वास्तु पुरुष के अनुसार करे अपने नए घर का निर्माण(Vastu Purusha Mandal)
#1

    वास्तु पुरुष मंडल (इक्यासी पद)

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वास्तु पुरुष के अनुसार करे अपने नए घर का निर्माण :-

वास्तु-पुरुष :-

राक्षस का वध करने के उपरांत भगवान शंकर के थकित शरीर के पसीने से उत्पन्न एक क्रूर भूखे सेवक की उत्पत्ति हुई जिसने अंधक
राक्षस के शरीर से बहते हुए खून को पिया फिरभी उसकी क्षुधा शांत नहीं हुई। तब उसने शिवजी की तपस्या की और भगवान से त्रिलोकों को खा जाने
का वर प्राप्त कर लिया। जब वह तीनों लोकों को अपने अधीनकर भूलोक को चबा डालने के लिए झपटा तो देवतागण,
प्राणी सभी भयभीत हो गए। तब समस्त देवता ब्रह्मा जी के पास रक्षा सहायता हेतु पहुंचे। ब्रह्मा जी ने उन्हें अभयदान देते हुए उसे औंधे
मुंह गिरा देने की आज्ञा दी और इस तरह शिव जी के पसीने से उत्पन्न वह क्रूर सेवक देवताओं के द्वारा पेट के बल
गिरा दिया गया और उसे गिराने वाले ब्रह्मा, विष्णु, इंद्रआदि पैंतालीस देवता उसके विभिन्न अंगों पर बैठ गए। यही वास्तु-
पुरुष कहलाया। देवताओं ने वास्तु पुरुष से कहा तुम जैसे भूमि पर पड़े हुए हो वैसे ही सदा पड़े रहना और तीन माह में केवल एक बार
दिशा बदलना। भादों, क्वार और कार्तिक में पूरब दिशा में सिर वपश्चिम में पैर, अगहन, पूस और माघ के महीनों में पश्चिम की ओर
दृष्टि रखते हुए दक्षिण की ओर सिर और उत्तर की ओर पैर, फाल्गुन,चैत और बैसाख के महीनों में उत्तर की ओर दृष्टि रखते हुए पश्चिम में
सिर और पूरब में पैर तथा ज्येष्ठ, आषाढ़ और सावन मासों में पूर्वकी ओर दृष्टि और उत्तर दिशा में सिर व दक्षिण में पैर। वास्तु पुरुष
ने देवताओं के बंधन में पड़े हुए उनसे पूछा कि मैं अपनी भूख कैसेमिटाऊं। तब देवताओं ने उससे कहा कि जो लोग तुम्हारे प्रतिकूल
भूमि पर किसी भी प्रकार का निर्माण का कार्य करें उनलोगों का तुम भक्षण करना। तुम्हारी पूजन, शांति के हवनादि के
बगैर शिलान्यास, गृह-निर्माण, गृह-प्रवेश आदि करनेवालों को और तुम्हारे अनुकूल कुआं तालाब, बाबड़ी, घर, मंदिर
आदि का निर्माण न करने वालों को अपनी इच्छानुसार कष्ट देकर सदा पीड़ा पहुंचाते रहना। उपर्युक्त तथ्यों को देखते हुए
किसी भी प्रकार का निर्माण कार्य वास्तु के अनुरूपकरना चाहिए।

