Gunsthan (गुणस्थान)
#1

गुणस्थान :-

मोह और योग के कारण होने वाले आत्मा के परिणामों के तारतम्य (उतार चढाव) को गुणस्थान कहते है!मोहनीयकर्म के; दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्मों के कारण ही जीव के परिणाम बनते है,अन्यों कर्मों से नहीं! सम्यक्त्व और चारित्र के सन्दर्भ में जीव के परिणामों की विशुद्धता और संख्या की हीनाधिकता की अभिव्यक्ति गुणस्थानों से होती है! गुणस्थान निगोदिया,एकेन्द्रिय-से पंचेन्द्रिय तक,मुनिराज,केवली,प्रत्येक जीव के होता है!गुणस्थान जीव में दर्शनमोह और चारित्रमोह के कारण होते है! षटखंडागम महान शास्त्र के अनुसार,इनके १४ भेद है! षटखंडागम के टीकाकार,आचार्य वीरसैन की धवला जी के आधार से आचार्य नेमचंद चक्रव्रती ने गोम्मटसार जीवकाण्ड की रचना करी जिसमे गुणस्थानों का बहुत अच्छा वर्णन किया है!

१-मिथ्यात्व २-सासदन सम्यग्दृष्टि ,३-सम्यकमिथ्यात्व,४-अविरतसम्यगदृष्टि.५-देश विरत /संयातासंयत,६-प्रमतविरत,७-अप्रमत विरत ८-अपूर्वकरण,९-अनिवृत्तिरण,१०-सूक्ष्म साम्पराय.११-उपशांत मोह,१२-क्षीणमोह ,१३ -योग केवली,१४-अयोग केवली !

इन मे पहले चार गुणस्थान का वर्णन दर्शनमोह अर्थात सम्यक्त्व ,५वे -१२ वे गुणस्थान तक चारित्रमोह अर्थात चारित्र के क्षय/ क्षयोपशम होने वाले चारित्र और १३वे,१४वे गुण स्थान का योग की अपेक्षा से किया गया है!

जीवों के परिणाम प्रति समय बदलते है इसलिए असंख्यात,अनंत भेदों के होते है ,उन्हें समझाने के लिए आचार्यों ने १४ गुणस्थानों में विभाजित कर दिया!जैसे मिथ्यादृष्टि जीव के अनेक प्रकार के परिणाम होते है,उन सबको उन्होंने मिथ्यात्व नामक प्रथम गुणस्थान में समावेशित कर दिया!

वर्तमान के पंचम काल में तिर्यन्चों में पहले से पांचवे गुणस्थान तक और मनुष्यों में पहले से सात गुणस्थान हो सकते है!सातवें गुण स्थान से ऊपर जाने के लिए इस समय मनुष्यों के पास शारीरिक शक्ति /सहनन उपलब्द्ध नहीं है!नरक/ देवगति में पहले से चतुर्थ, तिर्यंच में पहले से पांच गुणस्थान और मनुष्यगति में पहले से १४ गुणस्थान होते है!
गुणस्थानों का परिचय कुछ विद्वानों के अनुसार,गणित से सम्बंधित होने के कारण करुयोणानुयोग में होना चाहिए क्योकि करण का अर्थ गणित है किन्तु कुछ आचार्यो /विद्वानों का मत है की गुणस्थान जीव के परिणामों से सम्बंधित है इसलिए द्रव्यानुयोग में होना चाहिए!इसका सही परिचय द्रव्यानुयोग में बनेगा!षट्खंडागम,धवला जी,गोम्मेटसार जीव काण्ड आदि ग्रन्थ द्रव्यानुयोग के अंतर्गत है!
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#2

1. मिथ्यात्व गुणस्थान : मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से होने वाले तत्वार्थ के अश्रद्धारूप परिणामों को मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं। इन परिणामों से युक्त जीवों को मिथ्यादृष्टि कहते हैं। इसके दो भेद हैं (अ) स्वस्थान मिथ्यादृष्टि (ब) सातिशय मिथ्यादृष्टि। जो जीव मिथ्यात्व में ही रचपच रहा है, उसे स्वस्थान मिथ्यादृष्टि कहते हैं एवं सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के सम्मुख जीव के जो अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रूप परिणाम होते हैं, उसे सातिशय मिथ्यादृष्टि कहते हैं।
2. सासादन गुणस्थान :  प्रथमोपशम सम्यक्त्व अथवा द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के काल में कम-से-कम एक समय और अधिक-से-अधिक छ: आवली शेष रहने पर अनन्तानुबन्धी कषाय के चार भेदों में से किसी एक कषाय के उदय होने से उपशम सम्यक्त्व से च्युत होने पर और मिथ्यात्व प्रकृति के उदय न होने से मध्य के काल में जो परिणाम होते हैं, उसे सासादन गुणस्थान कहते हैं। (जी.का. 19)
उपशम सम्यक्त्व से पतित होकर जीव जब तक मिथ्यात्व गुणस्थान में नहीं आता तब तक उसे सासादन सम्यग्दृष्टि कहते हैं। इस गुणस्थान का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट से छ: आवली है। 
नोट - इस गुणस्थान में उपशम सम्यग्दृष्टि ही आता है।
3. सम्यग्मिथ्यात्व या मिश्र गुणस्थान : पूर्व स्वीकृत अन्य देवता के अपरित्याग के साथ-साथ अरिहंत भी देव हैं ऐसा अभिप्राय: वाला पुरुष मिश्र गुणस्थान वाला है। 
जिस गुणस्थान में सम्यक् और मिथ्यारूप मिश्रित श्रद्धान पाया जाए, उसे सम्यग्मिथ्यात्व या मिश्र गुणस्थान कहते हैं।
दाल और चावल के मिश्रित स्वाद के समान सम्यक्त्व औरमिथ्यात्व से मिश्रित भाव को सम्यग्मिथ्यात्व कहते हैं। 
4. अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान : जहाँ सम्यग्दर्शन तो प्रकट हो गया हो किन्तु किसी भी प्रकार का व्रत (संयमासंयम या सकल संयम) न हुआ हो, उसे असंयत सम्यक्त्व या अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान कहते हैं। (ध.पु., 1/172)
 
