसका केवल ज्ञा न है, यह सब पर्याय दृष्टि हो जाएगी। ज्ञा न मात्र कहो बस। जीव क्या है? ज्ञा न गुण से सम्पन्न है, ज्ञा न मात्र है। यदि हम ने यह कहा कि हम मति ज्ञा न, श्रुत ज्ञा न वा ले हैं और अरिह न्त, सि द्ध भगवा न केवल ज्ञा न वा ले हैं तो यह तो पर्याय दृष्टि हो गई। क्या समझ आ रहा है? कहा ँ तक बचोगे पर्याय दृष्टि से?

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#3

पर्या य दृष्टि की गलत व्याख्या
पर्याय दृष्टि का मतलब लोगों ने इतना अफवाह में फैला रखा है, इतना गलत भाव बना रखा है कि द्रव्य दृष्टि , द्रव्य दृष्टि , द्रव्य दृष्टि रखो। अरे! द्रव्य दृष्टि क्या रखो? द्रव्य दृष्टि से तो द्रव्य था , है और रहेगा ही। आपको मुक्ति की भाव ना कब पैदा होगी? जब पर्याय दृष्टि में आएगी तभी तो मुक्ति की भाव ना होगी? फिर तो हम सि द्ध भगवा न का ध्या न ही क्यों करेंगे? अरिह न्त भगवा न का ध्या न ही क्यों करना? यदि पर्याय दृष्टि है ही नहीं या पर्याय दृष्टि मि थ्या ही है, तो अरिह न्त भगवा न भी तो अपनी एक पर्याय के साथ ही है न। तीर्थं कर महाव ीर भगवा न या आदिनाथ भगवा न अपनी तीर्थं कर पर्याय के साथ कुछ समय तक अरिह न्त अवस्था में रहे। वह एक पर्याय थी, छूट गई सि द्ध बन गए। अब हम उनका ध्या न क्या करें? अरिहन्तों का ध्या न क्या करना? यदि हम उन का ध्या न करेंगे तो हमें उनका शरीर दिखाई देगा, शरीर तो उनकी पर्याय है। पर्याय को क्यों ध्या न में ला रहे हो? मतलब अरिहन्तों का ध्या न करने की भी फिर कोई आवश्यकता नहीं है। पर्याय दृष्टि मूढ़ है, ऐसा लोग व्याख्या न करते हैं। द्रव्य दृष्टि रखो, द्रव्य दृष्टि रखो। पहले समझो तो कि पर्याय द्रव्य से अलग नहीं है। यदि हम एकान्त रूप से यह ी कहेंगे कि केवल पर्याय दृष्टि गलत है, तो फिर हमारा द्रव्य के साथ जो परि णमन हो रहा है, उस परि णमन को हम अलग-अलग रूप से कैसे कहेंगे? देखो! यहा ँ सि द्ध शब्द आया कि नहीं? वह ी जीव देव हो गया , वह ी जीव मनुष्य हो गया , वह ी सि द्ध हो गया । आचार्य क्या कह रहे हैं?

सिद्ध भी एक पर्या य
आचार्य कहते हैं कि सि द्ध भी तो एक पर्याय है। जीव तो वह ी था । जीव जब मनुष्य में था तो मनुष्य रूप था , देव में था तो देव रूप हो गया , सि द्ध हो गया तो सि द्ध रूप हो गया । सि द्धत्व भी एक पर्याय हो गई। यदि हम णमो सिद्धा णं कहे तो वह भी कहने की क्या जरूरत है? जब तुम्हें द्रव्य दृष्टि ही रखना है, तो बस अपने ही द्रव्य को देखना है। दूसरे के द्रव्य को तो हमें स्वी कार करना ही नहीं है। स्वी कार कर लोगे तो फिर तुम्हा रा एकान्तवा द नष्ट हो जाएगा। मतलब जो केवल द्रव्य दृष्टि रखने वा ले हैं वे अरिह न्त और सि द्ध का ध्या न भी नहीं कर सकते हैं। लोग पढ़ -पढ़ कर कुछ ज्या दा ही पण्डित हो गए हैं। इन्हीं प्रवचनसार और समयसार से उनकी द्रव्य दृष्टि ऐसी बन गई है कि पर्याय की बात करना तो उन्हें पर्याय मूढ़ ता समझ में आती है लेकि न उन्हें यह नहीं मालूम की पर्याय मूढ़ ता का मतलब क्या है। अभी तक जो केवल पर्याय को जान रहा था , अनादि काल से जीव ने द्रव्य को तो जाना ही नहीं, छ: द्रव्यों का विवेचन तो अब सुन रहा है। इसलि ए जब सुनेगा तब उसे द्रव्य का ज्ञा न होगा। अन्यथा अभी तक तो पर्याय को ही जानता था । मैं मनुष्य था , मैं मनुष्य हूँ। कभी यह जाना कि यह मनुष्य भी मेरी आत्मा की ही पर्याय है? अभी तक क्या जाना कि मैं मनुष्य हूँ और मैं मनुष्य में भी अभी बच्चा हूँ, युवा हो गया हूँ, बूढ़ा हो गया हूँ और मर गया तो मैं मर गया हूँ। कौन मर गया ?
पर्या य दृष्टि के बि ना समाधि मरण भी नहीं
मनुष्य मर गया कि मनुष्य को धारण करने वा ला जो आत्म द्रव्य था वह मर गया ? पर्याय ही तो मर गई? मतलब मनुष्य की पर्याय ही तो छूट गई? यह जो अब हमें ज्ञा न हो गया हमारे लि ए यह ज्ञा न जो पहले था और अब जो ज्ञा न हो रहा है, उसमें कि तना अन्तर आ गया ? जब तक हमने यह नहीं जाना कि यह आत्म द्रव्य है, उसकी यह मनुष्य पर्याय है, उससे पहले हम जो ज्ञा न रखते थे तो हम समझते थे कि मनुष्य मर गया माने हमारी पर्याय मि ट गई तो हम ही मि ट गए। हमारे ज्ञा न में क्या आ गया ? हम नहीं मि ट गए, हम तो अभी रहेंगे, आगे भी रहेंगे, पहले भी थे क्योंकि हम कभी भी मि ट नहीं सकते। मेरा आत्मा तो अजर-अमर है, अविनाशी है। मनुष्य की पर्याय छूट रही है। इसीलि ए वह सहजता से आसानी से उसको मरण के समय छोड़ देता है। क्यों छोड़ देता है? क्योंकि अब उसको ज्ञा न आ गया । अब पर्याय को ध्या न में रखते हुए, पर्याय को छोड़ ते हुए, दुःखी नहीं होता। यह उसके लि ए पर्याय की मूढ़ ता नहीं है। यदि पर्याय की मूढ़ ता कहे तो फिर समाधि मरण और सामान्य मरण में कोई अन्तर ही नहीं रहेगा। उस में अन्तर क्या है? पर्याय तो आपकी दृष्टि में कुछ है ही नहीं। पर्याय कभी मरती है ही नहीं। पर्याय आपकी दृष्टि में मि थ्या है। पर्याय आपकी दृष्टि में मान लो मर भी गई तो पर्याय मि थ्या थी तो मि थ्या छूट गया तो फाय दा क्या हुआ? वह तो होना ही है, पर्याय तो छूटना ही है चाह े अकाल मरण मरो, चाह े समाधि मरण मरो, चाह े अपने समय से मरो, क्या फर्क पड़ ता है? क्योंकि सब मरना तो केवल पर्याय है। पर्याय द्रव्य का स्व भाव नहीं या पर्याय है, वह केवल पर्यायार् थिक दृष्टि से, व्यवहा र दृष्टि से कहने को है। वस्तु तः त्रैकालि क ध्रौ व्य जो है वह द्रव्य है उस पर दृष्टि रखो। उस पर दृष्टि रखने वा ला समाधि मरण कैसे करेगा? "समाधि मरण" यह भी तो एक पर्याय का भाव आ गया । तभी तो आप मरण को सम्भा ल रहे हो। अच्छा ! बताओ मरण की क्या चीज है? मरण भी तो पर्याय है न? जब जन्म एक पर्याय है, तो मरण भी तो एक पर्याय ही है? पर्याय की भी एक विशेष पर्याय हो गई- समाधि मरण की पर्याय , अकाल मरण की पर्याय । ये सब उसकी और विशेष पर्याय हो गई। यदि हम उस पर्याय को नहीं सम्भा लेंगे तो कभी भी हमारे द्रव्य की सम्भा ल नहीं हो सकती है। हमेशा पर्याय ों को ही ध्या न में रखकर आप को वैराग्य होगा।
पर्या य दृष्टि बहुत कीमती है
पर्याय ों की कि तनी बड़ी कीमत है? कि सी की मृत्यु देखी और मृत्यु को देख कर कि सी को वैराग्य हो गया । कि स को देखकर वैराग्य हो गया ? मरना भी तो एक पर्याय ही है न? उसकी परि णति है? जीव द्रव्य को देखकर तो कि सी को वैराग्य नहीं होगा। पर्याय को देख कर ही तो होगा? तीर्थं कर को भी वैराग्य हुआ है, तो नीलाञ्जना की मृत्यु देखकर ही हुआ न? आपकी द्रव्य दृष्टि तो तीर्थं करों से भी ज्या दा बड़ी हो गई। कि नसे? तीर्थं करों से। आप तो इतने द्रव्य दृष्टि वा ले हो गए कि उन्हीं पर आरोप लगा दोगे कि पर्याय को देखकर मूढ़ बन गए तभी तो इन्हें वैराग्य हो गया । नीलाञ्जना की ही तो मृत्यु हुई थी, उसकी आत्मा तो नहीं मर गई थी? वह तो तुरन्त दूसरी पर्याय में कहीं न कहीं चली गई? उसी समय उन के सामने दूसरी पर्याय भी लाकर इन्द्र ने खड़ी कर दी थी। इतनी जल्दी कि उनको पता भी नहीं पड़ पाय े। बिल्कुवबकिुल क्ष ण भी नहीं लगा। जैसे ही एक नीलाञ्जना गई, दूसरी नीलाञ्जना वहा ँ प्रकट हो गई। उन्हों ने भेद किया तो कि समें किया ? इसकी पर्याय और इसकी पर्याय दोनों अलग-अलग पर्याय ें हैं क्योंकि अलग-अलग आत्म द्रव्य की हैं। पर्याय में भेद दृष्टि गई तभी तो वैराग्य हुआ? नीलाञ्जना मर गई। अरे! ऐसे पर्याय छूट जाती है? ऐसे मरण हो जाता है और जीव इन पर्याय ों में इतना व्यस्त बना रहता है कि उसे कुछ भी होश नहीं रहता है? वह तो नाच रही थी। अचानक से नाचते-नाचते मर गई? पर्याय देखकर वैराग्य हो रहा है कि जीव को देखकर वैराग्य हो रहा है? हमें यह तो बताओ। आप कहते हो कि पर्याय दृष्टि रखने वा ला मि थ्या दृष्टि होता है। हम कि तना गलत पढ़ ते हैं, कि तना गलत व्याख्या न करते हैं, कि तना गलत लोगों को बताते हैं?