वास्तुदेव का पूजन:-

सुख, शांति समृद्धि के लिए निर्माण के पूर्व वास्तुदेव का पूजन करना चाहिए एवं निर्माण के पश्चात् गृह-प्रवेशके शुभ अवसर पर वास्तु-शांति, होम इत्यादि किसी योग्य और अनुभवी ब्राह्मण, गुरु अथवा पुरोहित के द्वारा अवश्य करवाना चाहिए। लंबाई चैड़ाई को तीन भागों में विभक्तकिया जाए तो ऐसे भूखंड या भवन का मध्यवर्ती हिस्सा ब्रह्म स्थान कहलाता है। ब्रह्म स्थान धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण
होता है अतः इसे स्वच्छ रखा जाना चाहिए। ब्रह्म स्थान में तलघर, पाकशाला, पशुशाला, सेप्टिक टैंक, शौचालय, शयन कक्ष,
स्नान गृह, स्वीमिंग पूल, स्टोर रूम, कुआं, बोरिंग, वाटर-टैंक आदि नहीं बनाने चाहिए। ब्रह्म स्थान में सफेद रंग शुभ होता है।
नवरत्नों में माणिक्य का, पंचदशी यंत्र में पंचांक का और नवग्रह यंत्र में सूर्य का जो स्थान है वही स्थान मकान के ब्रह्म स्थान
का स्थान है। यदि भवन निर्माण की जगह को नौ बराबर-बराबर वर्गों में विभाजित किया जाए तो पांचवंे वर्ग वाली जगह ब्रह्म
स्थान की जगह होगी। इसे छोड़कर शेष आठ वर्गों की जगह पर पांच तत्वों के अनुरूप निर्माण करना चाहिए। यदि चीनी वास्तु
फेंगशुई के चमत्कारी कहे जाने वाले ‘लो- शु’ वर्ग पर ध्यान दें तो हम पाएंगे कि उसका केंद्रीय पंचम वर्ग ‘सेहत’ का होता है। इसे
भारतीय वास्तु के ब्रह्म स्थान का रहस्य माना जा सकता है। ब्रह्म स्थान आकाश तत्व वiला मना जाता है।
इसको खुला रखना इसलिए जरूरी है कि भवन में रहने वालों को आकाश की ओर से आने वाली नैसर्गिक ऊर्जाएं
सतत प्राप्त होती रहें। चूंकि ब्रह्मांड में आकाशीय तत्वों का बाहुल्य है एवम् मानव मस्तिष्क का नियामक आकाश
ही है अतः सुख, संपदा, स्वास्थ्य और दीर्घायु के निमित्त वास्तु में ब्रह्म स्थान की महत्ता का प्रतिपादन वास्तु शास्त्र करता है।
पुराने समय में भगवान ब्रह्मा के निमित्त घर के बीच वाले स्थान में चैक या आंगन बनाया जाता था। ब्रह्म स्थान खुला रखने से घर
को वायु व प्रकाश भरपूर मिलता है और उस भवन में वास करने वाले सुखी, समृद्ध व स्वस्थ रहते हैं। स्वस्तिक मिटाता है वास्तुदोष शुभ
मांगलिक पर्वों के अवसर पर पूजा-घर, द्वार की चैखट और प्रवेश द्वार के आसपास अथवा घर की दीवारों पर प्राचीन समय से
ही स्वस्तिक चिह्न लगाने की प्रथा रही है। यह एक शुभ मंगल चिह्न है जिसे लगाने से सकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि होती है। इसे
लगाने से आत्म संतुष्टि, शांति, एकाग्रता आदि की प्राप्ति और सदबुद्धि, प्रगति, पारिवारिक सौहार्द आदि में वृद्धि होती है।
साथ ही द्वेष भावना का शमन और कार्यक्षमता का विकास होता है। इस तरह स्वस्तिक शुभ होता है। हिंदू धर्म और संस्कृति में
रोली, हल्दी या सिंदूर से भी स्वस्तिक बनाने की प्रथा है। भवन के मुख्य द्वार की चैखट पर सोना, चांदी, तांबा अथवा पंचधातु से
निर्मित ‘स्वस्तिक’ की प्राण प्रतिष्ठा करवाकर लगाने से नकारात्मक ऊर्जा का नाश आरै सकारात्मक ऊर्जा का विकास
होने लगता है, घर की स्थिति अनुकूल होने लगती है। स्वस्तिक वास्तु दोष को दूर करता है। नौ अंगुल की लंबाई चैड़ाई
वाला स्वस्तिक स्थापित करने से शीघ्र शुभ प्रभाव देने वाला होता है। घर, दुकान, निजी कार्यालय आदि के प्रत्येक कमरे
की पूर्वी दीवार पर शुभ मुहूर्त में स्वस्तिक यंत्र की स्थापना करने से विभिन्न वास्तु दोषों का शमन हो जाता है। श्री गणेश
जी की मूर्ति की तरह ही स्वस्तिक यंत्र भी सौ हजार बोविस धनात्मक ऊर्जा उत्पन्न करने में सक्षम होता है। उसके इस गुण के
कारण कई वास्तु दोष दूर हो जाते हैं। गुरु पुष्यामृत योग, रविपुष्य योग, दीवाली, गणेश चतुर्थी, नव संवत्सरारंभ, नव वर्ष के दिन,
बुधवार को अथवा अपने मन को अच्छी लगने वाली किसी शुभ तिथि या पर्व आदि के दिन इसे लगाया जा सकता है। प्लास्टिक,
कांच, लोहे लकड़ी, स्टील या टिन का स्वस्तिक प्रयोग में नहीं लाना चाहिए। स्वस्तिक का उपयोग कोई भी कर सकता है।
इसे प्रतीक के रूप में अंगूठी और लाॅकेट में धारण कर लोग स्वयं को ऊर्जावान महसूस करते हैं। गृह-निर्माण आदि के समय निर्माण
कार्य जनित कई प्रकार के वास्तु दोष रह जाना आम बात होती है। निर्माण के बाद हर जगह सुधार, कार्य, मरम्मत,
तोड़फोड़, काट-छांट के जरिए वास्तु दोष हटाना संभव नहीं होता। ऐसी स्थिति में , स्वस्तिक आदि शुभ
चिह्नों आदि के उपयोग से वास्तु दोषों का शमन होता है।इसी तरह बिना तोड़-फोड़ किए धर्म, ज्योतिष और वास्तु से
संबंधित कुछ विशेष प्रकार के मंत्र युक्त यंत्र वास्तु दोष मिटाने में सहायक होते हैं इनमें कुछ यंत्रों का उल्लेख यहां प्रस्तुत है।

