प्रवचनसारः गाथा -90,91 सदृश्य अस्तितव का कथन
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -90 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -97 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


तम्हा जिणमग्गादो गुणेहिं आदं परं च दव्वेसु /
अभिगच्छदु णिम्मोहं इच्छदि जदि अप्पणो अप्पा // 90 //


अब स्वपर विवेककी सबप्रकार सिद्धि जिनभगवान् प्रणीत आगमसे करनी चाहिये, ऐसा कहकर इस कथनका संक्षेप करते हैं-[तस्मात् ] इसलिये [ यदि ] जो [आत्मा] यह जीव [आत्मनः] आपको [निर्मोहं] मोह रहित वीतराग भावरूप [इच्छति] चाहता है, तो [जिनमार्गात्] वीतरागदेव कथित आगमसे [गुणैः] विशेष गुणोंके द्वारा [द्रव्येषु] छह द्रव्योंमेंसे [आत्मानं] आपको [च] और [परं] अन्य द्रव्योंको [अभिगच्छतु] जाने / भावार्थ-द्रव्योंके गुण दो प्रकारके हैं, एक सामान्य और दूसरे विशेष / इनमें से सामान्य गुणोंके द्वारा द्रव्योंका भेद नहीं हो सकता, इसलिये बुद्धिमान् पुरुषोंको चाहिये, कि विशेष गुणोंके द्वारा अनन्त द्रव्यकी संततिमें अपना और परका भेद करें / इस कारण अब उस स्व पर भेदका प्रकार कहते हैं-इस अनादिनिधन, किसीसे उत्पन्न नहीं हुए, अंतर बाहिर दैदीप्यमान, स्व परके जाननेवाले अपने चैतन्य गुणसे अन्य जीव द्रव्य तथा अजीव द्रव्य इनको जुदा करके मैं आप विषे तीनों काल अविनाशी अपने स्वरूपको जानता हूँ, और आकाश, धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल, तथा अन्य जीव जो हैं, उनके भेद भिन्न भिन्न (जुदा जुदा) विशेष लक्षणोंसे अपने अपने में तीन काल अविनाशी ऐसे इनके स्वरूपको भी मैं जानता हूँ / इसलिये मैं आकाश नहीं हूँ, धर्म नहीं हूँ, अधर्म नहीं हूँ, काल नहीं हूँ, पुद्गल नहीं हूँ, और अन्य जीव भी नहीं हूँ। मैं जो हूँ, सो हूँ। जैसे एक सुरमें अनेक दीपक जलानेसे उन सबका प्रकाश उस घरमें एक जगह मिला हुआ रहता है, इसी प्रकार ये छह द्रव्य एक क्षेत्रमें रहते हैं, परंतु मेरा द्रव्य इन सबसे भिन्न है / जैसे सब दीपकोंका प्रकाश देखनेसे तो मिला हुआ सा दिखाई देता है, परंतु सूक्ष्म दृष्टिसे विचारपूर्वक देखा जावे, तो जो जिस दीपकका प्रकाश है, वह उसीका है / इसी प्रकार यह मेरा चैतन्य स्वरूप मुझको सबसे पृथक् दिखलाता है। इस प्रकार स्व पर विवेकवाले आत्माके फिर मोहरूपी अंकुरकी उत्पत्ति नहीं होती

गाथा -91 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -98 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


सत्तासंबद्धदे सविसेसे जो हि व सामण्णे /
सद्दहदि ण सो समणो तत्तो धम्मो ण संभवदि // 91 //