जिन वचन की गलत व्याख्या पाप बन्ध का कारण
यह सोचना चाहि ए कि हमें कि तने पाप का बन्ध होगा यदि हम ऐसे व्याख्या न करते हैं तो? मान लो कि सी को वैराग्य आया तो उसकी पर्याय दृष्टि झूठी थी, इसका मतलब यह हुआ कि उसका वैराग्य भी झूठा कहलाया क्योंकि उसे वैराग्य कि से देखकर हुआ? पर्याय देखकर हुआ। पर्याय झूठी है क्योंकि पर्याय व्यवहा र नय का विषय है, पर्यायार् थिक नय का विषय है। द्रव्य दृष्टि रखो। द्रव्य दृष्टि रखने से वैराग्य होता क्या ? वैराग्य कौन सी दृष्टि रखने से होगा? कि सी के जन्म-मरण देख कर वैराग्य होगा तो कौन सी दृष्टि से होगा? आज तक कि सी को द्रव्य दृष्टि रखने से वैराग्य हुआ? संसार और मुक्ति का भेद भी पर्याय दृष्टि से ही है। राग और वैराग्य की दृष्टि भी पर्याय दृष्टि से ही आएगी। संसार से वैराग्य होगा तो पर्याय दृष्टि के माध्य म से ही होगा। द्रव्य दृष्टि का लेना-देना क्या है? द्रव्य दृष्टि तो बहुत अन्त की दृष्टि है। जब आपको कुछ भी नहीं करना हो, जब आपको कि सी से कुछ भी प्रयोजन न हो तब अन्त में शुद्ध आत्मा की दृष्टि द्रव्य-दृष्टि होगी। यह बहुत बाद की बात है। पहले वैराग्य तो लाओ। राग और वैराग्य में अन्तर करना यह द्रव्य दृष्टि है कि
पर्याय दृष्टि ? हमें यह बताओ! पढ़ेढ़े-लि खे लोगों। राग भी एक पर्याय है और वैराग्य भी एक पर्याय है। यदि हम पर्याय दृष्टि को गलत मानेंगे तो राग और वैराग्य में अन्तर ही नहीं रह जाएगा। तीर्थं कर भगवा न को नीलाञ्जना की मृत्यु देखकर वैराग्य हुआ तो सही हुआ कि गलत हुआ? क्या गलत हो गया ? वैराग्य नहीं होना चाहि ए था ? उन्हों ने गलती कर ली? उनकी पर्याय दृष्टि थी तभी तो उन्हें वैराग्य हो गया । द्रव्य दृष्टि वा ले को क्या वैराग्य होता है? द्रव्य तो न मरता है, न जीता है। द्रव्य तो त्रैकालि क ध्रुव सत्य है। कुछ समझ आ रहा है? आपके कुछ समझ में नहीं आता क्योंकि दिमाग जाम हो गया है। एक cassette दिमाग में भर ली है वह ी चलती रहती है। आज आदमी के अन्दर सोचने-विचारने की भी क्ष मता नहीं रही है। बादल थे, विघटित हो गए। क्या विघटित हो गया देखते ही देखते। अरे! अभी यहा ँ बादल थे। कि तने अच्छे दिख रहे थे और अभी जाने कहा ँ चले गए, लुप्त हो गए? क्या हो गया ?
 