दिशा नाशक यंत्र:-

यह निर्माण कार्य के दौरान विद्यमान वास्तु दोष निवारण का प्रमुख यंत्र है। गृह, व्यावसायिक स्थल, उद्योग,
कार्यालय परिसर आदि के निर्माण में जहां वास्तु संबंधी दोष आ गया हो और जिसे सुधारा न जा सके, उसके निवारण हेतु दोष
वाली जगह पर दिशादोष नाशक यंत्र की प्राण प्रतिष्ठा करा कर शुभ मुहूर्त में स्थापना की जाती है। यह
दिशा संबंधी दोष को नष्ट करन में सक्षम होता है। इसमें वास्तु पुरुष का कल्पित चित्र रेखांकित किया जाता है।

श्री वास्तु महायंत्र:-

वास्तु दोष निवारण का दूसरा यंत्र श्री वास्तु महायंत्र के नाम से जाना जाता है। इसमें इक्यासी वर्गों में उन पैंतालीस
देवताओं के नाम दर्शाए जाते हैं जिन्होंने वास्तु पुरुष को भूमि पर गिराया था और उसके विभिन्न अंगों पर बैठकर उसे बंधक
बनाया था। यंत्र के मध्य भाग वाले नौ वर्गों में ब्रह्मा का नाम होने से यह ब्रह्मा वाला ‘‘वास्तु दोष निवारक यंत्र’’ अथवा ब्रह्म
वाला ‘‘वास्तु दोष नाशक यंत्र’’ भी कहलाता है। इक्यासी वर्गों के बाह्य कोष्ठक में अंदर की ओर पूर्व दिशा में गं
गणपतये नमः, पश्चिम में यं योगिनीभ्यो नमः, उत्तर में क्षं क्षेत्रपालाय नमः तथा दक्षिण में बं बटुकाय नम
लिखा जाता है। साथ ही भू शय्या वाले वास्तुदेवता को प्रणाम करते हुए उनसे गृह को धन-धान्यादि से समृद्ध करने
वाली प्रार्थना यंत्र में अंकित की जाती है। इस यंत्र को पूजा गृह में पूर्व दिशा में स्थापित किया जाता है। इस यंत्र की प्राण
प्रतिष्ठा स्थापना के समय अवश्य करना चाहिए। समस्त प्रकार के ज्ञात एवं अज्ञात वास्तु-दोषों के निवारण का यह एक अद्भुत
लाभकारी यंत्र है। इसे प्रतिदिन सुगंधित धूप, अगर इत्र आदि से सुवासित करते रहना चाहिए।

दुर्गा बीसा यंत्र:

दुर्गा देवी के नवार्ण मंत्र की शक्ति से युक्त इस सिद्ध बीसा यंत्र को प्राण प्रतिष्ठत करा कर दुकान के मुख्य द्वार पर स्थापित किया जाता है।
गृह का आकार :-