अब कहते हैं, कि वीतरागदेव कथित पदार्थोकी श्रद्धाके विना इस जीबको आत्म-धर्मका लाभ नहीं होता-[यः] जो जीव [हि ] निश्चयसे [श्रामण्ये ] यति अवस्थामें [सत्तासंबद्धान् ] सत्ता भावसे सामान्य अस्तिपने सहित और [सविशेषान् ] अपने अपने विशेष अस्तित्व सहित [एतान् ] इन छह द्रव्योंको [नैव श्रद्दधाति] नहीं श्रद्धान करता, [सः] वह जीव [श्रमणः ] मुनि [न] नहीं है, और [ततः] उस द्रव्यलिंगी ( बाह्य भेषधारी) मुनिसे [ धर्मः] शुद्धोपयोगरूप आत्मीक-धर्म [न संभवति ] नहीं हो सकता / भावार्थअस्तित्व दो प्रकारका है, एक सामान्य अस्तित्व, दूसरा विशेष अस्तित्व / जैसे वृक्ष जातिसे वृक्ष एक हैं, आम-निम्बादि भेदोंसे पृथक् पृथक् हैं, इसी प्रकार द्रव्य सामान्य अस्तित्वसे एक है, विशेष अस्तिबसे एक है, विशेष अस्तित्वसे अपने जुदा जुदा स्वरूप सहित है / इन सामान्य विशेष भाव संयुक्त द्रव्योंको जो जीव मुनि अवस्था धारण करके नहीं जानता है, और स्व पर भेद सहित श्रद्धान नहीं करता है, वह यति नहीं है / सम्यक्त्व भावके विना द्रव्यलिंग अवस्थाको धारण करके व्यर्थ ही खेदखिन्न होता है, क्योंकि इस अवस्थासे आत्मीक-धर्मकी संभावना नहीं है / जैसे धूलका धोनेवाला न्यारिया यदि सोनेकी कणिकाओंको पहचाननेवाला नहीं होवे, तो वह कितना भी कष्ट क्यों न उठावे, परंतु उसे सुवर्णकी प्राप्ति नहीं होती, इसी प्रकार संयमादि क्रियामें कितना ही खेद क्यों न करे, परंतु लक्षणोंसे स्व पर भेदके विना वीतराग आत्म-तत्वकी प्राप्तिरूप धर्म इस जीवके उत्पन्न नहीं होता //

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार 

गाथा 90

अन्वयार्थ - ( तम्हा ) इसलिये ( स्वपर के विवेक से मोह का क्षय हो सकने योग्य होने से ) ( जदि ) यदि ( अप्पा ) आत्मा (अण्पणो ) अपनी ( णिम्मोहं ) निर्मोहता ( इच्छदि ) चाहता है , तो ( जिणमग्गादो ) जिनमार्ग से (गुणेहिं) गुणों के द्वारा (दव्वेसु ) द्रव्यों में ( आदं परं च ) स्व और  पर को ( अहिगच्छदु ) जानी ( जिनागम के द्वारा विशेष गुणों से यह विवेक करो कि - अनन्त द्रव्यों में | से यह स्व और यह पर है । )

गाथा 91
अन्वयार्थ - (जो हि) जो (सामण्णे) श्रमणावस्था में (सत्तासंबद्धेदे सविसेसे) इन संयुक्त सविशेष पदार्थों की (णेव सद्दहदि) श्रद्धा नहीं करता (सो) वह (समणो ण) श्रमण नहीं है, (तत्तो धम्मो ण संभवदि) उससे धर्म का उद्भव नहीं होता (उस श्रमणाभास के धर्म नहीं होता।)


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#2

Gatha 90 
Therefore, the man who aspires to become delusion-free (nirmoha or vītarāga) should, through the study of the
Scripture, understand the distinction between the self and the non-self, as per the qualities (guna) of the substances (dravya).

Explanatory Note: All objects have two kinds of qualities (guna) – the general (sāmānya) and the specific (viśesa). The general qualities express the genus (jāti) or the general attributes, and the specific qualities describe the constantly changing conditions or modes. Consciousness (cetanatva) is a specific (viśesa) attribute of the soul when viewed in reference to non-souls but a general (sāmānya) attribute when viewed in reference to other souls. In a hundred pitchers, the general quality is their jar-ness, and the specific quality is their individual size, shape or mark. Thousands of trees in a forest have tree-ness (vrksatva) as the general (sāmānya) attribute but each tree has specific (viśesa) attributes, distinguishing these as the neem tree, the oak tree or the palm tree. The knowledgeable man should distinguish his soul from all other substances by concentrating on the specific qualities of each substance. He knows the nature of his soul as eternal, not produced by any external entity, and equipped with the light of knowledge that knows the self as well as the other substances. I am not the substance of dharma, adharma, ākāśa, kāla or pudgala;  not even the other soul (jīva). All these six substances inhabit the
same space as the light of many lamps inhabits the same room; still, each is a different substance. My nature of consciousness (cetanatva) makes me different from all other substances. In the soul that understands this distinction between the self and the non-self, the seed of delusion (moha) does not sprout.

Gatha 91 
Certainly, the ascetic (muni, śramaõa) who does not have faith in the six substances in regard to their general (sāmānya), like existence (sattā), and specific (viśeÈa) qualities, cannot attain the stage of supreme conduct, i.e., pure-cognition (śuddhopayoga).