केवल द्रव्य दृष्टि से वैराग्य नहीं
द्रव्य को देखकर वैराग्य होता है कि पर्याय को देखकर? बादल पर्याय है कि द्रव्य है? क्या है? आपको द्रव्य दिख रहा है कि पर्याय दिख रही है? सोचने की बात तो है। कुछ भी बोलते जाते हैं, यह लोग। पर्याय दृष्टि सो हेय दृष्टि । पर्याय दृष्टि सो मूढ़ दृष्टि । पर्याय दृष्टि रखने वा ला मि थ्या दृष्टि । ऐसी-ऐसी बातें करते हैं। अरे! द्रव्य दृष्टि वा लों! कौन सा ऐसा द्रव्य है जिसकी पर्याय न हो? द्रव्य के बि ना पर्याय को जानने वा ला होगा तो मि थ्या दृष्टि है। जो द्रव्य, गुण, पर्याय सबको जान रहा है, उसे मि थ्या दृष्टि कैसे कह सकते हैं? ज्ञा न और श्रद्धा न तो उसे भगवा न की वा णी से ही हो रहा है न। द्रव्य, गुण, पर्याय तीनों को जानने वा ला पर्याय को भी देखता है तो वह कि तने अच्छे ढंग से देखता है कि उसे पर्याय का परिवर्त न देखते ही वैराग्य हो जाता है। जिन्हें पर्याय देखना ही नहीं है वे द्रव्य दृष्टि , द्रव्य दृष्टि करते हुए जीवन नि काल रहे हैं। न तो समाधि मरण की भाव ना है, न ही व्रत लेने की भाव ना है, न वैराग्य आ रहा है। बस राग अलग है, वैराग्य अलग है, ऐसा कहते रहते हैं। सोचने की बात है कि इतनी द्रव्य दृष्टि रखने वा लों को वैराग्य क्यों नहीं हो रहा ? उसका यह ी कारण है कि वैराग्य कभी भी द्रव्य दृष्टि से होता ही नहीं है, पर्याय दृष्टि से ही होता है। वैराग्य होना भी एक पर्याय ही है। द्रव्य में क्या वैराग्य होना है? राग था । राग की कमी हो गई। एकदम से राग का अभाव तो नहीं हो जाएगा? राग की अधि कता होना या कमी होना भी तो एक पर्याय है। जैसे काला रंग है जो बड़ा तीव्र काला दिख रहा है, चमकदार है। कुछ दिनों के बाद में जब यह थोड़ा सा घि स जाएगा, फीका पड़ जाएगा तो यह ी काला, हल्का काला दिखने लगेगा। बीच-बीच में सफेद भी पड़ जाएगा। यह क्या है? यह भी तो उसकी पर्याय ही है। द्रव्य तो वैसा का वैसा ही बना हुआ है। राग में कमी आना या राग की अधि कता होना इसमें कहीं कुछ धर्म है कि नहीं और धर्म है, तो पर्याय में हो रहा है कि द्रव्य में हो रहा है? पर्याय देखकर हो रहा है कि द्रव्य देखकर हो रहा है? फिर पर्याय की मूढ़ ता, पर्याय को मत देखो, पर्याय को मत जानो, पर्याय तो असत्य है व्यवहा र नय का विषय है, ऐसे-ऐसे व्याख्या न चलते रहते हैं। जिनवाणिय ॉं भरी पड़ी हैं इनसे।

उसे जि नवाणी कैसे कहें?
उसको जिनवा णी कहें तो कैसे कहें? गाथा यह ी आचार्यों की लि खी मि लेगी और व्याख्या न जिनवा णी के विपरीत लि खे मि लेंगे और उसे जिनवा णी की तरह पूजना है। एक धर्म संकट में और डाल दिया । प्रवचनसार, आचार्य कुन्द-कुन्द देव और व्याख्या न है अपना और यह सब मि थ्या बातें भरी पड़ी हैं। कि तने स्पष्ट रूप से यहा ँ आचार्य देव द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय के विषय का वर्ण न कर रहे हैं। समझा रहे हैं कि द्रव्य पर्याय ों से अन्य है और हर एक पर्याय में जो हमें द्रव्य दिखाई दे रहा है वह उसका अनन्य पना है।
अन्य पना और अनन्य पना
एक अनन्य पना और एक अन्यपना इस में अन्तर समझ आ रहा है? ‘अनन्य यानि न अन्य इति अनन्य’ अन्य नहीं है। भि न्न नहीं है। जो था वह ी यह है, वह ी यह है, वह ी यह है, इसे क्या कहते हैं? अनन्या पना। समझ आ रहा है न? दस साल पहले हम यह ी थे, यह ी हमारा नाम था । अब हम बीस साल के हो गए, अब हम तीस साल के हो गए, चालीस साल के हो गए, यह हम वह ी हैं, वह ी हैं, वह ी हैं, यह क्या हो गया ? अनन्यपना और दस साल पहले हम छोटे थे, अब और बड़े हो गए, अब और बड़े हो गए और हो गए, यह क्या हो गया अन्य पना। पहले जैसे थे वैसे तो नहीं रहे, पहले से भि न्न हो गए, पहले से अन्य हो गए। हर द्रव्य और पर्या य के साथ में यह अनन्य पना और अन्य पना है। अनन्य को ही कहते हैं अभिन्नपना और अन्य को कहते हैं भिन्नपना, चलता ही रहेर्फेगा। यह नहीं होगा तो द्रव्य का स्व भाव ही नहीं ठहरेगा। जितनी भी यह पर्याय ें हैं वे सब पर्याय ें अलग-अलग हैं, अन्य-अन्य हैं। ‘अणण्णभावं कथं लहदि ’ ये पर्याय ें अनन्य भाव को कैसे प्राप्त हो सकती हैं? हर पर्याय अपने-आप में अलग-अलग है, भि न्न-भि न्न है। इस भि न्न-भि न्न पर्याय को कहने का नाम है- असत् का उत्पा द। जीव द्रव्य था , वह ी अनन्त ज्ञा न से सम्पन्न हो गया , अनन्त सुख से सम्पन्न हो गया , सि द्ध बन गया । अब सोचो, हम क्या कहने जा रहे हैं? पर्याय का व्याख्या न कर रहे हैं कि द्रव्य का व्याख्या न कर रहे हैं? जीव की विशेषता पर्यायार् थिक नय से बता रहे हैं कि द्रव्यार् थिक नय से बता रहे हैं। पर्यायार् थिक नय से ही विशेषता आती है। द्रव्यार्थि व्यार्थिक नय से तो कोई वि शेषता है ही नहीं क्यों कि द्रव्यार्थि व्यार्थिक नय सामान्य को पकड़ ता है। पर्या यार्थि र्थिक नय वि शेष को ग्रहण करता है। यदि हम सामान्य को ही पकड़े रहेंगे तो सि द्ध में और हम में कोई अन्तर ही नहीं होगा। कोई भी व्यक्ति कि सी भी तरह से यदि धर्म के मार ्ग पर आगे बढ़ ता है, तो उसके अन्दर राग की कमी आना, मि थ्या त्व का अभाव होना, कषाय में कमी आना यह सब भी क्या चीजें हैं? गुण तो कभी मि टता नहीं है। आत्मा का जो श्रद्धा गुण था , वह तो चल ही रहा है। वह मि थ्या त्व हो या सम्यकत्व हो, क्या फर्क पड़ रहा है? मि थ्या त्व पर्याय को हटाओगे तभी तो सम्यकत्व पर्याय आएगी? दो पर्याय ें एक साथ तो नहीं रह सकती। पर्याय ही तो हटाओगे? पर्याय कैसे हटेगी? पर्याय पर तो आपको विश्वा स ही नहीं है कि यह पर्याय सत्य है। सत्य है सो द्रव्य है। ऐसे व्याख्या न करते हैं लोग। उनको समझाने के लि ए है कि इस गाथा में क्या कहा जा रहा है? इसके आगे एक और गाथा आ रही है जिसमें और अच्छी तरह से आचार्य स्पष्टी करण करते हैं:-