जिस भूखंड की लंबाई अधिक तथा चौड़ाई कम हो, समकोण वाली उस भूमि को आयताकार भू-खंड (प्लॉट) कहते हैं। इस प्रकार
की भूमि सर्वसिद्धि दायक होती है।
'स्तिाराद् द्विगुणं गेहं गृहस्वामिविनाशनम्' (विश्वकर्मा प्रकाश 2/109)- चौड़ाई से
दुगनी या उससे अधिक लंबाई की आयताकार लंबा मकान 'सूर्यवेधी' और उत्तर से दक्षिण की ओर लंबा मकान 'चंद्रवेधी'
होता है। चंद्रवेधी मकान धन-समृद्धिदायक है, किंतु जल-संग्रह की दृष्टि से सूर्यवेधी शुभ होता है, चंद्रवेधी मकान में
पानी की समस्या रहती है। ब्रह्ममुहूर्त काल में सूर्य उत्तर पूर्वी भाग में रहता है। यह समय योग-ध्यान, भजन-पूजन और चिंतन-
मनन का है। ये क्रियाएं सफलता पूर्वक सम्पन्न हों, इस हेतु मकान के उत्तर पूर्व की दिशा में खिड़की या दरवाजा अवश्य
होना चाहिए। जिससे हमें अरुणोदय का लाभ मिल सके। प्रातः 6 से 9 बजे तक सूर्य पूर्व दिशा में रहता है, इसलिए घर का पूर्वी भाग
अधिक खुला रखना चाहिए। जिससे सूर्य की रोशनी अधिक कमरे में आ सके। तभी हम सूर्य की सकारात्मक ऊर्जा का लाभ
उठा पाऐंगे। गृहनिर्माण आरंभ और गृह प्रवेश के समय विभिन्न देवताओं के रूप में सूर्यदेव का ही पूजन होता है ताकि प्राण
ऊर्जा देने वाले आरोग्य के देवता सूर्य का सर्वाधिक लाभ मिल सके। सूर्य रश्मियों की जीवनदायिनी प्राणऊर्जा का भरपूर
लाभ उठाने के लिए वास्तु शास्त्र में पूर्व दिशा की प्रधानता को स्वीकार किया गया है। गृहारंभ मुहूर्त से
गृह प्रवेश तक सूर्य का प्रधानता से विचार किया जाता है।

गृहारंभ की नींव :-

वैशाख, श्रावण, कार्तिक, मार्गशीर्ष और फाल्गुन इन चंद्रमासों में गृहारंभ शुभ होता है। इनके अलावा अन्य चंद्रमास अशुभ होने के कारण
निषिद्ध कहे गये हैं। वैशाख में गृहारंभ करने से धन धान्य, पुत्र तथा आरोग्य की प्राप्ति होती है। श्रावण में धन, पशु और मित्रों की वृद्धि होती है।
कार्तिक में सर्वसुख।मार्गशीर्ष में उत्तम भोज्य पदार्थों और धन की प्राप्ति। फाल्गुन में गृहारंभ करने से धन तथा सुख की प्राप्ति और वंश वृद्धि होती है।
किंतु उक्त सभी मासों में मलमास का त्याग करना चाहिए। गृहारंभ और सौरमास : गृहारंभ के मुहूर्त में
चंद्रमासों की अपेक्षा सौरमास अधिक महत्वपूर्ण, विशेषतः नींव खोदते समय सूर्य संक्रांति विचारणीय है। पूर्व कालामृत का कथन
है- गृहारंभ में स्थिर व चर राशियों में सूर्य रहे तो गृहस्वामी के लिए धनवर्द्धक होता है। जबकि द्विस्वभाव (3, 6, 9, 12) राशि गत सूर्य
मरणप्रद होता है। अतः मेष, वृष, कर्क, सिंह, तुला, वृश्चिक, मकर और कुंभ राशियों के सूर्य में गृहारंभ करना शुभ रहता है। मिथुन, कन्या,
धनु और मीन राशि के सूर्य में गृह निर्माण प्रारंभ नहीं करना चाहिए।

विभिन्न सौरमासों में गृहारंभ का फल :-

देवऋषि नारद ने इस प्रकार बताया है। मेषमास-शुभ, वृषमास-धन वृद्धि? मिथुनमास-मृत्यु कर्कमास-शुभ, सिंहमास-सेवक वृद्धि,
कन्यामास-रोग, तुलामास-सुख, वृश्चिकमास-धनवृद्धि, धनुमास- बहुत हानि, मकर-धन आगम, कुंभ-लाभ, और मीनमास में गृहारंभ करने
से गृहस्वामी को रोग तथा भय उत्पन्न होता है। सौरमासों और चंद्रमासों में जहां फल का विरोध दिखाई दे वहां सौरमास
का ग्रहण और चंद्रमास का त्याग करना चाहिए क्योंकि चंद्रमास गौण है।