Explanatory Note: All substances (dravya) have two kinds of attributes or qualities (guna) – the general (sāmānya) and the
specific (viśesa). The ascetic who does not know the six substances, each characterized by its general (sāmānya) and specific (viśesa)  qualities, and does not perceive distinction between the soul and the non-soul, is not a true ascetic. Without right perception, even after becoming an ascetic externally, he ever remains anxious and cannot engage in pure-cognition (śuddhopayoga). The man who is not able to distinguish between the gold particles and the particles of other substances in the ore cannot obtain gold even after putting  in great effort. Similarly, the ascetic, who is not able to distinguish between the soul and the non-soul, cannot attain the stage of supreme conduct (dharma), i.e., pure-cognition (śuddhopayoga), even after observing austerity and self-restraint.
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -89,90

है निजदेह प्रमाण आत्मद्रव्य  चेतनायुक्त अहा ।
इतर द्रव्य अचेतन ऐसे समझे मोहाभाव कहा ॥

जो निर्मोही होना चाहे जैनागमसे ठीक करे

अतः ज्ञानयुत जीव और वह देहादिक जगके सगरे॥ 45



सारांश:- जैनागममें बताया है कि द्रव्य, गुण और पर्याय ये तीनों ही जानने योग्य हैं। इनमें परस्पर दात्म्य नामक अभिभाव सम्बन्ध बना हुआ है। गुणको कभी भी नहीं छोड़नेवाला द्रव्य होता है गुणोंमें विकार (परिणमन) होते रहनेका नाम पर्याय है। हर एक द्रव्य अपने अपने गुणोंको सदा अपने साथमें रखते हुए परस्पर एक द्रव्य दूसरे द्रव्यसेन होता है। आत्मद्रव्य अपने अन्य गुणोंके साथ साथ चेतना गुणवाला है। शेष सब द्रव्य चेतना रहित (जड़) होते हैं। आत्मा समुद्घात के सिवाय इतर समय में अपने प्राप्त हुए शरीरप्रमाण रहनेवाला है।

इस प्रकार का जैनागम विहित पदार्थोंका स्वरूप युक्ति और अनुभव के द्वारा भी विचार करने पर सही सिद्ध होता है। अतः जो मनुष्य अपने विश्वास को जैनागमके अनुकूल बना लेता है, वह भूलरहित हो जाता है। जो सुमार्ग में लगना चाहता हो उसे चाहिए कि वह जैनागम का अभ्यास करे। अन्यथा वह गृहस्थ ही क्या किन्तु साधु सन्यासी बन करके भी धर्मात्मा नहीं हो सकता है।

गाथा -91,92
जो सामान्य विशेषरूप इन चीजोंको नहिं पहिचाने ।
परिव्रजित होकरके भी वह नहीं धर्म मनमें आने
समश्वासयुक्त आगमवेत्ता वीतराग चारित्र धरे ।
अपितु वास्तविक धर्मयुत महात्मा समर्थ वह मुक्ति वरे ॥ ४६

सारांश:- जो किसी कारण विशेष (सन्मानादि प्राप्त करनेकी इच्छा वगैरह से गृहस्थाश्रमका त्याग करके यदि साधु भी बन गया हो परन्तु जिसके मनमें कथञ्चित अस्तिनास्ति स्वरूप सामान्य विशेषात्मक पदार्थोके यथार्थ स्वरूपका विश्वास (श्रद्धान) न होसका हो तो यह धर्मात्मा कहलानेका अधिकारी नहीं है। उसका वह देश तो बहुरूपिया के स्वाङ्गके समान है। इस दशामें भी यदि वह काललब्धिके योगसे तत्वार्थ श्रद्धान प्राप्त करले तो फिर उससे शत्रु मित्र, तृण कंचन एवं सांसारिक सुख दुःखमें समताभावरूप वास्तविक वैराग्य पर आ सकता है एवं चितकी स्थिरताके द्वारा आगमका पारगामी बनकर वह बाहर की सब बातोंसे विमुख होते हुए आत्मतल्लीनता प्राप्त करले तो तत्क्षण धर्मात्माकी परिपूर्ण सम्पत्तिको प्राप्त कर सकता है, जिससे उसे आगे दूसरा जन्म ही धारण न करना पड़े। इसतरह वह आराधकसे आराध्य बन सकता है उसकी आराधना करनेवाले कैसे होते हैं,
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