5. देशविरत या संयमासंयम :  इस गुणस्थान का धारक एक ही समय में संयत और असंयत दोनों होता है। वह श्रावक त्रसहिंसा से विरत होने से संयत है और स्थावर हिंसा से विरत न होने से असंयत है, अत: उसे देशविरत या संयमासंयम गुणस्थान कहते हैं। (धपु., 1/174-175)
 
6. प्रमतविरत गुणस्थान : जहाँ सकल संयम प्रकट हो गया है किन्तु संज्वलन कषाय का तीव्र उदय होने से प्रमाद हो, उसे प्रमतविरत गुणस्थान कहते हैं। (धपु., 1/176)
 
7. अप्रमतविरत गुणस्थान : जहाँ संज्वलन कषाय का मन्द उदय हो जाने से प्रमाद नहीं रहा उस परिणाम को अप्रमतविरत गुणस्थान कहते हैं। (ध.पु., 1/179)
 अप्रमतविरत गुणस्थान के दो भेद हैं -स्वस्थान अप्रमतविरत एवं सातिशय अप्रमतविरत। जो सातवें गुणस्थान से छठवें में और छठवें गुणस्थान से सातवें में आते-जाते रहते हैं, उनको स्वस्थान अप्रमतविरत कहते हैं। जो उपशम अथवा क्षपक श्रेणी के सम्मुख होकर अध:प्रवृत्त करण रूप परिणाम करते हैं, उनको सातिशय अप्रमतविरत कहते हैं। (गो.जी., 46-47)
  अध:प्रवृत्तकरण :  जहाँ सम-समयवर्ती जीवों के परिणाम भिन्न-समयवर्ती जीवों के परिणामों से समान और असमान दोनों प्रकार के होते हैं, उन्हें अध:प्रवृत्तकरण कहते हैं। इन अध:प्रवृत्तकरण परिणामों की अपेक्षा अप्रमतविरत गुणस्थान का अपर नाम अध:करण भी है।
 
8. अपूर्वकरण गुणस्थान : 1. अ = नहीं, पूर्व = पहले, करण = परिणाम। जिस गुणस्थान में आत्मा के जो पूर्व में परिणाम नहीं थे ऐसे अपूर्व-अपूर्व परिणाम उत्पन्न होते हैं वह अपूर्वकरण गुणस्थान है।
 2. इस गुणस्थान में सम-समयवर्ती जीवों के परिणाम समान-असमान दोनों होते हैं, किन्तु भिन्न समय में रहने वाले जीव के परिणाम भिन्न ही होते हैं। यहाँ मुनिराज पूर्व में कभी भी प्राप्त नहीं हुए थे, ऐसे अपूर्व परिणामों को धारण करते हैं इसलिए इस गुणस्थान का नाम अपूर्वकरण गुणस्थान है। (धपु., 1/181)
 
9. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान  : अनिवृत्तिकरण के अन्तर्मुहूर्त काल में से किसी एक समय में रहने वाले अनेक जीव जिस प्रकार शरीर के आकार आदि से परस्पर में भिन्न-भिन्न होते हैं, किन्तु उनके परिणामों में भेद नहीं पाया जाता है,उसे अनिवृत्तिकरण गुणस्थान कहते हैं। (गो.जी., 57) 
10. सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान : जिस गुणस्थान में संज्वलन लोभ कषाय का अत्यन्त सूक्ष्म उदय होता है, उसे सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान कहते हैं। सूक्ष्म = छोटा, साम्पराय=कषाय। (गो.जी., 59)

11. उपशांत मोह गुणस्थान  समस्त मोहनीय कर्म के उपशम से उत्पन्न होने वाले गुणस्थान को उपशांत मोह गुणस्थान कहते हैं। (ध.पु., 1/189)

12. क्षीण मोह गुणस्थान : समस्त मोहनीय कर्म के क्षय से उत्पन्न आत्मा का विशुद्ध परिणाम क्षीण मोह गुणस्थान कहलाता है। (ध.पु., 1/190)

13. सयोग केवली गुणस्थान : चार घातिया कर्मों के क्षय हो जाने से जहाँ अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख व अनन्त वीर्य प्रकट हो जाते हैं, उन्हें केवली कहते हैं और उनके जब तक योग रहता है, तब तक उन्हें सयोग केवली कहते हैं। (रा.वा., 9/24)

14. अयोग केवली गुणस्थान :  सयोग केवली के जब योग नष्ट हो जाते हैं एवं जब तक शरीर से मुक्त नहीं होते हैं, तब तक इनको अयोग केवली कहते हैं। अयोग केवली का काल 5 हृस्व अक्षर (अ, इ, उ, ऋ, ल) बोलने में जितना समय लगता है, उतना ही है। इनके उपान्त्य समय में 72 एवं अन्तिम समय में 13 प्रकृतियों का क्षय हो जाता है।


Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
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#3

What is Gundsthan? Could you please explain it?
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