वास्तु पुरुष की दिशा विचार :-

महाकवि कालिदास और महर्षि वशिष्ठ अनुसार तीन-तीन चंद्रमासों में वास्तु पुरुष की दिशा निम्नवत् रहती है।
भाद्रपद, कार्तिक, आश्विन मास में ईशान की ओर। फाल्गुन, चैत्र, वैशाख में नैत्य की ओर। ज्येष्ठ, आषाढ, श्रावण में आग्नेय कोण की ओर।
मार्गशीर्ष, पौष, माघ में वायव्य दिशा की ओर वास्तु पुरुष का मुख होता है। वास्तु पुरुष का भ्रमण ईशान से बायीं ओर अर्थात् वामावर्त्त होता है।
वास्तु पुरुष के मुख पेट और पैर की दिशाओं को छोड़कर पीठ की दिशा में अर्थात् चौथी, खाली दिशा में नींव की खुदाई शुरु करना उत्तम रहता है।
महर्षि वशिष्ठ आदि ने जिस वास्तु पुरुष को 'वास्तुनर' कहा था, कालांतर में उसे ही शेष नाग, सर्प, कालसर्प और राहु
की संज्ञा दे दी गई। अतः पाठक इससे भ्रमित न हों। मकान की नीवं खोदने के लिए सूर्य जिस राशि में हो उसके अनुसार राहु
या सर्प के मुख, मध्य और पुच्छ का ज्ञान करते हैं। सूर्य की राशि जिस दिशा में हो उसी दिशा में, उस सौरमास राहु
रहता है। जैसा कि कहा गया है- ''यद्राशिगोऽर्कः खलु तद्दिशायां, राहुः सदा तिष्ठति मासि मासि।'' यदि सिंह,
कन्या, तुला राशि में सूर्य हो तो राहु का मुख ईशान कोण में और पुच्छ नैत्य कोण में होगी और आग्नेय कोण खाली रहेगा। अतः उक्त
राशियों के सूर्य में इस खाली दिशा (राहु पृष्ठीय कोण) से खातारंभ या नींव खनन प्रारंभ करना चाहिए। वृश्चिक, धनु, मकर
राशि के सूर्य में राहु मुख वायव्य कोण में होने से ईशान कोण खाली रहता है। कुंभ, मीन, मेष राशि के सूर्य में राहु मुख नैत्य कोण
में होने से वायव्य कोण खाली रहेगा। वृष, मिथुन, कर्क राशि के सूर्य में राहु का मुख आग्नेय कोण में होने से नैत्य
दिशा खाली रहेगी। उक्त सौर मासों में इस खाली दिशा (कोण) से ही नींव खोदना शुरु करना चाहिए। अब एक प्रश्न उठता है
कि हम किसी खाली कोण में गड्ढ़ा या नींव खनन प्रारंभ करने के बाद किस दिशा में खोदते हुए आगे बढ़ें? वास्तु पुरुष या सर्प
का भ्रमण वामावर्त्त होता है। इसके विपरीत क्रम से- बाएं से दाएं/दक्षिणावर्त्त/क्लोक वाइज नीवं की खुदाई करनी चाहिए।
यथा आग्नेय कोण से खुदाई प्रारंभ करें तो दक्षिण दिशा से जाते हुए नैत्य कोण की ओर आगे बढ़ें। विश्वकर्मा प्रकाश में
बताया गया है- 'ईशानतः सर्पति कालसर्पो विहाय सृष्टिं गणयेद् विदिक्षु। शेषस्य वास्तोर्मुखमध्य -पुछंत्रयं परित्यज्यखनेच्चतुर्थम्॥'
वास्तु रूपी सर्प का मुख, मध्य और पुच्छ जिस दिशा में स्थित हो उन तीनों दिशाओं को छोड़कर चौथी में नींव खनन आरंभ
करना चाहिए। इसे हम निम्न तालिका के मध्य से आसानी से समझ सकते हैं।