हो देव मानव ना या नर देव ना हो, किं वा मनुष्य शि व भी स्वयमेव ना हो।
ऐसी दशा जब रही व्यवहार गाता, कैसे अनन्यपन को वह धार पाता।l

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
Email: manish@frontdesk.co.in
Tel: +91 141 6693948
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#4

Gatha-21 
A man cannot be a deva and a deva cannot be a man or the Siddha; how can the substance (dravya) in all these different modes (paryāya) be the same?

Explanatory Note: States of existence – like the man, the deva, or the Siddha – do not happen at the same time. Therefore, these states of existence – paryāya – are different from one another. The substance (dravya), which is the doer (kartā), the instrument (karaõa), and the substratum (adhikaraõa) of the mode (paryāya), and which is not distinct from the mode (paryāya), changes, conventionally, with each change of mode (paryāya). As the mode (paryāya) changes, the substance (dravya) must change, albeit conventionally. From the the standpoint-of-modes (paryāyārthika naya), origination (utpāda) takes place in the substance (dravya) – asadbhāva-utpāda or asat-utpāda. As gold is referred to as the ‘bracelet-gold’ or the ‘earring-gold’, in the same way, the soul (jīva) is referred to as ‘human-soul’, ‘deva-soul’, and ‘Siddha-soul’. Thus, in reference to asat-utpāda, it is proper to accord a new form to the substance (dravya) with a change of the mode (paryāya).

Gatha-22

From the standpoint-of-substance (dravyārthika naya), as the substance (dravya) remains the same, the object (vastu) is ‘notother’ (ananya) in different modes (paryāya). From the standpoint-of-modes (paryāyārthika naya), as the object takes the form of the mode (paryāya), it is said to be ‘other’ (anya) with each change of the mode (paryāya).

Explanatory Note: 
The object (vastu) has two kinds of attributes, general (sāmānya) and specific (viśeÈa). The standpoint-of-substance (dravyārthika naya) and the standpointof-
modes (paryāyārthika naya) are the two eyes that see these two kinds of attributes, general (sāmānya) and specific (viśesa). When viewed with one eye of the standpoint-of-substance (dravyārthika naya) while closing the other eye, the soul (jīva), with its general (sāmānya) attribute, appears to be the same in all modes (paryāya) – as the man, the infernal being, the deva, or the Siddha. When viewed with the eye of the standpoint-of-modes (paryāyārthika naya) while closing the other eye, the soul (jīva), with its specific (viśesa) attributes, appears to be different in all modes (paryāya) – as the man, the infernal being, the deva, or the Siddha. The soul (jīva) appears to have taken the form of its existing mode. Just as the fire, while burning, takes the form of the fuel – dung, grass, leaves, wood – in the same way, the soul (jīva) takes forms according to its modes (paryāya) of existence. When viewed with both the eyes – the standpoint-of-substance (dravyārthika naya) and the standpoint-of-modes (paryāyārthika naya) – the soul (jīva) appears to be one as well as different, with change of modes (paryāya). Viewing the object with only one eye – standpoint – does not provide the whole picture; viewing it with both the eyes gives the complete picture. When the object is viewed with both the eyes, there is no contradiction in the statement that it is ‘not-other’ (ananya) as well as it is ‘other’ (anya), in different modes (paryāya).
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#5

गाथा - 22
द्रव्य- अन्य भी, अनन्य भी।
देखो! कि तने अच्छे स्पष्टी करण के साथ लि खा जा रहा है। ‘दव्वट्ठि येण’ यानि द्रव्यार् थिकपने से माने द्रव्यार् थिक नय से। क्या मतलब हुआ? द्रव्य को जब हम देखेंगे तो द्रव्यार् थिक नय से। ‘सव्वं दव्वं ’ माने सभी द्रव्य। उनको ‘तं’ और उन ही सब द्रव्यों को ‘पज्जयट्ठि एण पुणो’ पुनः उन्हीं को पर्यायार् थिक नय से, क्या हो जाते हैं वह ? ‘अण्णमणण्णं य हवदि ’ अन्य भी हो जाते हैं और अनन्य भी हो जाते हैं। द्रव्यार् थिक नय से अनन्य ही रहता है और पर्यायार् थिक नय से वह ी द्रव्य अन्य भी हो जाता है। हम अलग भी कहेंगे और वह ी भी कहेंगे। दोनों विरोधाभास कैसे कह लोगे? दुनिया का कोई भी व्यक्ति इस विरोधाभास को मि टा नहीं सकता है। केवल अनेकान्त को जानने वा ला, स्या दवा द से ही इस विरोधाभास को मि टा सकता है। जिसको आप कह रहे हो यह वह ी है और यह भी कह रहे हो कि यह अलग हो गया । समझ आ रहा है? जब वह ी था तो अलग कैसे? अनन्य है, तो अन्य कैसे? और अन्य है, तो अनन्य कैसे?
अनन्य याने एकपना, अन्य याने अनेक पना
अनन्य माने एकपना और अन्य माने अनेकपना, भि न्नपना। एकपना और अनेकपना, अभि न्नपना और भि न्नपना दोनों हर द्रव्य के साथ -साथ चल रहे हैं। दोनों उसके गुण धर्म हैं। जब हम दोनों को जानेंगे तभी हमारे लि ए अनेकान्त वा द के माध्य म से वस्तु का यथा र्थ जानने में आएगा। आचार्य क्या कहते हैं? वह ी द्रव्य ‘तक्का ले अण्णमणण्णं वा’ तक्का ले या ने उसी समय पर जो द्रव्य जिस पर्याय के साथ रह रहा है, वह द्रव्य उस समय पर उसी काल में अन्य भी होता है, अनन्य भी होता है। कैसे हो जाता है?
द्रव्य प्रति समय पर्या य में तन्मय
‘तक्का ले तम्मयत्ता दो’ क्योंकि उस समय पर वह उस मय होता है, तन्मय होता है। समझ आ रहा है? वह द्रव्य उस समय पर अपनी पर्याय मय होता है। जैसे अभी हम मनुष्य द्रव्य के साथ , मनुष्य पर्याय के साथ हैं। अभी हम मनुष्य पर्याय मय हैं। हमारा सब व्यवहा र मनुष्यों जैसा होगा। पशुओं जैसा नहीं होगा, नारकिय ों जैसा नहीं होगा, देवों जैसा नहीं होगा। हम हमेशा क्या महसूस करेंगे? हम मनुष्य हैं। हमारा द्रव्य इस समय कि स मय है?


