१४ गुणस्थान भाग १
#1

- मिथ्यात्व गुणस्थान 
- सासादन गुणस्थान 
- सम्यक् मिथ्यात्व गुणस्थान

- अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान
- संयतसांयत गुणस्थान
- प्रमत्त गुणस्थान
- अप्रमत्त संयत गुणस्थान
- अपूर्वकरण गुणस्थान
- अनिवृत्तिकरण गुणस्थान
१० - सूक्ष्म साम्प्राय गुणस्थान
११ - उपशांत मोह गुणस्थान
१२ - क्षीण मोह गुणस्थान 
१३ - सयोग केवली गुणस्थान
१४ - आयोग केवली गुणस्थान
इसमें आरोहण(नीचे से ऊपर) और अवरोहण(ऊपर से नीचे) दोनों होते हैं ...
ऐसे तो असंख्यात गुणस्थान होते हैं, क्यूंकि आत्मा के गुणों कि अवस्था भी असंख्यात हैं, किन्तु प्रयोजन भूत करने के लिए चौदह गुणस्थान प्रमुख बतलाये हैं
- 1 *मिथ्यात्व गुण-स्थान*
- जब तक इस जीव को आत्मस्वरूप का दर्शन नहीं होता तब तक वह "मिथ्यादृष्टि" कहलाता है !
-
संसार में अधिकतम प्राणी इसी गुणस्थान में रह रहे हैं !
-
ये जीव शरीर को ही अपना मानते हैं, शरीर की सुंदरता/कुरूपता को ही अपना स्वरुप मानते हैं !
अनादि काल से कषायों के द्वारा कसे हुए मिथ्यादृष्टि जीव को जब किसी सुगुरु के निम्मित से आत्म-स्वरुप का उपदेश प्राप्त होता है, तब उसकी आत्म-विशुद्धि में रूचि होती है और आत्म-परिणामों में विशुद्धि के कारण अनादि काल से लगे हुए कर्मों का उदय भी मंद हो जाता है नवीन कर्मों का बंध भी हल्का हो जाता है, राग-द्वेष कि परिणिति भी धीमी होने लगती है !
ऐसे में यह जीव, करणलाब्धि के द्वारा अपने अनादिकालीन मिथ्या स्वरुप याने अनंतानुबंधी क्रोध,मान,माया और लोभ रूपी तीव्र कषायों का "उपशम करके" सच्ची आत्म-दृष्टि को प्राप्त करता है !
-
जीव की इस अवस्था को "असंयत/अविरत समयगदृष्टि" नामक चौथे गुणस्थान की प्राप्ति कहते हैं !
नोट :- जीव हमेशा पहले बार आत्म-साक्षात्कार होने पर पहले से सीधे चौथे गुणस्थान पर पहुँच जाता है !
मिथ्यादृष्टि जीव के दर्शनमोहनीय कर्म अनादिकाल से एक मिथ्यात्व के रूप में ही चला रहा था, किन्तु करणलाब्धि के प्रताप से चौथे गुणस्थान में उसके 3 खंड हो जाते हैं !
- मिथ्यात्व प्रकृति 
- सम्यक्त्व प्रकृति
- सम्यगमिथ्यात्व प्रकृति
जीव को सबसे पहली बार जो सम्यक दर्शन होता है, उसे "प्रथमोपशम सम्यक्त्व" कहते हैं !
इसका काल अन्तर्मुहुर्त मात्र है ! इस काल के समाप्त होते ही यह जीव सम्यक्त्वरूपी पर्वत से नीचे गिरता है !
उस काल में यदि :-
- सम्यगमिथ्यात्व प्रकृति, का उदय जाए तो वह तीसरे गुणस्थान में पहुँचता है ! और यदि
- अनंतानुबंधी कषाय उदय में जाए तो वह जीव दूसरे गुणस्थान में जा पहुँचता है !
उसके बाद मिथ्यात्व कर्म का उदय आता है और यह जीव पुनः मिथ्यादृष्टि बन, पहले गुणस्थान में जाता है !
दूसरा और तीसरा गुणस्थान जीव के पतन काल में होते हैं, उत्थान काल में नहीं ...
मतलब ये कि, जीव गुणस्थान जब चढ़ना शुरू करता है, तो पहले से सीधे चौथे में पहुँचता है, और वहाँ से गिर कर तीसरे/दूसरे में पहुँचता है !
- *सासादन-मिथ्यादृष्टि* *गुणस्थान* :-
जैसा कि ऊपर बताया, इस गुणस्थान कि प्राप्ति जीव को सम्यक्त्व से गिरती हुई दशा में होती है !
-
सासादन का अर्थ सम्यक्त्व/सम्यग्दर्शन कि विराधना है !
इस गुणस्थान में जीव को सा-स्वादन सम्यग्दृष्टि कहते हैं !
सा-स्वादन क्यूंकि,
जब कोई सम्यग्दृष्टि जीव कर्मोदय कि तीव्रता से सम्यक्त्व का वमन करता है तो उस वमनकाल में भी उसे सम्यग्दर्शन काल वाली आत्म-विशुद्धि का आभास होता रहता है !
किन्तु जिस प्रकार पर्वत से गिरता हुआ जीव अधिक समय तक हवा में नहीं रह सकता उसी प्रकार चौथे गुणस्थान से गिरते हुए जीव दूसरे गुणस्थान में "1 समय से लगाकर अधिक से अधिक 6 आवली" तक रह सकता है
उसके बाद नियम से मिथ्यात्व कर्म का उदय आता है और जीव फिरसे पहले "मिथ्यात्व गुणस्थान" में पहुँच जाता है !
***
दूसरा गुणस्थान अनंतानुबंधी कषाय के उदय से होता है !
3 - *सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान*
चौथे असंयत/अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में रहते हुए जीव के जब "मोहनीय कर्म की सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति" का उदय आता है, तो वह जीव चौथे गुणस्थान से गिरकर तीसरे गुणस्थान में जाता है !!!
तीसरे गुणस्थानवर्ती जीव के परिणाम तो शुद्ध सम्यक्त्वरूप ही होते हैं और ही शुद्ध मिथ्यात्वरूप होते हैं, किन्तु मिश्र्रूप/मिले-जुले होते हैं !