शिलान्यास :-

गृहारंभ हेतु नींव खात चक्रम और वास्तुकालसर्प दिशा चक्र में प्रदर्शित की गई सूर्य की राशियां और राहु पृष्ठीय कोण नींव खनन के साथ-साथ शिलान्यास करने, बुनियाद भरने हेतु, प्रथम चौकार अखण्ड पत्थर रखने हेतु, खम्भे (स्तंभ) पिलर बनाने हेतु इन्ही राशियों व
कोणों का विचार करना चाहिए। जो क्रम नींव खोदने का लिखा गया था वही प्रदक्षिण क्रम नींव भरने का है। आजकल
मकान आदि बनाने हेतु आर.सी.सी. के पिलर प्लॉट के विभिन्न भागों में बना दिये जाते हैं। ध्यान रखें, यदि कोई पिलर राहु मुख
की दिशा में पड़ रहा हो तो फिलहाल उसे छोड़ दें। सूर्य के राशि परिवर्तन के बाद ही उसे बनाएं तो उत्तम रहेगा। कतिपय
वास्तु विदों का मानना है कि सर्व प्रथम शिलान्यास आग्नेय दिशा में करना चाहिए।

दैनिक कालराहु वास :-

अर्कोत्तरेवायुदिशां च सोमे, भौमे प्रतीच्यां बुधर्नैते च। याम्ये गुरौ वन्हिदिशां च शुक्रे, मंदे च पूर्वे प्रवदंति काल॥

राहुकाल का वास रविवार को उत्तर दिशा में, सोमवार को वायव्य में,मंगल को पश्चिम में, बुधवार को नैत्य में, गुरुवार को दक्षिण में,
शुक्रवार को आग्नेय में व शनिवार को पूर्व दिशा में राहुकाल का वास रहता है। यात्रा के अलावा गृह निर्माण (गृहारंभ),
गृहप्रवेश में राहुकाल का परित्याग करना चाहिए। जैसे-सौरमास के अनुसार निकाले गये मुहूर्त के आधार पर आग्नेय दिशा में नींव
खनन/शिलान्यास करना निश्चित हो। किंतु शुक्रवार को आग्नेय में, शनिवार को पूर्व दिशा में राहुकाल का वास रहता है।
अतः शुक्रवार को आग्नेय दिशा में गृहारंभ हेतु नींव खनन/ शिलान्यास प्रारंभ न करें। वर्तमान समय में उत्तर समय में उत्तर
भारत गृह निर्माण के समय कालराहु या राहुकाल का विचार नहीं किया जाता है। जबकि इसका विचार करना अत्यंत
महत्वपूर्ण है। भूमि खनन कार्य और शिलान्यास आदि में दैनिक राहुकाल को भी राहुमुख की भांति वर्जित
किया जाना चाहिए। सोमवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार गृहारंभ हेतु उत्तम कहे गये हैं। किंतु इन शुभ वारों में कालराहु
की दिशा का निषेध करना चाहिए। रविवार, मंगलवार को गृहारंभ करने से अग्निभय और शनिवार में अनेक कष्ट होते हैं। भू-
शयन विचार-सूर्य के नक्षत्र से चंद्रमा का नक्षत्र यदि 5, 7, 9, 12, 19, 26वां रहे तो पृथ्वी शयनशील मानी जाती हैं। भूशयन के दिन
खनन कार्य वर्जित है। अतः उपरोक्तानुसार गिनती के नक्षत्रों में नींव की खुदाई न करें। गृहारंभ के शुभ नक्षत्र : रोहिणी, मृगशिरा,
पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, अनुराधा, उत्तराषाढ़ा और रेवती आदि वेध रहित नक्षत्र गृहारंभ हेतु श्रेष्ठ
माने गये हैं। देवऋषि नारद के अनुसार गृहारंभ के समय गुरु यदि रोहिणी, पुष्य, मृगशिरा, आश्लेषा,
तीनों उत्तरा या पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में हों तो गृहस्वामी श्रीमन्त (धनवान) होता है तथा उसके घर में
उत्तम राजयोग वाले पुत्र/पौत्रों का जन्म होता है। इन फलों की प्राप्ति हेतु गुरुवार को गृहारंभ करें। आर्द्रा, हस्त,
धनिष्ठा, विशाखा, शतभिषा या चित्रा नक्षत्र में शुक्र हो और शुक्रवार को ही शिलान्यास करें तो धन-धान्य की खूब
समृद्धि होती है। गृहस्वामी कुबेर के समान सम्पन्न हो जाता है।

लग्न शुद्धि :-

गृहारंभ हेतु स्थिर या द्विस्वभाव राशि का बलवान लग्न लेना चाहिए। (प्रातः उपराहन या संध्याकाल में गृहारंभ करना चाहिए) उपरोक्त
लग्न के केंद्र, त्रिकोण स्थानों में शुभ ग्रह तथा 3, 6, 11 वें स्थान में अशुभ (पापग्रह) हों या छठा स्थान खाली हो। आठवां और बारहवां
स्थान भी ग्रह रहित होना चाहिए। इस प्रकार का लग्न और ग्रह स्थिति भवन निर्माण के शुभारंभ हेतु श्रेष्ठ कही गई है।
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#2

The ancient scriptures describe three different conditions regarding the position of Vaastupurusha's head:


 

1. Nitya(daily) vaastu, wherein Vaastupurusha alternates the position of his head between right and left approximately every three hours.