अनुभूति किसकी? द्रव्य की या पर्या य की?
मनुष्य पर्याय मय है। जीव द्रव्य जिस समय पर जिस पर्याय के साथ होगा, वह उस मय होता है। उस समय पर वह उस मय होगा या ने उसी में मि ला हुआ होगा, घुला मि ला रहेगा। मतलब हम कभी भी यह चाह े कि मनुष्य पर्याय में हम देवत्व की अनुभूति कर ले तो यह कभी नहीं हो सकती है। स्व प्न में भी नहीं। स्व प्न में तो और नहीं हो सकती क्योंकि स्व प्न तो वैसे भी झूठ होते हैं। समझ आ रहा है? इस मनुष्य पर्याय में लोग सि द्धत्व की अनुभूति कर रहे हैं। मैं सि द्ध हूँ, मैं सि द्ध हूँ, मैं सि द्ध हूँ। सि द्ध कैसे हो सकते हो? यदि यह कहो कि मैं सि द्ध समान हूँ तब तो चलो फिर भी ठीक है लेकि न मैं सि द्ध हूँ। क्या आप सि द्ध हो गए? यह सोच कर बोलना। मैं भी आपको बुलवा ता हूँ। सिद्धोह ं, सोहम्, सोहम्। कभी-कभी बुलवा ता हूँ न। सि द्ध स्व रूपोहं। सि द्ध स्व रूप है, मेरा। उसका मतलब क्या ? अगर मान लो मैं यह भी बोल दूँ कि सिद्धोह ं तो कहीं तुमने यह तो नहीं मान लिया कि मैं सि द्ध हो ही गया ? शक्ति आ गई न? यह तो नहीं कहा न कि सि द्ध ही हो गया हूँ मैं। यह ध्या न में रखना। जब भी आपसे भाव ना कही जाती है कि सिद्धोह ं या सि द्ध स्व रूपोहं तो इसका मतलब हो गया मेरा स्व रूप और सि द्ध का स्व रूप एक समान है। ऐसी एकत्व की भाव ना जोड़ने के लि ए यह भाव ना रखी जाती है। ऐसा नहीं समझ लेना कि मैं ही सि द्ध हो गया । सिद्धोह ं कहा न। मैं सि द्ध हूँ। सोsहं, सोsहं माने भी होता है- सो यानि वह । वह माने जो मैं अभी नहीं हूँ। जो होऊँगा, वह मैं हूँ, वह मै हूँ यानि मैं सि द्ध हूँ, मैं सि द्ध हूँ, इसका मतलब यह ही होता है।

वह मैं हूँ
सोsहं या ने वह मैं हूँ। सो या ने वह , जो अभी नहीं है। वह कि सको बोलते हैं, जो परोक्ष में है। समझ आ रहा है? सर्व नाम शब्द है। सो या ने वह । परोक्षवा ची होता है, यह । तत् से बनता है। सो माने वह और अहं माने मैं। वह मैं, वह मैं, वह मैं, मतलब वह तो कोई दूसरा है, कोई अलग है लेकि न उसमें मैं अपने को जोड़ रहा हूँ, जोड़ने की कोशि श कर रहा हूँ। वह मैं, वह मैं, वह मैं ताकि मेरे अन्दर वह भाव आ जाय े कि मैं ऐसा हूँ। मैं वैसा बन सकता हूँ। जब तक मि लान नहीं करोगे कि सी से तो बनोगे कैसे? कुण्ड ली मि लाओगे नहीं तो विवाह होगा कैसे? मि लाओ तो सि द्ध वधु से, मुक्ति वधु से, शिव रमा से, अपनी कुण्ड ली तो मि लाओ कि मैं भी वह ी हूँ, मैं वह हूँ, मैं वह हूँ लेकि न यह मत समझ लेना कि मैं तो सि द्ध हो ही गया , मेरा विवाह हो ही गया , मैं सि द्ध बन ही गया । यह चीज बताती है कि हमारा द्रव्य के साथ अन्य पना भी है और अनन्य पना भी है। अनन्य पना का मतलब क्या होगा? जब हम स्वय ं सि द्ध पर्याय को प्राप्त होंगे तब हम कहेंगे कि हा ँ मैं ही वह था , अब सि द्ध बन गया । जब तक मैं यह कह रहा हूँ कि मैं और सि द्ध दोनों में अन्तर है, तो यह अन्तर भी गलत नहीं है। यदि आपने इस अन्तर को न मानकर यह मान लिया कि मैं ही सि द्ध हो गया तो सब गलत हो जाएगा क्योंकि जब आप सि द्ध हो गए तो अब आपको अनन्त सुख की जरूरत तो है ही नहीं? जब आप सि द्ध हो गए आप सिद्धोह ं, सिद्धोह ं कर रहे हैं, मैं ही सि द्ध हूँ, यह आप ने मान लिया आपको अनन्त सुख की प्राप् ति हो गई। अब आप खाना-पीना कुछ नहीं करना। अब न हवा खाना, न यहा ँ से उठना, न कहीं जाना, मैं सि द्ध हो गया , सिद्धोह ं। कुछ भी जानने की कोशि श मत करना क्योंकि अब सि द्ध में तो अनन्त ज्ञा न होता है, अब आप में भी अनन्त ज्ञा न आ गया । यह सब क्या हो गया ? कि तना बड़ा अनर्थ हो गया ? हम यह समझने की कोशि श करे।
आचार्य श्री क्या कह रहे हैं?
देखो! आचार्य श्री क्या कह रहे हैं? उस समय पर वह द्रव्य उस मय होता है जिस द्रव्य की जो पर्याय होगी, उस समय पर वह उस मय होगा। यानि हमारे सि द्ध कहने से सि द्ध पर्याय हम में प्रकट नहीं हो गई। हम अपने में महसूस क्या करेंगे? है, तो मनुष्य ही, सि द्ध तो नहीं बन गए? बोलो! समझ आ रहा है कि नहीं? यदि हमने यह मान लिया कि मैं ही सि द्ध बन गया तो ये सूत्र ही गलत हो जाएँगे। ‘तक्का ले तम्मयत्ता दो’ उस काल में ही वह द्रव्य उस मय होगा। जिस समय पर जैसा होगा। इसी से हम यह सि द्ध कर सकते हैं कि अरिहन्तों को भी सि द्धत्व की अनुभूति नहीं होती क्योंकि वे अभी अरिह न्त पर्याय के साथ हैं। जब अरिह न्त है, तो अरिह न्तपने की ही अनुभूति होगी, सि द्धपने की अनुभूति नहीं हो जाय ेगी। क्यों नही होगी? अभी शरीर साथ में है। यह तो अनुभूत हो रहा है कि यह मेरा शरीर है। मनुष्य आयु का उदय चल रहा है। आयु का मतलब ही होता है कि शरीर के साथ एकत्व बनाए रखना तो उन्हें उस समय मैं मनुष्य पर्याय रूप हूँ, यह भी उनकी अनुभूति में रहता है। तभी उनको उस समय सि द्धत्व की अनुभूति नहीं होती। ये औदयि क भाव कहलाते हैं। ये औदयि क भाव जो कर्म के उदय से होते हैं, इनका जब तक आत्मा में उदय चलता है तब तक वह उसी रूप फल देने वा ला होता है। अतः अरिह न्त भगवा न अपने आप को सि द्ध नहीं मान सकते हैं। भले ही अनन्त ज्ञा नमय हैं, अनन्त सुखमय हैं लेकि न फिर भी वे चल रहे हैं। जब आप सि द्ध हो तो चल क्यों रहे हो, क्या भगवा न चलते हैं अपने सि द्ध लोक में? आप समवशरण में बैठ गए ऐसा करके। अभी तक तो ऐसे चल रहे थे और अब यूँ करके बैठ गए। जब मनुष्य थे ही नहीं तो यह हाथ पर हाथ रखने की जरूरत क्या थी? सि द्धत्व में तो ऐसा नहीं होता। वे तो जैसे थे मान लो ऐसे खड़े थे तो वे खड़े ही बने रहेंगे सि द्ध में। मान लो बैठे थे तो बैठे ही बने रह जाएँगे, सि द्धत्व में। आप तो जब खड़े होते हो तो ऐसा कर लेते हो और जब बैठते थे तो ऐसा कर लेते हो। ये भी तो पर्याय में ही आपकी बुद्धि चल रही है न। देखो ये अरिह न्त पर्याय में ही बुद्धि घटित कर रहा हूँ। कान खोल कर सुनना। अरिहन्तों में भी कोई पर्याय बुद्धि है।