तीसरे गुणस्थानवर्ती जीव के परिणाम तो शुद्ध ही होते हैं और ही अशुद्ध, बल्कि मिले हुए परिणाम होते हैं !
इस गुणस्थान का काल भी अधिक से अधिक एक अन्तर्मुहुर्त का होता है !
नोट :- तीसरे गुणस्थान वाला जीव अगर संभल जाए तो चौथे गुणस्थान में पहुच जाता है, वर्ना नीचे के गुणस्थानों में उसका पतन निश्चित ही है !!!
*** सम्यगमिथ्यात्व का उदय तीसरे गुणस्थान में होता है !
4 - *असंयत/अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान*
जैसा की हमे पता ही है कि सबसे पहली बार जीव को यथार्थदृष्टि प्राप्त होते ही, वह चौथे गुणस्थान में पहुँच जाता है !
यह यथार्थदृष्टि जिसे सम्यग्दर्शन कहते हैं, 3 प्रकार की होती है !
- औपशमिक 
- क्षायिक 
- क्षायोपशमिक
ये जीव के परिणाम हैं जो हमने समझे !
दर्शन मोहनीय की तीनों :-
- मिथ्यात्व प्रकृति 
- सम्यक्त्व प्रकृति
- सम्यगमिथ्यात्व प्रकृति
और,
चारित्र मोहनीय कर्म की चार :- 
अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ
इन 7 प्रकृतियों के "उपशम" से औपशमिक सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है !
==>
जीव को सबसे पहले इसी सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है !
लेकिन इसका काल अन्तर्मुहुर्त ही होता है तो यह जीव सम्यक्त्व से गिर जाता है और फिर से मिथ्यादृष्टि बन जाता है ... पुनः जब यह जीव ऊपर चढ़ने का प्रयत्न करता है और बतायी हुई 7 प्रकृतियों का क्षयोपशम करके "क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि" बनता है !
जिसका काल अन्तर्मुहुर्त से 66 सागर तक है
याने, किसी जीव को यदि क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन लागातार बना रहे तो उसके देव और मनुष्य भव में परिभ्रमण करते हुए लगातार 66 सागर तक बना रह सकता है !
ऊपर मोहनीय कर्म की जो 7 प्रकृतियाँ बतायी हैं, उन्ही का क्षय करके यह जीव "क्षायिकसम्यग्दृष्टि" बनता है, और उसके बाद नियम से चार भव में मोक्ष को प्राप्त कर लेता है !

चारित्र मोहनीय कर्म की बाकी प्रकृतियों के तीव्र उदय होने से यद्धपि चौथे गुणस्थान वाला जीव व्रत-संयमादि का रंच मात्र भी पालन नहीं करता है, किन्तु फिर भी इंद्रियों के विषयों में इनकी आसक्ति ना के बराबर हो जाती है !
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