2. Chara (moving) vaastu, wherein Vaastupurusha changes his head position once every three months.

3. Sthira (stable) vaastu, wherein Vaastupurusha's head is permanently established towards the Northeast direction.


Nitya (daily) vastu

It refers to daily movement of vastu purush. The gaze of vastu purush changes every three hours in a day, He completes one full rotation of 360° in a day, remaining for three hours each in all of the eight directions. Human mind and body also undergo changes on a daily cycle basis. The energy and alertness of mind reaches its lowest peak when we go to bed.


Chara (moving) Vastu
Second type of vastu is called chara vastu or moving body. The vastu purush lies on his side in one direction for full three months and keeps on rotating in a clockwise direction.

it is clear from the above table that change of position of vastu purush is closely linked to the various seasonal change. Seasons change and so changes the intensity of the forces in a span of one year. These seasonal changes, in turn, have great effect on human body. So happens with the body of vastu purush. Different seasons have different level and direction of pranic forces. Ayurveda - the science of happy and long life - prescribes special diet for different seasons.

In the months of mid August to November (Bhadrapad, Ashwin, and Kartik) Vaastupurusha stay in this position pointing your head towards East and feet towards West, 
In the months of mid November to February (Margashirsh, Poush and Magh) pointing head towards South and feet towards North while looking towards West.
In the months of mid February to May (Falgun, Chaitra and  Vaishak) pointing head towards West and feet towards East while looking towards North.
In the months of mid May to August (Jeshtha, Ashadh and Shrawan) stay lying down keeping your head towards North and feet towards South while looking towards East.
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Sthira (stable) Vastu

The positions of vastu purush along NE and SW is supposed to be his permanent body position. This is the most impertinent vastu position. It is the sthira or permanent position of any construction for all seasons throughout the year. His head is on the NE, his right arm on the SE, his feet are on the SW and his left arm is on the NW.




We can related Vastu principals with our life style in following manner 


North-East: In morning, from 3:00 am to 6:00 am, Sun is in the North-East part of house. This patch of time between 3:00 am to 6:00 am is called as Brahma Mahurat and is best for meditation, yoga, exercise or study. Hence North-East part of a home is best suited for a Puja/prayer room, living room or even study room.
East: The Sun remains from 6:00 am to 9:00 am in East portion of a home, this time is best to get ready for the day ahead and hence East is best suitable for a bathroom (only bathroom, not toilet). However, this portion can also be used for living room, unmarried children’s bedroom, guest bedroom, dining room, Puja room and even study room.
South-East: 9:00 am to 12:00 noon is the time when Sun is in the South-East part of home and this time is best for preparing food and going to job. Hence this location is best suited to place a kitchen, office or unmarried son’s bedroom in a home.
South: The time between 12 noon and 3:00 pm is time to work, during this time the Sun is in southern portion of a building and hence this location is good for office. In this portion, the intensity of sunlight is very high and hence South can also be used as a store room, staircase and even toilets.
South-West: Post lunch is the time to rest i.e. from 3:00 pm to 6:00 pm. During this time the sun is in South-West portion of a home and hence this location is best for master bedroom. Also a staircase or strong room can be located here.
West: The time between 6:00 pm to 9:00 pm is best time to relax and dine. That's why this is the best location to have dining room in a home. One can also use this portion to locate children’s bedroom, prayer room, study room or a staircase.
North-West: The time between 9:00 pm to 12:00 am is the time to relax and sleep. Hence this location is best suited for a bedroom. However, this portion can also be used as living room.
North: The time between 12:00 am and 3:00 am is the time of secrecy and darkness; hence this portion of home is best suitable for cash room or strong room. However this portion is also used as living room or dining room


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Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
Email: manish@frontdesk.co.in
Tel: +91 141 6693948
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