चिन्तनशून्य, एकान्तवादी, मिथ्या दृष्टि
सोचते समझते कुछ हैं नहीं। चिन्तन के नाम पर शून्य है, बस। एकान्तवा दी बने जा रहे हो। समयसार पढ़-पढ़ कर सब मि थ्या दृष्टि बने जा रहे हैं। सब ग्रह ीत मि थ्या दृष्टि बने जा रहे हैं। A, B, C, D कुछ आती नहीं, द्रव्य, गुण, पर्याय की और बस पर्याय झूठी है, पर्याय असत्य है, पर्याय दृष्टि नहीं होनी चाहिय े। अरे! अरिहन्तों की पर्याय दृष्टि नहीं छूट रही। बताओ! बि ना पर्याय के वे विहा र क्यों , कैसे कर जाएँगे ? जब मनुष्य पर्याय रूप मानेंगे तभी तो विहा र कर रहे हैं। कहने की हि म्मत नहीं। महा राज! आप यह कैसे बोल रहे हो? क्या बोलने में डर लग रहा है? यदि पर्याय दृष्टि नहीं है, तो जैसा द्रव्य था , वैसा ही रह जाना चाहि ए। कभी हम यूँ बैठ गए, कभी हम उपदेश दे रहे हैं, कभी चल रहे हैं। यह सब पर्याय के बि ना हो रहा है क्या ? हमें समझाओ तो! पर्याय में ही हो रहा है। पर्याय मेरी नहीं है, तो पर्याय के बि ना अपने आप हो रहा है क्या ? द्रव्य कुछ कर रहा है या नहीं? द्रव्य को पर्याय के अनुसार अपनी दृष्टि बनानी पड़ रही हैं कि नही पड़ रही है? स्वय ं आचार्य कह रहे हैं- जरूर बनाय ेगा वह द्रव्य पर्याय दृष्टि । क्यों बनाय ेगा? जो जिस समय पर जिस पर्याय के साथ होगा वह उस समय पर उसमय होगा, तन्मय होगा। अरिह न्त है, तो अरिह न्तपने के साथ तन्मय हैं। सि द्धपने के साथ वे अभी तन्मय नहीं हो गए। यह कहने की हि म्मत कि सी में नहीं है। खुद स्वा ध्याय कर रहे हो और उनको ये भी नहीं मालूम कि ये व्याख्याय ें कि न-कि न की लि खी हुई हैं और विद्वा नों के क्या -क्या भाव हैं, सब चलता रहता है। इसलि ए तो एकान्तवा द की तरफ़ झुकते चले जाते हैं। फिर अपने आप को कहेंगे मैं नि श्चय को जानने वा ला हूँ, मैं रहस्य को जानने वा ला हूँ। मैं द्रव्य दृष्टि रखने वा ला हूँ। मैं सम्यग्दृष्टि हूँ। कहा ँ से तुम्हा री सम्यग्दृष्टि हो गई? एक आँख तो फूट रही है। यहा ँ क्या कह रहे हैं? दोनों आँखों से देखो। अरे! इसी गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र जी महा राज लि खते हैं। ऐसा ही लि खा है उन्हों ने कि जब हम एक आँख बन्द करके एक पर्याय की आँख से देखेंगे तो हमें सब चीजें पर्याय , पर्याय दिखाई देंगी। समझ आ रहा है? ऐसा ही लि खा है उन्हों ने। एक आँख, मान लो द्रव्य की आँख बन्द कर लो। दो आँखें हैं न हमारे पास, एक द्रव्य दृष्टि वा ली है, एक पर्याय दृष्टि वा ली है।
दो नय, दो ही नयन
दो ही नय हैं और दो ही नयन हैं। सबके पास दो ही नयन हैं? फिर एक नयन की बात क्यों करते हो। अब हम आपसे कहे कि एक नयन तो तुम्हा रा काम कर रहा है, एक नयन तुम्हा रा बिल्कुवबकिुल झूठा है, तो उसको क्या बोलेंगे? आँख वा ला कहलाय ेगा वह ? उसका नाम तो काणा कहलाय ेगा न। आचार्य कहते हैं- एक आँख बन्द करके देखो। कौन सी आँख? मान लो द्रव्य की आँख बन्द कर लो, पर्याय से देखो हर चीज़ को तो पर्याय से क्या दिखेगा? यह मनुष्य है, यह कीड़ा है, यह तिर्यं च गति का है, यह देव है, यह इसकी मोटी पर्याय , यह इसकी पतली पर्याय , यह चिकनी पर्याय , यह रूखी पर्याय , यह लाल है, यह पीली है, यह सब क्या है? सब पर्याय है। अब आचार्य कहते हैं पर्याय की आँख बन्द करो । द्रव्य दृष्टि से देखो। अब क्या है ? यह सब तो पुद्गल है, यह भी पुद्गल है, यह भी पुद्गल है। यह वह ी जीव है, यह वह ी जीव है, यह वह ी जीव है जो पहले ये था , फिर यह था , फिर यह था , फिर यह था । आचार्य कहते हैं दोनो आँखों से देखो। अब दोनों आँखों से देखो। क्या दिखेगा? यह द्रव्य मय भी है और पर्याय मय भी। अनन्य भी है और अन्य भी है। द्रव्य स्व रूप भी है और पर्याय स्व रूप भी है। यह क्या हो गया ? यह दोनों दृष्टिय ों से देखना हो गया । जब एक दृष्टि से देखा तो वो कहलाता है नय।

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सकलादेशी प्रमाण:
जब हम दोनों से एक साथ जानते हैं तो वह कहलाता है, प्रमाण। यह व्याख्या ओं में कहा गया है। एक प्रमाण और एक नय। प्रमाण का मतलब जो "सकलादेशी प्रमाण:" मतलब जो सकल को ग्रह ण कर रहा है, जो समस्त को ग्रह ण कर रहा है। जब हम द्रव्य, गुण, पर्याय सबको एक साथ जानेंगे, ग्रह ण करेंगे तो वह कहलाय ेगी हमारी प्रमाण दृष्टि । समझ आ रहा है? वह हमारा प्रमाण भाव कहलाय ेगा, प्रमाण ज्ञा न कहलाएगा। जब हम केवल एक द्रव्यार् थिक नय से देख रहे हैं लेकि न पर्याय को हमने झूठा नहीं कहा । अभी हम पर्याय से नहीं देखना चाह ते हैं, अभी हम द्रव्य से देखना चाह ते हैं तब तो हमारे लि ए वह द्रव्यार् थिक नय कहलाय ेगा। वह नय कहलाय ेगा, वह भी सम्यग्ज्ञा न है। जब हमारी इच्छा होगी हम पर्याय दृष्टि से देखने लगे तो भी वह हमारा सम्यग्ज्ञा न कहलाय ेगा। वह हमारा पर्यायार् थिक नय से जानना कहलाय ेगा। एक से जानना, एक को जानना, एक दृष्टि कोण रखना, यह हो गया नय ओर समग्र दृष्टि रखना, यह हो गया प्रमाण।
प्रमाण नयै रधिगम:
'प्रमाण नयै रधिगमः' प्रमाण ओर नयों से अधि गम या ने ज्ञा न रखना चाहि ए । तभी आपका ज्ञा न सम्यग्ज्ञा न होगा। नही मालूम? तत्त्वा र्थसूत्र में लि खा है कि नहीं। तत्त्वा र्थसूत्र तो व्यवहा र परक ग्रन्थ है। यह जो अध्या त्म परक ग्रन्थ हैं बस ये ही सही हैं। बाकी तो सब व्यवहा र परक ग्रन्थ है मतलब सब गलत हो गए । सब में विरोधाभास पैदा कर रखा है। अध्या त्म ग्र न्थों में जो हैं वह कहीं नहीं है। क्या कहीं नहीं है? यह क्या बोल रहे हैं आचार्य महा राज? ये भी तो यह ही कह रहे हैं। सभी द्रव्य द्रव्यार् थिक नय से और पुनः पर्यायार् थिक नय से। ऐसा तो नहीं कहा कि एक ही नय से। द्रव्यार् थिक नय से सभी द्रव्य अनन्य हैं और पर्यायार् थिक नय से सभी द्रव्य अन्य हैं क्योंकि उस समय पर वह उसी मय हो जाता है। जो द्रव्य जिस समय पर जिस मय हो गया , वह पर्याय उसके साथ में उस समय जुड़ी है वह पर्याय उसके साथ अनन्य है। जो पि छली वा ली पर्याय थी वह छोड़ दी तो उसमें तो अन्य हो गया । इस तरह से वह द्रव्य अन्य भी हो गया और अनन्य भी हो गया ।

सरल सी बातें हैं
कितनी सरल सी बातें हैं, जो हम रोजाना अपने जीवन में उपयोग में ला रहे हैं। वह ी मोक्ष मार ्ग में कही गयी हैं। कुछ नया है ही नहीं। केवल शब्दाव ली अलग है। उसको कहने की शैली अलग है। इसी का नाम स्या दवा द शैली है। इसी का नाम अनेकान्त धर्म है। वह ी हमारा सब व्यवहा र उसी से चलता है। दूध आया । आज रखा था । बेटा दूध का दही बना देना। दूसरे दिन देखा तो दूध का दही मि ल गया । अब माँ चिल्ला ने लगी, एक ही दृष्टि वा ली होगी तो, अरे! दूध था , दूध कहा ँ है मेरा? दूध लाकर दे। अब दूध कहा ँ से लाकर दे? तूने ही तो कहा था दही बना देना। अरे! मतलब यह तो नहीं कहा था कि उसी दूध का दही बना देना। कि सका दही बनता है पानी का? कि सका दही बनता है? दूध का ही तो दही बनता है। इतना ज्ञा न होगा तभी तो व्यवहा र चलेगा? नहीं तो माँ चिल्ला ती रहेगी। एकान्त दृष्टि वा ली होगी तो। हर व्यवहा र उसी तरह से चल रहा है। दूध ही तो दही बनेगा। जब दूध दही बन गया । दूध कहा ँ गया ? दूध तो रखा है। यह तो दही है। तूने ही तो कहा था दही बना दे। दही लाना। कल हमें दही लेना है। दूध को हटा कर, दूध को नष्ट कर तूने दही बना दिया ? दूध से ही तो दही बनता है। अब यह ी ज्ञा न नहीं होगा तो क्या होगा? लड़ाई होगी और क्या होगा? यह ी ज्ञा न होगा कि दूध ही तो दही बनेगा। यह ी तय नहीं होगा तो क्या होगा? अब यह दही ही तेरा दूध है।

समझो तो कहीं वि रोध नहीं
समझो तो कहीं विरोध नहीं है और नहीं समझो तो विरोध ही विरोध है। क्या समझ आया ? द्रव्या र् थिक नय से, अब बोलना सीखो। अरे! आगे तो बोलो क्या है? दूध है। दही भी क्या है? दूध है? कि स नय से? द्रव्यार् थिक नय से और दही है, कि स नय से? पर्यायार् थिक नय से। अब द्रव्यार् थिक नय से दूध है और पर्यायार् थिक नय से दही हो गया । समझाओ सब बच्चों को। पढ़ाओ द्रव्यार् थिक नय, पर्यायार् थिक नय। हर व्यवहा र उसी से तो चल रहा है । उसके बि ना कहा ँ कुछ है? वह ी प्रवचनसार ग्रन्थ का स्वा ध्याय करते रहो। जो कल किया था न, वह ी आज कर रहे हो। नया क्या कर रहे हो ? वह ी-वह ी पढ़ ते रहते हो, रोजाना। कल भी यह ी पुस्त क रखे बैठे थे। आज भी यह ी पुस्त क रखे बैठे हो। अभी तक पढ़ नहीं पाय े पुस्त क को, पूरे ग्रन्थ को? कल भी वह ी पढ़ रहे थे। चार दिन पहले भी वह ी पढ़ रहे थे। महीना भर पहले भी वह ी पढ़ रहे थे। अरे भले आदमी! द्रव्यार् थिक नय से हम वह ी प्रवचनसार पढ़ रहे हैं। वह ी-वह ी तो पढ़ रहे हो। नया क्या पढ़ रहे हो? अरे! भले आदमी पर्यायार् थिक नय से रोजाना नया -नया पढ़ते हैं। रोजाना नई-नई गाथा पढ़ ते हैं। कि तना सरल व्याख्या न है। लोग कुछ जानते ही नहीं है। कुछ भी बोले जा रहे हैं। पहले भी मैंने कहा था कि भगवा न ने कुछ नया नहीं बताया । जो जैसा है, उसको उन्हों ने देख कर हमें बताया । जो जैसा था वो वैसा ही। हमें वैसा नहीं दिख रहा है। हमें कभी दिखता है? द्रव्य है, पर्याय है। उन्हों ने देख कर हमें बताया लेकि न है, तो सब द्रव्य ओर पर्याय ही। द्रव्य, गुण, पर्याय के अलावा दुनिया में कुछ और है ही नहीं। वह ी तो आचार्य लि ख रहे हैं कि जो द्रव्य जिस समय पर जिस रूप में हो गया , वह उसमें उस समय पर उसी मय हो जाता है। समझ आ रहा है न? साधु है, तो साधु रूप में ही अनुभव करेगा। साधु अरिह न्त रूप में नहीं अनुभव कर लेगा अपने को। न सि द्ध रूप में अनुभव कर लेगा, न आचार्य रूप में कर लेगा। साधु माने साधु। आचार्य है, तो आचार्य रूप अनुभव करेगा। इसलि ए तो आचार्य पना छोड़ कर साधु बनना पड़ता है। क्योंकि समाधि लेना है, तो आचार्य पना छोड़ना है। उपाधिया ँ छोड़ना है। फिर से साधु बनना है। क्यों बनना है? पर्याय तो पर्याय ही थी। पर्याय में ही तो आचार्य पना है, पर्याय में ही साधु पना है। तुम तो द्रव्य की ओर देखो। क्या छोड़ना? क्या ग्रह ण करना? अरे भाई! पर्याय ही छोड़ना है, पर्याय को ही ग्रह ण करना है। पर्याय में ही आचार्य पना है, पर्याय में ही साधु पना है, पर्याय में ही अरिह न्तपना है और पर्याय में ही सि द्धपना है। नहीं तो फिर कुछ मतलब ही नहीं रहेगा, कुछ भी छोड़ने का, ग्रह ण करने का, कुछ बदलने का, कुछ त्या ग करने का। समझ आ रहा है? ये सब चीजें इतनी स्पष्ट हैं कि तभी पूरा का पूरा धर्म चरणानुयोग के साथ चलेगा जब हम द्रव्य, गुण, पर्याय सब को मानेंगे और सबको जानेंगे तभी धर्म चलता है। 


एकान्तवाद से धर्म नहीं चलता
एकान्तवा द से कभी धर्म चलने वा ला नहीं है। उससे तो लोग धर्म को बि गाड़ रहे हैं। द्रव्य दृष्टि , द्रव्य दृष्टि कह-कह कर इतना बवा ल खड़ा कर रखा है कि हर चीज जो है द्रव्य के अलावा सब पर्याय , सब मि थ्या बना रखी है। ऐसे-ऐसे statement आते हैं कि अरिह न्त भगवा न की वा णी भी व्यवहा र नय से होने के कारण से मि थ्या है। उसको क्या कहेंगे? अरे! यह तो मैंने कभी सुना ही नहीं था । यह ी तो रहस्य की बात है। जैसे ही उल्टा कथन करेंगे तो लोग कहेंगे अरे! आप ऐसा क्यों कह रहे हो? सत्य तो सत्य है। यह ी तो सत्य है जो आज तक आपने सुना ही नहीं। पर्याय , पर्याय है, द्रव्य, द्रव्य है। पर्याय है, सो मि थ्या है। ऐसे लोग रह्स्य और बना लेते हैं, उसको। जो भोले-भाले होते हैं उनमें से दो चार में से एकाध तो टपक ही जाते हैं, उधर की तरफ। समझ आ रहा है न। बस ऐसे धीरे-धीरे gang सी बनती चली जाती है। gang ही कहेंगे और क्या कहेंगे? जो धर्म विरूद्ध चल रहे हैं। एक नई gang तैया र हो गई। अब यह क्या है? ‘तम्मयत्ता दो’। समझने की कोशि श करो। हर द्रव्य हमेशा अपनी पर्याय से तन्मय है। सि द्ध बनने के बाद ही सि द्ध पर्याय की तन्मयता बनेगी। अरिह न्त पर्याय में अरिह न्त पर्याय के साथ ही वो तन्मय है। साधु, साधु के साथ तन्मय है। साधु में साधु की अनुभूति आएगी। वह कि तना ही सिद्धोह ं, सिद्धोह ं कर ले तो भी उसको सि द्ध की अनुभूति नहीं आ जाय ेगी क्योंकि वह अनुभूति द्रव्य की उस रूप परि णमन होने पर ही आएगी। जब वो अनन्त सुख रूप, अनन्तज्ञा न रूप शरीर से रहि त होकर जब परि णमन करेगा तभी उसको वह अनुभूति आएगी। उससे पहले तो ध्या न, ध्येय , ध्या ता सब अलग-अलग ही होते हैं। एक नहीं हो जाते हैं। उसी को आचार्य महा राज देखो क्या लि खते हैं:-

द्रव्यार्थि व्यार्थि के वश सभी बस द्रव्य भाता, पर्या य अर्थि र्थिवश पर्य य रूप पाता।
ऐसा कथञ्चित अनन्य व अन्य होता, तत्का ल क्यों कि वह तन्मय द्रव्य होता।।

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#7

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -21,22


हाँ जब नर है सुरन यही तब यो अनन्यपना भी आया

जब वह नहीं कहो फिर कैसे जीव एक हो रह पाया
द्रव्यार्थिकसे वहीं द्रव्य पर्यायार्थिकसे नहीं वही
क्या विशेष तन्मयता रखता है वह उस काल नहीं  ११


सारांश:- जीवादि द्रव्योंमें जो उनकी पर्यायें होती हैं वे अपने हो समयमें होती हैं, अन्य समयमें उनका अभाव रहता है। जिस समय जो पर्याय होती है वह आममें होने वाली खट्टे मीठेपनकी तरह उससे अपृथक ही होती है। अतः कहना चाहिये कि द्रव्य ही नवीन नवीन होता है। जिस समय जो मनुष्य है उस समय उससे देवका काम नहीं लिया जा सकता है और देवसे मनुष्य या पशुका काम नहीं लिया जा सकता है। अतः अवस्था भेदसे जीव बिल्कुल भी नहीं बदलता है, ऐसी बात नहीं है किन्तु यह जीव मनुष्य है, यह जीव देव है और यह जीव सिद्ध है, इत्यादि रूपमें भिन्न भिन्न ही होता है।

बात यह है कि हमारी दो आँखोंमेंसे एक आँख दाहिनी तरफसे देखती है और दूसरी बाई तरफसे देखती है। इसीप्रकार द्रव्यार्थिक नय वस्तुके अनेक विशेषोंमें होकर रहनेवाले सामान्यधर्मको ग्रहण करता है अतः उसको दृष्टिमें वस्तु वहाँ है, ऐसा अनुभव होता है। पर्यायार्थिक नय वस्तुके सामान्य स्वरूपको न देखकर उसमें निरन्तर होनेवाले विशेषोंको ग्रहण करता है अतः उसकी दृष्टिमें वस्तु अब और है और है ऐसा नया नया अनुभव होता रहता है।

जब द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों नयोंसे एक साथ काम लिया जाता है तब वस्तु होकर भी और और अवस्थाको धारण करती हुई एक साथ दोनोंरूप प्रतीत होती है। इसको कहनेवाला कोई मुख्य एक शब्द न होनेसे इसे अवक्तव्य कहा जाता है। इसप्रकार वस्तु स्वरूप विवेचनके मूल तीन भंग प्रस्तुत होते हैं और फिर चार इनके संयोगी भंग बनकर अपुनरुक्त सप्तर्भगोके द्वारा वस्तुका व्याख्यान होता है।
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